Friday, December 23, 2022

श्रीराम का भरत को समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकादशाधिकशतम: सर्ग:


वशिष्ठ जी के समझाने पर भी श्रीराम को पिता की आज्ञा के पालन से विरक्त न होते देख भरत का धरना देने को  तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें  समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना 


सभासद व मंत्रियों से कहा, सुनें सभी, मैंने न माँगा 

कभी पिता से अवध का शासन,  माता से भी नहीं कहा 


साथ ही नहीं है सम्मति मेरी, वनवास में श्री राम के 


फिर भी यदि आवश्यक इनको, पिता की आज्ञा का पालन 

इनके बदले मैं ही करूँगा, चौदह वर्ष वन में चारण 


भाई भरत की इस बात से, अति विस्मय हुआ श्री राम को 

कहे वचन तब देख उन्होंने, पुरवासी व अन्य  सभी को 


पिताजी ने निज जीवन में, कोई वस्तु बेची या ख़रीदी 

उसे बदल नहीं अब सकते, अथवा धरोहर भी हो रखी


नहीं बनाना प्रतिनिधि किसी को, मुझे इस वनवास के लिए 

सामर्थ्य वान हेतु निन्दित है,  काम लेना भी प्रतिनिधि से


कैकेयी की माँग उचित थी, पुण्य किया पिता ने उसे दे


भरत बड़े ही क्षमाशील हैं, गुरुजन का आदर करते हैं 

सत्य प्रतिज्ञ इन महात्मा में, कल्याण कारी सब गुण  हैं  


चौदह वर्षों की अवधि पूर्ण कर, जब मैं वन से लौटूँगा 

धर्मशील प्रिय भरत  के साथ, भूमंडल का राज करूँगा 


कैकेयी ने वर माँगा, मैंने उसका किया है पालन 

अब तुम मानो मेरा कहना, वर को साधो, कर के शासन  


महाराज दशरथ को अपने, असत्य बंधन से मुक्त करो 


 इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 


Tuesday, December 20, 2022

भरत का धरना देने को तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकादशाधिकशतम: सर्ग:


वशिष्ठ जी के समझाने पर भी श्रीराम को पिता की आज्ञा के पालन से विरक्त न होते देख भरत का धरना देने को  तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें  समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना 


​​तब राज पुरोहित मुनि वसिष्ठ ने, श्रीराम से पुनः यह कहा 

तीन गुरू  होते हैं पुरुष के, आचार्य, माता और  पिता 


पिता तन को उत्पन्न करता, इसीलिए उसे गुरु कहा है 

ज्ञान प्रदान करता आचार्य, अतः गुरु का पद उसे मिला है 


हे रघुवीर ! मैं हूँ आचार्य,  तुम्हारा व तुम्हारे पिता का

सत्पथ त्यागी नहीं बनोगे, पालन करो मेरी आज्ञा  


सभासद, बंधु, सामंत राव, अभी पधारे हुए यहाँ हैं 

धर्मानुकूल बर्ताव इन प्रति, सन्मार्ग का पालन ही है 


धर्मपरायणा वृद्ध माँ की, नहीं टालने योग्य फ़रियाद 

उनकी आज्ञा के पालन से, धर्म उल्लंघन की क्या बात 


सत्य, धर्म, शौर्य सम्पन्न , भरत तुम्हारे आत्मस्वरूप हैं 

उनकी बात मान लेने से, हानि धर्म की नहीं कोई है 


सुमधुर वचनों को सुन मुनि के, श्री राघवेंद्र ने वचन कहे 

बदला कभी चुका न सकते, उपकारों का माता-पिता के


स्नेहपूर्ण व्यवहार वे करते, शक्ति भर पदार्थ देते हैं 

सुखद बिछौने पर सुलाते, उबटन आदि नित्य लगाते हैं


अतः जन्मदाता पिता ने, जो आज्ञा मुझे सौंपी है 

मिथ्या कभी नहीं हो सकती, उनकी वाणी मुझे प्रिय है 


ऐसा कहने पर भाई के, भरत का मन उदास हो गया 

निकट ही बैठे सूत सुमंत्र से, वचन दुखी हो यही कहा 


जैसा साहूकार द्वारा, निर्धन हुआ ब्राह्मण करता है 

बिना खाए कुछ उसके दर पर, मुँह ढककर पड़ा रहता है 


इस वेदी पर कुशा बिछवाँ दें, यहीं पर मैं धरना दूँगा 

जब तक राम प्रसन्न नहीं होते, मुख ढक मैं यहीं रहूँगा 


यह सब सुनकर सुमंत्र दुखी हो, मुँह ताकने लगे राम का 

स्वयं ही ले चटाई कुश की, भरत ने वहाँ डेरा डाला 


​​महायशस्वी राम ने कहा, क्या बुराई की है मैंने 

अन्यायी तुम्हें लगता हूँ, धरना दोगे मेरे सामने


ब्राह्मण को अधिकार रोक सके, अन्याय को देकर धरना

राजतिलक धारी क्षत्रियों को, विधान नहीं है धरने का 


परित्याग कर इस व्रत का, शीघ्र अयोध्या पुरी को जाओ 

जनपद जन से भरत ने कहा, आप ही राम को समझाओ


Saturday, November 5, 2022

वसिष्ठजी का श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

दशाधिकततम: सर्ग:


वसिष्ठजी  का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की
परंपरा बताकर ज्येष्ठ के ही राज्याभिषेक का औचित्य
सिद्द्ध करना और श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना 


सुना गया है राजा असित की, दो पत्नियाँ गर्भवती थीं 

उत्तम पुत्र हेतु रानी ने, च्यवन मुनि की अभ्यर्थना की


अन्य रानी ने गरल दिया, गर्भ नष्ट करने को सौत का

किन्तु उसे वरदान प्राप्त था, भृगुवंशी महा च्यवन मुनि का 

  

महामनस्वी, लोक विख्यात, प्राप्त तुम्हें महान सुत होगा 

अति धर्मात्मा, कुलवर्धक वह, शत्रु का संहारक होगा 


कालांतर में रानी ने फिर, एक पुत्र को जन्म दिया था 

नेत्र कमलदल सम सुंदर थे, शरीर भी अति कांतिवान था        


नष्ट करने उसे गर्भ में, गर दिया था सौतेली माँ ने

उसके सहित ही वह जन्मा था, सगर कहलाया इसीलिए  


राजा सगर वह जिन्होंने, प्रजाओं को अति भयभीत किया 

पर्व के दिन ले यज्ञ दीक्षा, पुत्रों से  सिंधु  खुदवाया 


 पुत्र सगर का था असमञ्जस, पापकर्म में जो प्रवृत्त था 

पिता ने जीते जी ही जिसको, शासन से निकाल दिया था 

 

असमञ्जस के सुत अंशुमान थे, अंशुमान के थे दिलीप 

भागीरथ हुए दिलीप के पुत्र, ककुत्स्थ के पिता भगीरथ 


ककुसत्थ के घर रघु जन्मे, जिनसे वंश कहलाये राघव 

रघु के सुत कल्माषपाद थे, शाप वश जो बने थे राक्षस       


उनके सुत हुए थे शंखण, सेना सहित जो नष्ट हुए थे 

शंखण के श्रीमान सुदर्शन, अग्निवर्ण पुत्र सुदर्शन के 


अग्निनवर्ण के यहाँ शीघ्रग, उनके मरू,  प्रशुश्रुव मरु  के

प्रशुश्रुव के सुत रूप  में,  महाबुद्धिमान अम्बरीष हुए  


अम्बरीष के पुत्र नहुष थे,  नाभाग हुए पुत्र नहुष के 

नाभाग के अज तथा  सुव्रत,  दशरथ थे सुत राजा अज के 


दशरथ के  तुम बड़े पुत्र हो, श्रीराम नाम से जो प्रसिद्ध 

अयोध्या का राज्य है तुम्हारा, अधिकार पूर्व  करो ग्रहण 


बड़ा पुत्र ही राजा बनता, इक्ष्वाकुवंश की  रीत यही 

होते हुए ज्येष्ठ पुत्र के, वारिस कभी  छोटा पुत्र नहीं 


रघुवंशियों का कुलधर्म है, नष्ट नहीं करो उसको आज 

रत्नराशि से संपन्न भू पर , पिता समान करो तुम राज 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के

अयोध्याकाण्ड में एक सौ दसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

                                                    

 

Wednesday, July 20, 2022

वसिष्ठजी का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की परंपरा बताना



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 दशाधिकततम: सर्ग:

वसिष्ठजी  का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की परंपरा बताकर ज्येष्ठ के हाई राज्याभिषेक का औचित्य सिद्द्ध करना और श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना 


श्री रामचंद्र को रुष्ट जान, यह कहा महर्षि वसिष्ठ ने 

अस्तित्त्व है परलोक का, ब्राह्मण जाबालि भी यह जानते      


तुमको लौटाने की ख़ातिर, ऐसी बात कही उन्होंने 

इस लोक की उत्पत्ति का, अब यह वृत्तांत सुनो तुम मुझसे 


सभी जलमय था आरम्भ में, जल से भू का निर्माण हुआ 

ब्रह्मा प्रकटे देवों के सँग, बन विष्णु वराहावतार लिया      


जल के भीतर से पृथ्वी को, इसी रूप में बाहर निकाला 

कृतात्मा पुत्रों के संग मिल, ब्रह्मा ने जग निर्माण किया 


परब्रह्म  परमात्मा से, प्रादुर्भाव हुआ ब्रह्मा का 

नित्य,सनातन, अविनाशी जो, फिर मरीचि, जिनसे कश्यप का 


कश्यप से हुए विवस्वान फिर, प्रजापति वैवस्त मनु थे 

मनु के पुत्र हुए इक्ष्वाकु, राजा जिन्हें बनाया मनु ने     


प्रथम नरेश अयोध्या के थे वे, उनसे कुक्षि, फिर विकुक्षि

महाप्रतापी बाण हुए फिर, अनरण्य थे जिनके पुत्र श्री 


सत्पुरुषों में श्रेष्ठ राजा थे, नहीं अकाल, सूखा देखा 

कोई चोर नहीं था राज्य में,  उनके पुत्र थे पृथु राजा


महातेजस्वी त्रिशंकु की, उत्पत्ति हुई राजा पृथु से    

विश्वामित्र के सत् प्रभाव से, स्वर्ग सदेह वे चले गए  


महायशस्वी धुँधुमार फिर, राजा त्रिशंकु के पुत्र हुए 

धुँधुमार के युवनाश्व थे,  जिनके पुत्र श्री मांधाता थे


सुसंधि पुत्र मांधाता के, ध्रुवसंधि व प्रसेनजित उनके 

ध्रुवसंधि के पुत्र भरत थे, असित का जन्म हुआ था जिन से   


तालजाँघ व शशबिंदु से मिल, शत्रु हैहय ने उन्हें हराया  

शैल शिखर पर मुनिभाव से, चिंतन करते परमात्मा का


Saturday, May 14, 2022

श्रीराम के द्वारा ज़ाबालि के मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


नवाधिकशततम: सर्ग:  


श्रीराम के द्वारा ज़ाबालि के मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन 



 धरा, कीर्ति, यश, लक्ष्मी,चारों, वरण सत्यवादी का करतीं 

शिष्ट पुरुष करें सत्य पालन, यही है सुंदर जीवन नीति 


तर्कपूर्ण वचनों के द्वारा, सिद्ध किया है जो आपने 

श्रेष्ठ प्रतीत भले होता हो,नहीं उपयुक्त आचरण के 


वन में रहने की प्रतिज्ञा, मैंने पिता के सम्मुख की है

कैसे मानूँ बात भरत की, मेरी यह प्रतिज्ञा अटल है 


जब मैंने प्रतिज्ञा की थी, कैकेयी माँ हर्षित हुईं थीं 

भीतर-बाहर बनूँ मैं पावन, अब वन ही शरण स्थली होगी 


फल, मूल, पुष्पों के द्वारा, देवों, पितरों को तृप्त करूँगा

निर्णय किया उचित,अनुचित का, श्रद्धापूर्वक पूर्ण करूँगा 


पाकर सब इस कर्मभूमि को, शुभ कर्मों का करें अनुष्ठान 

अगिन, वायु, सोम आदि को कर्मों के कारण मिला सम्मान 


सौ यज्ञों का किया अनुष्ठान, स्वर्गलोक इंद्र ने पाया 

उग्र तपस्या कर तापसों ने, स्थान दिव्य लोक में पाया 


परलोक की सत्ता का खण्डन, जाबालि ने जो किया था 

श्रीराम सहन न कर पाए, निंदा करते यह वचन कहा 


सत्य, धर्म, पराक्रम, प्रिय वाणी, सभी प्राणियों के प्रति दया 

देवों, अतिथि, ब्राह्मणों की पूजा, यही स्वर्ग का मार्ग कहा 


धर्म का शुद्ध स्वरूप जानकर, तर्क से निश्चय पर पहुँच कर

उत्तम लोक प्राप्त करते हैं,  ब्राह्मण धर्म का आचरण कर 


विषम-मार्ग में स्थित होकर, वेद विरुद्ध हुई बुद्धि आपकी 

दूर धर्म से, बने नास्तिक, निंदा करता हूँ इस कार्य की 


पिताजी ने अपना याजक, कैसे बना लिया था आपको

जैसे चोर निंदनीय सदा,  वेद विरोधी दंडनीय हो 


श्रेष्ठ  ब्राह्मणों ने सदा ही, शुभ कर्मों का  किया अनुष्ठान  

वेदों को प्रमाण मानकर, कृत, हुत आदि का किया सम्पादन    


धर्म में तत्पर रहने वाले, सत्पुरुषों का संग जो करें  

तेज से सम्पन्न, युक्त दान से, श्रेष्ठ मुनि ही पूजित होएं 


दैन्य भाव से रहित राम ने, रोषयुक्त ये शब्द कहे जब 

विनयपूर्वक जाबालि ने, हितकारी व सत्य वचन कहे तब 


नहीं नास्तिक हूँ मैं राम, न ही नास्तिकों की बातें करता 

आवश्यकता पड़ने पर केवल, मैं पुनः नास्तिक हो सकता 


ऐसा ही अवसर आया था, नास्तिकता की कहीं थीं बातें 

एक मात्र उद्देश्य था इसमें,  आप पुनः अयोध्या लौटें 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ नौवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Thursday, May 5, 2022

श्रीराम के द्वारा ज़ाबालि के मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन

 श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


नवाधिकशततम: सर्ग:  


श्रीराम के द्वारा ज़ाबालि के मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन 


ज़ाबालि का वचन सुना जब, सत्यप्रतिज्ञ श्री रामचंद्र ने 

श्रुति सम्मत उक्ति के द्वारा, हो संशय रहित ये वचन कहे 


मेरा प्रिय करने की ख़ातिर, कर्तव्य की जो बात कही 

ज्यों अपथ्य,पथ्य सम लगता, किसी भांति भी करने योग्य नहीं 


धर्म, वेद की तज मर्यादा, जो नर पाप कर्म में लगता 

भ्रष्ट हुआ आचार-विचार से, सत्पुरुषों में यश न पाता 


आचार ही यह बतलाता, किस कुल में जन्म किया धारण 

कौन वीर, कौन बकवादी, कौन पवित्र  है कौन अपावन 


आपने जो आचार बताया, अनार्य पुरुष उसे अपनाते 

भीतर से अपवित्र रहे जो, शीलवान ऊपर से दिखते 


चोला पहने हुए धर्म का, उपदेश आपका है अधर्म  

माना जाऊँगा दुराचारी,त्याग दूँ यदि मैं शुभकर्म 


जग में वर्णसंकरता बढ़े, कर्तव्य भान खो जाएगा 

लोक कलंकित होगा इससे, कोई न श्रेष्ठ मान पाएगा 


निज प्रतिज्ञा यदि कोई तोड़े, किस साधन से पाए स्वर्ग  

यदि मैं नहीं कोई किसी का, किसका है फिर यह उपदेश 


यदि चलूँ आपके मार्ग पर, स्वेच्छा चारी बन जाऊँगा 

लोक भी वैसा ही करेगा, प्रजा भी वैसी जैसा राजा 


सत्य का सदा पालन करना, राजाओं का दया धर्म है 

सत्य स्वरूप राज्य होता है, सत्य में ही लोक टिका है 


सत्य का आदर करते आए, सदा ऋषि गण और देवता 

सत्यवादी पुरुष लोक में, अक्षय परम धाम को जाता 


जैसे सर्प से भय लगता, असत्य वक्ता से सभी डरते 

सत्य पराकाष्ठा धर्म की, वही सबका मूल कहा जाता  


जगत में सत्य ईश्वर ही है, धर्म टिका है  इसके बल पर 

मूल सभी का सत्य है केवल, नहीं परम पद उससे बढ़कर 


दान, यज्ञ, तप, वेद, होम का, एक सत्य ही सदा आधार 

सत्यपरायण बनें सभी जन, इसका ही करें सब व्यवहार 


कोई जगत का पालन करता, कोई कुल को करता पोषित 

कोई यहाँ नर्क जाता है, कोई स्वर्गलोक में प्रमुदित 


सत्य प्रतिज्ञ हूँ मैं यदि, पिता के सत्य को किया है धारण 

ऐसी दशा में क्यों न करूँ, उनके इस आदेश का पालन 


पहले कर प्रतिज्ञा इसकी,लोभ, मोह अज्ञान के कारण 

हो विवेकशून्य क्यों अब, नहीं मर्यादा का करूँ पालन  


सुना है जो भी भ्रष्ट हुआ नर, वचन तोड़ने का कारण से 

उसके दिए हवय-कव्य को, देवता भी  ग्रहण नहीं करते 


सत्य रूपी धर्म का पालन, हितकर सबके लिए मानता

सत्पुरुषों ने किया है धारण, सब धर्मों में श्रेष्ठ जानता


वल्कल, जटा आदि धार कर, तापस धर्म का पालन करते 

सत्पुरुषों ने मार्ग दिखाया, हम उसका अभिनंदन करते 

 

लगे धर्म पर हो अधर्म उस, क्षात्र धर्म को नहीं मानता 

नीच, क्रूर, लोभी जन चलते, उस मार्ग का त्याग करूँगा


देह से जो पाप करे नर, पहले मन से निश्चित करता 

फिर जिव्हा से उसे बता कर, अन्य के सहयोग से करता 


कायिक, वाचिक, मनसा आदि, तीन तरह का पातक होता 

सत्यवादी पुरुष सदा ही, हर प्रकार के पाप से बचता 





Thursday, April 28, 2022

जाबालि का नास्तिकों के मत का अवलम्बन करके श्रीराम को समझाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 अष्टाधिकशततम: सर्ग:

जाबालि का नास्तिकों के मत का अवलम्बन करके श्रीराम को समझाना


जब धर्मज्ञ श्रीराम भरत को, समझा बुझा रहे प्रेम से 

तब ब्राह्मण शिरोमणि जाबालि ने, धर्म विरुद्ध ये वचन कहे 


रघुनंदन आप बुद्धिमान हैं, अपढ़ जन सम विचार न करें

कौन यहाँ किसका बंधु है, जीव अकेला जन्मता व मरे 


कोई न माता-पिता किसी का, आसक्ति सब व्यर्थ है यहाँ 

दुनिया एक सराय जैसी, सज्जन न होते आसक्त जहाँ 


त्याग पिता का राज्य आपको, उचित नहीं है वन में रहना 

अयोध्या नगरी प्रतीक्षित, राज्य अभिषेक कराएं अपना


देवराज ज्यों स्वर्ग में रहते, वैसे ही विचरें आप भी 

पिता आपके कोई नहीं थे, नहीं जुड़ें उनसे आप भी 


पिता जन्म में निमित्त मात्र है, रज-वीर्य संयोग है कारण 

नहीं हैं राजा अब दुनिया में, दुःख उठाते आप किस कारण 


प्राप्त हुए अर्थ का जो नर, धर्म के नाम पर त्याग कर गए 

उनके लिए अति शोक मुझे है, व्यर्थ ही मृत्यु को प्राप्त हुए 


अष्टका आदि जो श्राद्ध हैं, उनके देव पितर कहलाते 

किन्तु विचार यदि हम देखें, इसमें अन्न का नाश ही करते  


एक का खाया कहाँ लग सकता, भला दूसरे की देह में 

ऐसा नहीं संभव हो सकता, मृत मनुष्य पा सकते कैसे 


यदि कहीं ऐसा होता तो, यात्रियों का श्राद्ध कर देते 

उन्हें स्वयं ही मिल जाता फिर, मार्ग के लिए पथ्य न देते 


देवों के हित यज्ञ व पूजा, तप करने हित बनो सन्यासी 

यह बातें ग्रन्थों में लिखीं हैं, ज्ञानियों ने दान की खातिर 


इस लोक के सिवा दूसरा, लोक नहीं कोई इसको जानें 

राज्य लाभ का लेकर आश्रय, पारलौकिक को नहीं मानें 


सत्पुरुषों की बुद्धि जगत में, राह दिखाती प्रमाण भूत है 

मान कर अनुरोध भरत का, ग्रहण करें राज्य आप सुख से 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ आठवाँ सर्ग पूरा हुआ.

  


Friday, April 22, 2022

श्रीराम का भरत को समझाकर उन्हें अयोध्या जाने का आदेश देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

सप्ताधिकशततम: सर्ग:


श्रीराम का भरत को समझाकर उन्हें अयोध्या जाने का आदेश देना 


जब पुनः भरत ने किया निवेदन, तब ये वचन कहे राम ने 

सत्कार पूर्वक जो बैठे थे, मध्य में परिवार जनों के 


भरत ! तुमने जो शब्द कहे हैं, सर्वथा हैं योग्य तुम्हारे 

कैकयराज की कन्या माता, राजा दशरथ पिता तुम्हारे 


वर्षों पहले की बात है, जब दोनों का विवाह हुआ था 

कैकेयी पुत्र बने राजा, यह वचन नाना से कहा था 


देवासुर संग्राम में भी जब, महाराज का साथ दिया था 

अति सन्तुष्ट हुए पिता ने, माता को वरदान दिया था 


उस की पूर्ति हेतु माता ने, दो वर मांगे थे राजा से 

राज्य तुम्हारा, मेरा वनवास, राजा ने ये वचन दिए थे 


इस कारण मैं वन आया, यहां न कोई प्रतिद्वंदी मेरा 

पिता के सत्य की रक्षा हित, चौदह वर्ष  मैं यहीं रहूँगा 


तुम भी मानो उनकी आज्ञा, राज्य का अभिषेक कराओ 

यही तुम्हारे लिए उचित है, पिता को सत्यवादी बनाओ 


मुक्त करो  कैकेयी ऋण से, नर्क में गिरने से बचाओ 

मेरी खातिर यही करो तुम, माता का आनंद बढ़ाओ 


यज्ञ के समय गय नरेश ने, यही कहा था पितरों के हित 

पुत् नामक नर्क से पिता का, जो करता उद्धार,वही पुत्र 


गुणवान, बहुश्रुत पुत्रों की, इसीलिए इच्छा  सब करते

कोई यात्रा करे गया की, सम्भवतः उन पुत्रों में से 


इस तरह सब राजाओं ने, पितरों का उद्धार ही चाहा 

अत: उद्धार करो नर्क से, तुम भी अपने पूज्य पिता का 


ले शत्रुघ्न व ब्राह्मणों को, लौट अयोध्या प्रजा को सुख दो 

लक्ष्मण व सीता संग मैं भी, जाऊँगा दण्डकारण्य को 


तुम बनो मनुष्यों के राजा, मैं वन पशु सम्राट बनूँगा 

हर्षित होकर अब लौटो तुम, मैं भी ख़ुशी ख़ुशी जाऊँगा 


सूर्य प्रभा को कर तिरोहित, छत्र तुम्हें शीतल छाया दे 

मैं भी छाया ग्रहण करूँगा, नीचे इन जंगली वृक्षों के 


अतुलित बुद्धि वाले शत्रुघ्न, सेवा में सदा रहें तुम्हारी 

लक्ष्मण मेरे सदा सहायक,  चारों रक्षा करें सत्य की 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ सातवाँ सर्ग पूरा हुआ.