Friday, October 29, 2010

तुम आते नित रसधार लिये

तुम आते नित रसधार लिये
फिर तृषित रहा क्यों उर मेरा
क्यों हाथ बढ़ा छू ना सकूं
लहराता रेशम पट तेरा !

है गहन अंध घनघोर घटा
पथ बूझ नहीं पाते नैना
तुम स्नेह दीप जला रखना
यूँ बीतेगी सारी रैना !

तुम प्रियतम ! हो श्रेष्ट तुम्हीं
तुमसे ही जीवन जीवन है
जो तोड़ नहीं पाता मन वह
स्वयं डाला मैंने बंधन है !

Wednesday, October 27, 2010

हृदय में झंझावात उठा
सूना अंतर, मन है प्यासा
तुम झलक दिखाकर छिप जाते
दे जाते बस रोज दिलासा !


बरसों बीते ढूंढा तुमको
अब तक तुम दूर दूर बसते
देते आश्वासन मुस्का के
अकुलाहट सारी हर लेते !


जब तक हो पूर्ण पूजा मेरी
अंतर में अटल विश्वास रहे
भीतर प्रकाश छाए तब तक
हो यहीं, यही आभास रहे !

Monday, October 25, 2010

गूंज रही अनादि काल से
नील व्योम में वंशी की धुन
छल-छल सरिता भी उफन रही
पुष्पों पर भ्रमरों की गुनगुन !

श्रावण की घोर घटाओं में
तुम चंद्र ! नजर नहीं आते
छिप-छिप तड़ित सम दर्श दिए
तक, सूने उर को तरसाते !

Saturday, October 23, 2010

तुम मौन, गहन मौन प्रियतम !
मेरी पुकार सुनते तो हो
चुप, स्तब्ध, अडोल मैं भी तो हूँ
आतुर, कुछ मुझसे बोलो तो !

तुम आये जब, था होश नहीं
न पहचाना, न दिया ध्यान
भीतर कुछ अकुलाहट सी जगी
सुरभित दिशा से हुआ भान !

Thursday, October 21, 2010

कितनी सुषमा भर दी तुमने
सृष्टि के इस महायज्ञ में,
नित नवीन उत्सव की बेला
हास्य रुदन औ विरह मिलन में !

तुम प्रेम प्रभु ! मैं प्रेम पथिक
सर्वस्व तुम्हीं को सौंप दिया,
जग चलता अपनी राह मगर
मैंने न दूजा सौदा किया !

तुम आओगे यह आशा है
अन्तर पट खोल दिए अपने,
आतुरता बढ़ती ही जाती
कब पूर्ण हुए सारे सपने ?

Wednesday, October 20, 2010

वाणी नित गुणगान करे
मन करे तुम्हारा सुमिरन
तुम प्रेरणा बनो हृदय में
तुम हित कर्म करूं भगवन !

तुम खेला करते खेल नए
यह जगत तुम्हारा क्रीडांगन
आनंद की इन बौछारों में
गूंजे मेरी भी रुनझुन !

Tuesday, October 19, 2010

हे दयानिधान ! हे कृपालु !
दिए तन, मन, प्राण
सँग धरा आकाश !
बिन मांगे ही दिया प्रकाश
हे पूर्ण सत्य !, हे दयालु !
कामना से मुक्त कर
उर को संवारा,
बन कठोर दिया तोड़
तृष्णा का पाश !

Thursday, October 14, 2010

भावांजलि

पथ है बीहड़ लक्ष्य दूर है
इस यात्रा का अंत नहीं क्या,
द्वार द्वार खोजतीं आँखें
पता नहीं पाया मंजिल का !

कितने गीत रचे हैं मैंने
फिर भी सब अनकहा रह गया,
कितनी बार ! मिलोगे कब तुम ?
पूछे दिल, अनसुना रह गया !

Wednesday, October 13, 2010

भावांजलि

व्यर्थ ही हम बोझिल हो फिरते
तुच्छ कामना से इस मन की
सुंदर जग को आहत करते,
ज्योतिर्मय को हो समर्पित
क्यों नही निर्भार रहते ?

जिसका न कोई संगी साथी
उसका है वह जगन्नाथ,
निर्बल का बल, नाथ दीन का
सरल चित्त का भोलानाथ !

श्रम सीकर भूमि भिगोते
श्रमिकों का बलिदान जहाँ,
हरि वहीं ग्वालों सँग फिरते
कृषकों ने बोया धान जहाँ !

Monday, October 11, 2010

भावांजलि

हे प्रभु ! अपनी शरण में ले लो
इस घट को अब खाली कर दो
भाव पुष्प मुरझा ना जाये
अपने चरणों में ही धर दो !

छोड़ दिया अभिमान प्रीत का
सुंदर, सरस भक्ति गीत का
सहज, सरल शब्दों में अर्पित
अपना लो यह हृदय मीत का !

नहीं चाहियें मोती माणिक
धन-दौलत, अनमोल खजाने
जो तुमसे दूर ले जाएँ
नहीं चाहियें वेश सुहाने I

Saturday, October 9, 2010

कण-कण में संगीत तुम्हारा गूंजा करता
नभ धरती को अद्भुत स्वरलहरी में बांधे
युगों-युगों से स्वर सरिता अम्बर में बहती
ऐसा वर दो प्रभु ! गाऊं मैं भी उस स्वर में


तुम तन में, तुम ही तो मन में, बसे हुए
तन-मन पावन कर, तुम्हें रिझाना है
तुम्हीं भाव हो, ज्ञान स्वरूप तुम्हीं
भेद तुम्हारी शक्ति का कर्म से पाना है


आज समर्पित होने दो व्याकुल अंतर
यह क्षण शायद लौट के फिर से ना आये
रह जाने दो जग को, जग के व्यापारों को
उर मेरा गीत समर्पण का अब तो गाये

Thursday, October 7, 2010

भावांजलि

कुछ वर्ष पूर्व मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित गीतांजली का अनुवाद पढ़ा तो हृदय झंकृत हो गया, सहज ही कुछ पंक्तियाँ उतरने लगीं. उन्हीं को इस ब्लॉग में आप सभी के लिये लिख रही हूँ. यह भावानुवाद कहा जा सकता है, शायद वह भी नहीं, क्यों कि किसी किसी कविता में कुछ ही पंक्तियाँ बन पायीं क्योंकि यह सप्रयास नहीं लिखा गया. जैसा मैंने गीतांजली को समझा वही लिखा है, ,

प्रभु, उदार तुम ! कई जन्मों में
अनगिन बार भरा होगा पट
नित नवीन उपहार दे रहे
किंतु रिक्त है अब भी यह घट

मेरे गीत रिझाते तुमको
तभी हृदय भावों से भरते
जितना प्रेम व्यक्त ये करते
तुम उतना आनंद लुटाते!