तुम आते नित रसधार लिये
फिर तृषित रहा क्यों उर मेरा
क्यों हाथ बढ़ा छू ना सकूं
लहराता रेशम पट तेरा !
है गहन अंध घनघोर घटा
पथ बूझ नहीं पाते नैना
तुम स्नेह दीप जला रखना
यूँ बीतेगी सारी रैना !
तुम प्रियतम ! हो श्रेष्ट तुम्हीं
तुमसे ही जीवन जीवन है
जो तोड़ नहीं पाता मन वह
स्वयं डाला मैंने बंधन है !
Friday, October 29, 2010
Wednesday, October 27, 2010
Monday, October 25, 2010
Saturday, October 23, 2010
Thursday, October 21, 2010
Wednesday, October 20, 2010
Tuesday, October 19, 2010
Thursday, October 14, 2010
भावांजलि
पथ है बीहड़ लक्ष्य दूर है
इस यात्रा का अंत नहीं क्या,
द्वार द्वार खोजतीं आँखें
पता नहीं पाया मंजिल का !
कितने गीत रचे हैं मैंने
फिर भी सब अनकहा रह गया,
कितनी बार ! मिलोगे कब तुम ?
पूछे दिल, अनसुना रह गया !
इस यात्रा का अंत नहीं क्या,
द्वार द्वार खोजतीं आँखें
पता नहीं पाया मंजिल का !
कितने गीत रचे हैं मैंने
फिर भी सब अनकहा रह गया,
कितनी बार ! मिलोगे कब तुम ?
पूछे दिल, अनसुना रह गया !
Wednesday, October 13, 2010
भावांजलि
व्यर्थ ही हम बोझिल हो फिरते
तुच्छ कामना से इस मन की
सुंदर जग को आहत करते,
ज्योतिर्मय को हो समर्पित
क्यों नही निर्भार रहते ?
जिसका न कोई संगी साथी
उसका है वह जगन्नाथ,
निर्बल का बल, नाथ दीन का
सरल चित्त का भोलानाथ !
श्रम सीकर भूमि भिगोते
श्रमिकों का बलिदान जहाँ,
हरि वहीं ग्वालों सँग फिरते
कृषकों ने बोया धान जहाँ !
तुच्छ कामना से इस मन की
सुंदर जग को आहत करते,
ज्योतिर्मय को हो समर्पित
क्यों नही निर्भार रहते ?
जिसका न कोई संगी साथी
उसका है वह जगन्नाथ,
निर्बल का बल, नाथ दीन का
सरल चित्त का भोलानाथ !
श्रम सीकर भूमि भिगोते
श्रमिकों का बलिदान जहाँ,
हरि वहीं ग्वालों सँग फिरते
कृषकों ने बोया धान जहाँ !
Monday, October 11, 2010
भावांजलि
हे प्रभु ! अपनी शरण में ले लो
इस घट को अब खाली कर दो
भाव पुष्प मुरझा ना जाये
अपने चरणों में ही धर दो !
छोड़ दिया अभिमान प्रीत का
सुंदर, सरस भक्ति गीत का
सहज, सरल शब्दों में अर्पित
अपना लो यह हृदय मीत का !
नहीं चाहियें मोती माणिक
धन-दौलत, अनमोल खजाने
जो तुमसे दूर ले जाएँ
नहीं चाहियें वेश सुहाने I
इस घट को अब खाली कर दो
भाव पुष्प मुरझा ना जाये
अपने चरणों में ही धर दो !
छोड़ दिया अभिमान प्रीत का
सुंदर, सरस भक्ति गीत का
सहज, सरल शब्दों में अर्पित
अपना लो यह हृदय मीत का !
नहीं चाहियें मोती माणिक
धन-दौलत, अनमोल खजाने
जो तुमसे दूर ले जाएँ
नहीं चाहियें वेश सुहाने I
Saturday, October 9, 2010
कण-कण में संगीत तुम्हारा गूंजा करता
नभ धरती को अद्भुत स्वरलहरी में बांधे
युगों-युगों से स्वर सरिता अम्बर में बहती
ऐसा वर दो प्रभु ! गाऊं मैं भी उस स्वर में
तुम तन में, तुम ही तो मन में, बसे हुए
तन-मन पावन कर, तुम्हें रिझाना है
तुम्हीं भाव हो, ज्ञान स्वरूप तुम्हीं
भेद तुम्हारी शक्ति का कर्म से पाना है
आज समर्पित होने दो व्याकुल अंतर
यह क्षण शायद लौट के फिर से ना आये
रह जाने दो जग को, जग के व्यापारों को
उर मेरा गीत समर्पण का अब तो गाये
नभ धरती को अद्भुत स्वरलहरी में बांधे
युगों-युगों से स्वर सरिता अम्बर में बहती
ऐसा वर दो प्रभु ! गाऊं मैं भी उस स्वर में
तुम तन में, तुम ही तो मन में, बसे हुए
तन-मन पावन कर, तुम्हें रिझाना है
तुम्हीं भाव हो, ज्ञान स्वरूप तुम्हीं
भेद तुम्हारी शक्ति का कर्म से पाना है
आज समर्पित होने दो व्याकुल अंतर
यह क्षण शायद लौट के फिर से ना आये
रह जाने दो जग को, जग के व्यापारों को
उर मेरा गीत समर्पण का अब तो गाये
Thursday, October 7, 2010
भावांजलि
कुछ वर्ष पूर्व मैंने कविगुरु रवीन्द्रनाथ टैगोर द्वारा रचित गीतांजली का अनुवाद पढ़ा तो हृदय झंकृत हो गया, सहज ही कुछ पंक्तियाँ उतरने लगीं. उन्हीं को इस ब्लॉग में आप सभी के लिये लिख रही हूँ. यह भावानुवाद कहा जा सकता है, शायद वह भी नहीं, क्यों कि किसी किसी कविता में कुछ ही पंक्तियाँ बन पायीं क्योंकि यह सप्रयास नहीं लिखा गया. जैसा मैंने गीतांजली को समझा वही लिखा है, ,
प्रभु, उदार तुम ! कई जन्मों में
अनगिन बार भरा होगा पट
नित नवीन उपहार दे रहे
किंतु रिक्त है अब भी यह घट
मेरे गीत रिझाते तुमको
तभी हृदय भावों से भरते
जितना प्रेम व्यक्त ये करते
तुम उतना आनंद लुटाते!
प्रभु, उदार तुम ! कई जन्मों में
अनगिन बार भरा होगा पट
नित नवीन उपहार दे रहे
किंतु रिक्त है अब भी यह घट
मेरे गीत रिझाते तुमको
तभी हृदय भावों से भरते
जितना प्रेम व्यक्त ये करते
तुम उतना आनंद लुटाते!
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