Friday, December 21, 2012

महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्

चतुर्दशः सर्गः

महाराज दशरथ के द्वारा अश्वमेध

यज्ञ का सांगोपांग अनुष्ठान 


पाकर की शाखाओं में रख, हवि दी जाती अन्य यज्ञों में
किन्तु हविष्य अश्वमेध का, बेंत चटाई में रख देते

कल्पसूत्र, ब्राहमण ग्रंथों में, अश्वमेध के नियम कहे हैं
प्रथम दिवस चतुष्टोम हो, दूजे दिन उक्थ्य करते हैं

अतिरात्र है नाम सवन का, तीजे दिन जो अनुष्ठान था
ज्योतिष्टोम, अभिजित भी सम्पन्न, विश्वजीत, आप्तोर्यम था

महाक्रतु सब हुए थे सम्पन्न, अश्वमेध, उत्तर काल में
पूर्व दिशा का राज्य सौंपा, होता को राजा दशरथ ने

अध्वर्यु को पश्चिम दिशा का, दक्षिण का पाया ब्रह्मा ने
दी उद्गाता को उत्तर भूमि, अश्वमेध के महायज्ञ में

विधिपूर्वक पूर्ण यज्ञ कर, दान में दे दी सारी भूमि
हर्षित हुए नरेश अति फिर, ऋत्विज मिलकर बोले वाणी

भूमि का पालन करने की, शक्ति नहीं है इतनी हममें
नहीं प्रयोजन हमको इससे, वेदों का स्वध्याय हम करते

रत्न, मणि या गौ दे दें, अथवा जो भी वस्तु उपस्थित
राजा ने सुन दी गौएँ फिर, मुद्राएँ दी स्वर्ण व रजत

सारा धन फिर एक साथ ही, सौंप दिया ऋष्यश्रंग को
मुनि वशिष्ठ के संग मिलकर, न्यायपूर्वक दिया सभी को

तृप्त हुए दक्षिणा से वे, ब्राह्मण हर्षित होकर बोले
अभ्यागत ब्राह्मणों को भी, दिया कोटि धन तब राजा ने

नहीं रहा जब धन शेष तो, एक दरिद्र ब्राह्मण आया
रघुकुलनायक उस नरेश ने, आभूषण दे दिया हाथ का

किया सभी को तब प्रणाम फिर, आशीर्वाद सभी का पाया
हुए प्रसन्न अति राजा फिर, यज्ञ का उत्तम फल जब पाया

स्वर्गलोक पहुँचने वाला, पापों का नाश करता जो
 पूर्ण नहीं कर सकते थे, साधारण राजा यज्ञ को

ऋष्यश्रंग से कहा नरेश ने, हे मुनीश्वर ! व्रत पालक
कुल परम्परा की वृद्धि हो, ऐसा कर्म करें सम्पन्न

‘तथास्तु’ तब कहा मुनि ने, चार पुत्र होंगे आपके
होंगे पूर्ण समर्थ वे चारों, भार वहन करने में कुल के

मधुर वचन सुन हर्षित होकर, किया प्रणाम उन्हें राजा ने
किया पुनः प्रेरित मुनिवर को, अनुष्ठान पुत्रों हित करने

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में चौदहवां सर्ग पूरा हुआ.