Monday, August 29, 2011

पञ्चदशोऽध्यायः पुरुषोत्तमयोग


पञ्चदशोऽध्यायः
पुरुषोत्तमयोग

पीपल का इक वृक्ष शाश्वत, उर्ध्व मूल, अधो शाखाएं
वैदिक स्त्रोत पत्तियां जिसकी, जो जानें ज्ञानी कहलाएं

ऊपर-नीचे फैली डालियाँ, तीनों गुणों से होता सिंचित
इन्द्रिय विषय टहनियाँ इसकी, मूल सकाम कर्म से बंधित

कोई जान नहीं पाया है, रूप वास्तविक इस वृक्ष का
आदि नहीं अंत न जिसका, है कहाँ आधार इसका

दृढ मूल वाले वृक्ष को, वैराग्य के शस्त्र से काटो
खोज करो फिर उस धाम की, जहां से पुनः न वापस आओ

जिस परमेश्वर से उपजा है, जगत वृक्ष यह अति पुरातन
उसकी शरण में ही मुक्ति है, जिससे हुआ है यह जग, अर्जुन

मान, मोह नष्ट हुआ है, आसक्ति के दोष से मुक्त
नष्ट हुई कामना जिनकी, परमात्मा से जो हैं युक्त

सुखों-दुखों से पर हुए हैं, अविनाशी परमपद पाते
जिसे प्राप्त कर मानव जग में, पुनः लौट नहीं आते

मेरी ही शाश्वत अंश हैं, इस जग की सभी आत्माएं
मन-इन्द्रियों के वश में आकर, व्यर्थ ही बंधन में पड़ जाएँ

जैसे वायु गंध को हरता, दूर-दूर तक पहुंचाता है
जीवात्मा मन को हर ले, नूतन तन में ले जाता है

मन का ले आश्रय आत्मा, इन्द्रियों से विषयों को भोगे
तीनों गुणों से युक्त हुआ यह, तन में रह कर यह जग देखे

Friday, August 26, 2011

चतुर्द्शोऽध्यायः (अंतिम भाग) गुणत्रयविभागयोग



चतुर्द्शोऽध्यायः (अंतिम भाग)
गुणत्रयविभागयोग

अर्जुन बोले हे केशव, क्या लक्षण हैं गुणातीत के
गुणातीत कैसे हो कोई, कैसे हों आचरण उसके

सत्व गुण का कार्य प्रकाश है, प्रवृत्ति रजो गुण का
जो प्रमाद को सदा बढाये, मोह है कार्य तमो गुण का

जो न चाहे इन तीनों को, न ही द्वेष करे इनसे
साक्षी भाव में जो है रहता, गुणों को ही कारण समझे

आत्म भाव में रहता निशदिन, सुख-दुःख दोनों सम जिसको
मिटटी, पत्थर, स्वर्ण एक से, निन्दा-स्तुति सम जिसको

जिसकी भक्ति है अखंड, अनन्य भाव से मुझको भजता
तीनों गुणों से पार हुआ वह, मुझ ब्रह्म से आ मिलता

जो अविनाशी परब्रह्म है, मैं ही हूँ आश्रय उसका
जो अखंड आनंद एकरस, है शाश्वत उस अमृत का

Wednesday, August 24, 2011

चतुर्द्शोऽध्यायः गुणत्रयविभागयोग


चतुर्द्शोऽध्यायः
गुणत्रयविभागयोग

सब ज्ञानों में परम ज्ञान है, पुनः कहूँ मैं उसे तुम्हें
जिसे जान जन मुक्त हो गए, परम सिद्धि को प्राप्त हुए

जो इस ज्ञान को धारण करते, प्राप्त मुझे ही वे नर होते
प्रलयकाल में न घबराते, कल्प आदि में नहीं जन्मते

महत्-ब्रह्म मूल प्रकृति ही, गर्भ योनि है सब भूतों की
चेतन मैं स्थापित करता, इन दो के मेल से होती सृष्टि

प्रकृति है माता, मैं ही पिता हूँ, जन्माते जो सब जीवों को
सतो, रजो, तमो, तीनों गुण, ये बांधते हैं आत्मा को

सत गुण सदा प्रकाश युक्त है, निर्मल और विकार रहित है
ज्ञान के अभिमान से बांधे, सुख हेतु बंधन सहित है

इच्छा से उपजे है रजोगुण, कर्मों से यह सदा बांधता
कर्मों का फल भी तो प्राणी, इसके कारण ही चाहता

तमो गुण अज्ञान से उपजे, करता मोहित सब भूतों को
निद्रा व आलस्य रूप में, या प्रमाद से बांधे जीवों को

सुख मिलता है सतो गुणी को, कर्म में रत है रजो गुणी
ज्ञान को ढककर सदा मोह में, डूबे प्रमाद में तमो गुणी

रज, तम दबा के सत गुण बढ़ता, सत, तम दबा बढ़े रजो गुण
ऐसे ही सत, रज को दबा के,  बढ़ता जाता है तमो गुण

चेतनता व विवेक बढ़ा हो, मन में न विकार उपजता
भीतर छाया हो प्रकाश जब, तब तन में सत गुण बढ़ता

कर्मों में जब मन लगता हो, भीतर स्वार्थ व लोभ बढ़ा हो
जगी लालसा, बढ़े अशांति, जब तन में रज गुण बढता हो

अंतः करण में अप्रकाश है, जब तमो गुण बढ़ जाता
व्यर्थ चेष्टा इन्द्रियों की, निद्रा व आलस्य सताता

मृत्यु मिले यदि सतो गुणी को, निर्मल दिव्य लोक को पाता
रजो गुणी मृत होकर पुनः, मानव लोक में लौट के आता

कीट, पशु आदि योनि में, तमो गुणी मर कर जाता है
राजस कर्म का फल दुःख है, श्रेष्ठ कर्म का फल निर्मल है

सत्व गुण से ज्ञान उपजता, लोभ रजो गुण से उपजे
मोह, प्रमाद तमो गुण से, साथ ही अज्ञान भी उपजे

तीनों गुण ही हैं कर्ता, जो इनको ऐसा जानता
गुणातीत मुझ परमात्मा को, तत्वज्ञानी वह पा जाता

तीनों गुण ही जन्म के कारण, जो इनका उल्लंघन करता  
जन्म, मृत्यु, जरा का दुःख वह, तज के परमानंद को पाता


Saturday, August 20, 2011

त्र्योदशोऽध्यायः (अंतिम भाग) क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग



त्र्योदशोऽध्यायः (अंतिम भाग)
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

कार्य व कारण हैं प्रकृति में, जीवात्मा सुख-दुःख भोगे
संग गुणों का कारण बनता, विभिन्न योनियों को वह धारे

देह में स्थित जो है आत्मा, जान उसे ही तू परमात्मा
साक्षी रूप में वही उपद्रष्टा, सम्मति देने से अनुमन्ता

वही है भर्ता और भोक्ता, महेश्वर भी वही कहाए
शुद्ध सच्चिदानन्द घन है, परमात्मा भी वही कहाये

जो जानता इन दोनों को, वह फिर जन्म नहीं लेता  
कोई शुद्ध बुद्धि से जाने, ध्यानयोग से कोई पाता

श्रवण मात्र से भी हे अर्जुन, भवसागर को तर जाते हैं
भिन्न भिन्न मार्ग से जाकर, एक उसी को सब पाते हैं

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के संयोग से, सारे प्राणी सदा उपजते
स्थावर-जंगम जो भी दीखते, चर-अचर सब इससे होते

नष्ट हो रहे इन भूतों में, परमात्मा को जो भी देखता
सम भाव को प्राप्त हुआ वह, बस यथार्थ में वही देखता

जो सबमें परम को देखे, स्वयं को स्वयं से नष्ट न करता
देख आत्मा को अकर्ता, परमगति को वह है पाता

प्रकृति में सब कार्य हो रहे, विकार ग्रस्त होती है वही
पुरुष सदा एक सा रहता, अकम्पित, निर्लिप्त सदा ही

जैसे लिप्त नहीं होता है, सूक्ष्म अति आकाश किसी में
देह में स्थित होने पर भी, है अलिप्त आत्मा देह से

एक सूर्य प्रकाशित करता, ज्यों सारे जग को हे अर्जुन
एक आत्मा के प्रकाश से, प्रकाशित है यह सारा तन  

क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ के इस भेद को, जो तत्व से है जानता
मुक्त हुआ वह जड़ प्रकृति से, कर्म उसे फिर नहीं बांधता 

Thursday, August 18, 2011

त्र्योदशोऽध्यायः क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग


त्र्योदशोऽध्यायः
क्षेत्र-क्षेत्रज्ञविभागयोग

प्रकृति-पुरुष, क्षेत्र-क्षेत्रज्ञ, इन्हें जानने का इच्छुक
ज्ञान किसे कहते हैं केशव, ज्ञेय किसे मानते हो तुम

यह शरीर क्षेत्र है अर्जुन, क्षेत्रज्ञ जो इसे जानता  
जो इनके तत्व को जाने, ऐसा ही है वह मानता

सब देहों में जीवात्मा, सब क्षेत्रों में क्षेत्रज्ञ है
मैं ही हूँ वह जीवात्मा, वही सभी में क्षेत्रज्ञ है

प्रकृति-पुरुष का जो भेद है, और प्रभाव उनका जो है
इन्हें जानना ही तत्व से, कहलाता वह शुद्ध ज्ञान है

ऋषियों ने गाया है इसको, वेदों ने भी इसे बताया
ब्रह्मसूत्र में भी वर्णित है, ज्ञानी ने भी इसे सुनाया

पंच महाभूतों संग प्रकृति, अहंकार, बुद्धि व इन्द्रियां
विषय इन्द्रियों के संग पांचों, यह है क्षेत्र कहा जाता  

सुख-दुःख, इच्छा और द्वेष, ये सब हैं विकार क्षेत्र के
देह स्थूल, धृति, चेतना, ये क्षेत्र में सदा हैं रहते

भाव अमानी, दम्भ न होना, किसी जीव को नहीं सताना
शुद्धि बाहर-भीतर रखना, मन वाणी की सदा सरलता

क्षमाभाव, सेवा गुरुजन की, हो स्थिरता अंतः करण की
निरहंकारिता, निर्ममता, शम, दम, संयम, अनासक्ति

मृत्यु, जरा रोग आदि में, दुःख व दोषों का देखना
निर्मोही, समबुद्धि रखना, चाह सदा एकांत में रहना

अध्यात्म में सदा स्थिति, परमात्मा को सदा देखना
ज्ञान इसी सबको कहते है, तत्व ज्ञान को धारण करना

जो इसके विपरीत है अर्जुन, अज्ञान उसे तू जान
जो जानने योग्य है जग में, अब मैं उसका करूं बखान

अर्जुन तुझसे वही कहूँगा, सत् नहीं वह न ही असत् है
आदि अंत नहीं है उसका, सब ओर व्याप्त वह ब्रह्म है

हर दिशा में नेत्र हैं उसके, अनगिन सिर, मुख, हस्त अनेक
पांव हर दिशा में उसके, वही परमब्रह्म परमेश्वर एक

शब्द, स्पर्श, रूप, रस, गंध, वह सबको अनुभव करता
किन्तु रहित है सब विषयों से, अनासक्त, निर्लिप्त रहता

निर्गुण है पर गुणों का भोक्ता, करता धारण-पोषण भी
भीतर-बाहर जड़-चेतन के, वही ब्रह्म है चर-अचर भी

बुद्धि से नहीं जाना जाता, सूक्ष्म अति है, अविज्ञेय है
दूर से दूर वही है अर्जुन, और निकट से निकट वही है

वह विभक्त सा पड़े दिखाई, वह परमात्मा विभाग रहित है
वही जानने योग्य है अर्जुन, ब्रह्मा, विष्णु, शिव भी वही है

ज्योतियों की ज्योति है वह, माया से परे तू जान
बोध स्वरूप, जानने योग्य, सबके उर में है विद्यमान 

Tuesday, August 16, 2011

द्वादशोऽध्यायः भक्तियोग


द्वादशोऽध्यायः
भक्तियोग

द्वेषभाव से रहित हुआ जो, स्वार्थ मुक्त सबका प्रेमी
हेतु रहित दयालु, निर्मम, निराभिमान, नहीं सुखी-दुःखी

क्षमावान, संतुष्ट सदा जो, मन-इन्द्रियां वश में जिसके
श्रद्धावान, दृढ विश्वासी, मन, बुद्धि प्रभु अर्पित जिसके

जिससे न कोई उद्विग्न होता, हर्ष, अमर्ष व भय से रहित है
ऐसा भक्त प्रिय अति मुझको, दूजे का सुख देख सुखी है

निराकांक्षी, शुद्ध ह्र्द्यी जो, पक्षपात से रहित, चतुर है
आरम्भों का त्यागी है जो, सुखी सदा वह भक्त प्रिय है

शोक, द्वेष, कामना न करता, जो न अति हर्षित होता है
शुभ-अशुभ कर्मों का त्यागी, प्रेमयुक्त वह भक्त प्रिय है

शत्रु-मित्र समान हैं जिसको, मान-अपमान न विचलित करता
सर्दी-गर्मी, सुख-दुःख द्वन्द्वों को, होकर अनासक्त सहता

निंदा-स्तुति में सम रहता, मननशील हर हाल में खुश है
जिसको नहीं ममता गृह से भी, स्थिरबुद्धि वह भक्त प्रिय है 

इस धर्ममय अमृत वाणी को, श्रद्धावान जो पालन करता
मेरे परायण सदा हो रहता, अतिशय प्रिय मुझे वह लगता 

Thursday, August 11, 2011

द्वादशोऽध्यायः भक्तियोग




द्वादशोऽध्यायः
भक्तियोग

जो भक्तजन अति प्रेम से, सगुण रूप में तुमको भजते
और जो केवल निराकार को, परम ब्रह्म मान के भजते

उन दोनों में बोलो केशव, कौन तुम्हें अधिक प्रिय है,
कौन है उत्तम योगवेत्ता, कौन ईश के अधिक निकट है

जिनका मन मुझमें ही लगा है, श्रद्धावान सगुण भक्त जो
अति प्रिय हैं मुझको अर्जुन, मेरा भजन करें सदा जो

किन्तु वश में किया जिन्होंने, मन-इन्द्रियों को बड़े जतन से
नित्य, अचल, निराकार को, एकी भाव से जो हैं भजते

वे सबके है सदा हितैषी, सब में समता भाव है जिनका
वे भी मुझको ही पाते हैं, श्रेष्ठ भाव सदा है उनका

निराकार में श्रम है ज्यादा, देह अभिमान बना रहता है
अव्यक्त का मिलना दुर्लभ, मन में द्वैत बना रहता है  

किन्तु हुए जो मेरे परायण, कर्मों को मुझे अर्पण करते
सगुण रूप मुझ परमेश्वर का, भक्तियोग से चिंतन करते

जिनका मुझमें चित्त लगा है, वे मेरे प्रेमी कहलाते
मृत्युरूप इस भवसागर से, वे शीघ्र ही तर जाते

मन को लगा सदा मुझी में, बुद्धि भी मुझमें कर अर्पण
इसमें कोई संशय नहीं है, तू मुझमें ही रहेगा अर्जुन

यदि न लगता मन तेरा तो, योग धर्म का कर अभ्यास
अथवा कर्म सभी कर मुझ हित, मुझको ही तू होगा प्राप्त

यदि न सम्भव हो ऐसा तो, कर्मों के फल को दे त्याग
ज्ञान श्रेष्ठ है अभ्यास से, ज्ञान से श्रेष्ठ मान तू ध्यान

कर्मों के फल का जो त्याग है, उसे ध्यान से अच्छा मान
त्यागी पाता परम शांति है, त्यागी को तू उत्तम जान  
  
 


Tuesday, August 9, 2011

एकादशोध्यायः विश्वरूपदर्शन (अंतिम भाग)


एकादशोध्यायः
विश्वरूपदर्शन (अंतिम भाग)

हो भयभीत कांपता अर्जुन, बोला यह गदगद वाणी से
नाम तुम्हारा ले भक्ति से, जग हर्षित है गुण, प्रभाव से

क्यों न करें नमन सब तुमको, तुम ही परमब्रह्म हो केशव
वही सच्चिदानन्द तुम्हीं हो, सत् असत् से परे जो अक्षर

आदिदेव सनातन हो तुम, परम आश्रय, परमधाम हो
हे अनंत, व्याप्त हर कहीं, हे देवेश, जगन्निवास हो

यम, वायु, अग्नि स्वरूप हो, चन्द्र आदि देवगण तुमसे
बारम्बार नमन तुम्हें हो, ब्रह्मा भी हैं उपजे तुमसे

हो अनंत शक्तिशाली तुम, नमन तुम्हें चहुँ ओर से करता
आगे से भी पीछे से भी, सब और से तुमको नमता

नहीं जानता जब था तुमको, अपना सखा मात्र मानता
यादव, कृष्ण, सखा कहकर जब, प्रेमवश था तुम्हें बुलाता

कभी प्रमादवश या विनोद में, मुझसे तुम हुए अपमानित
सब अपराध क्षमा कर दो, हे सारे जग से सम्मानित

कोई नहीं आपके जैसा, श्रेष्ठ भला कैसे हो सकता
साष्टांग दंडवत करके, मैं इन चरणों में नमता

पिता पुत्र के मित्र मित्र के, पति पत्नी को करे क्षमा
वैसे ही हे केशव तुम भी, मुझ दोषी को करो क्षमा

कभी न देखा पहले ऐसा,  रूप तुम्हारा हर्ष भर रहा
साथ-साथ ही व्याकुल भी हूँ, भीतर मेरे भय भर रहा

हे केशव ! प्रसन्न हो मुझपर, सुंदर विष्णु रूप बनाओ 
गदा, चक्र ले धर किरीट, रूप चतुर्भुज मुझे दिखाओ

केशव बोले तब अर्जुन से, रूप विराट जो तुझे दिखाया
योगशक्ति को धारण करके, तेजोमय वह रूप बनाया

न ही वेद, यज्ञ न अध्ययन, न ही दान न उग्र तपों से
मानव मुझको देख न पाते, मिलता नहीं कभी कर्मों से

मूढ़भाव को तज दे अर्जुन, न ही हो भय से व्याकुल
प्रेमपूर्ण हो देख रूप यह, शंख, चक्र, गदा, पदम युक्त

संजय बोले फिर केशव ने, रूप चतुर्भुज दिखलाया
भय से मुक्त किया अर्जुन को, धीरज उसके मन छाया

शांत रूप वह देख कृष्ण का, स्थिर चित्त हुआ अर्जुन का
प्राप्त हुआ फिर सहज भाव को, धन्यवाद किया केशव का

कृष्ण कह उठे रूप चतुर्भुज, देव भी नहीं देख पाते
अति दुर्लभ हैं दर्शन इसके, वे भी लालायित रहते

तप, दान से न ही वेद से, यज्ञों से यह देखा जाता
केवल भक्ति ही द्वार है, जिससे कोई मुझ तक आता

सब कर्मों को अर्पण करके, जो मेरे परायण रहता
वैर नहीं है जिसके मन में, अनासक्त ह मुझको पाता