Wednesday, September 28, 2016

श्रंगवेरपुर में गंगातट पर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पञ्चाशः सर्गः

श्रीराम का मार्ग में अयोध्यापुरी से वनवास की आज्ञा मांगना और श्रंगवेरपुर में गंगातट पर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना, वहाँ निषादराज गुह्द्वारा उनका सत्कार 

समय-समय पर अप्सराएँ भी, जलकुंड का सेवन करतीं
सुर, दानव, किन्नर, गन्धर्व, सबसे तट की शोभा बढ़ती

नागों, गन्धर्वों की पत्नियाँ, पावन जल में क्रीड़ा करतीं
देवों के भी क्रीड़ा स्थल हैं, देवपद्मिनी जानी जातीं

मानो करतीं उग्र अट्टाहस, टकराकर प्रस्तर खंडों से
दिव्य नदी का निर्मल हास, फेन प्रकट जो होता जल से

भंवर कहीं पड़ते हैं जल में, वेणी के आकार सा कहीं
निश्चल व गहरा कहीं पर, महा वेग से व्याप्त कहीं

कहीं घोष गंभीर मृदंग सा, वज्रपात सा नाद कहीं
देव लगाते गोते उसमें, कमलों से है ढका कहीं

कहीं विशाल पुलिन दीखता, कहीं बालुका राशि निर्मल
कहीं पर चकवे शोभित होते, हंस व सारस करते कलरव

मदमत्त खग मंडराते हैं, देवनदी के पावन जल पर
तट पर वृक्ष बनाते माला, कमलवनों से कहीं ढका जल

कलिकाएँ व कुमुद समूह, भागीरथी को शोभित करते
मदमत्त नारी की भांति, जिसे पुष्पों के पराग सजाते

पापराशि दूर कर देतीं, मणि सा निर्मल जल है उनका
तटवर्ती वन में गजों से, कोलाहल बना ही रहता

फूलों, फलों, पल्लवों, गुल्मों, हुईं आवृत पक्षियों से भी  
यत्नपूर्वक हुईं सुशोभित, युवती के समान वह लगतीं

पाप का लेश नहीं है उनमें, विष्णु के नख से प्रकटीं
दिव्य नदी गंगा जीवों के, पापों की हैं नाश कारिणी

सूँस, सर्प, घड़ियालबसे हैं, गंगा के निर्मल जल में
भागीरथ के तप से प्रकटीं, शंकर जी के जटाजूट से

सागर की रानी हैं गंगा, श्रीराम वहाँ जा पहुँचे
श्रृंगवेरपुर में बहती थीं, जिसके भंवर व्याप्त लहरों से

दर्शन करके गंगाजी का, श्रीराम ने कहा सूत से
यहीं रहेंगे हमसब आज, इंगुदी के वृक्ष के नीचे  


Tuesday, September 27, 2016

श्रीराम का मार्ग में अयोध्यापुरी से वनवास की आज्ञा मांगना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पञ्चाशः सर्गः

श्रीराम का मार्ग में अयोध्यापुरी से वनवास की आज्ञा मांगना और श्रंगवेरपुर में गंगातट पर पहुँचकर रात्रिमें निवास करना, वहाँ निषादराज गुह्द्वारा उनका सत्कार

कोसलदेश की सीमा को जब, श्रीराम ने पार किया
कर अयोध्या की ओर मुख, हाथ जोड़ यह वचन कहा

ककुस्त्थवंशी राजाओं से, परिपालित हे पुरी अयोध्ये !
वन जाने की आज्ञा मांगूँ, तुमसे और देवताओं से

जो देवता करते रक्षा, तुममें ही निवास हैं करते  
वनवास पूरा होने पर, पुनः करूँगा दर्शन उनके

हो उऋण महाराज के ऋण से, माता-पिता से पुनः मिलूँगा
सुंदर, अरुण नेत्र वाले थे, उठा दाहिनी भुजा कहा

जनपद के जो लोग खड़े थे, उनके दुःख से हुए दुखी
दया दिखायी आपने मुझपर, बहुत देर पीड़ा भी सही  

अच्छा नहीं है दीर्घकाल तक, इस कष्ट को आप सहें
इसीलिए आप सब लोग, अपना-अपना कार्य संभालें

यह सुन किया प्रणाम उन्होंने, की परिक्रमा श्रीराम की
खड़े रह गये जहाँ-तहाँ वे, पीड़ा लेकर मन में भारी

तृप्त नहीं हुईं थीं ऑंखें, दर्शन से अभी श्रीराम के
वे विलाप करते ही थे, रामचन्द्र ओझल हो गये

रथ द्वारा ही लाँघ गये वे, कोसल देश की सीमा को
धन-धन्य से थी सम्पन्न, सुखदायक, उस पुण्य भूमि को

दानशील थे लोग वहाँ के, नहीं था भय उस जनपद में
भूभाग रमणीय अति था, व्याप्त चैत्य-वृक्षों, यूपों से

बहु उद्यान और आम्रवन, जनपद को शोभित करते थे
जल से भरे हुए जलाशय, गौओं से वन भरे हुए थे

वेद मन्त्र गुंजित ग्रामों की, कई नरेश रक्षा करते थे
सारा जनपद भरा हुआ था, हृष्ट-पुष्ट मनुष्यों से

सम्पन्न अन्य राज्य में राम, मध्य मार्ग से जा पहुंचे  
त्रिपथगामिनी दिव्य नदी का, पाया दर्शन उस राज्य में

तट पर बने आश्रम सुंदर, गंगा को शोभित करते थे
शीतल जल से भरी हुई थी, महर्षि सेवन करते थे 

Monday, September 26, 2016

ग्रामवासियों की बातें सुनते हुए श्रीरामका कोसल जनपद को लांघते हुए आगे जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोनपञ्चाशः सर्गः

ग्रामवासियों की बातें सुनते हुए श्रीरामका कोसल जनपद को लांघते हुए आगे जाना और वेदश्रुति, गोमती एवं स्यन्दिका नदियों को पार करके सुमन्त्र से कुछ कहना

पिता की आज्ञा का स्मरण कर, दूर निकल गये राम अति
उसी तरह चलते-चलते ही, रजनी वह व्यतीत हुई

हुआ सवेरा संध्या करके, जनपद लांघ बढ़े आगे वे
खेतों, ग्रामों, फूलों के वन, शीघ्र देख आगे बढ़ते थे

छोटे-बड़े गाँव थे पथ में, ग्रामीणों की बातें सुनते
कैकेयी को जो धिक्कारें, राजा दशरथ को कोसते

कैसे दुःख भोगेंगी सीता, हृदयहीन क्यों पिता हो गये
बातें सुनते सबकी राम, लांघ के कोसल आगे बढ़ गये  

शीतल, सुखद जल देने वाली, वेदश्रुति नदी तक पहुंचे
गौएँ जहाँ विचरण करतीं थीं, तट गोमती पर जा पहुंचे  

घोड़ों द्वारा पार किया तब, हंस-व्याप्त स्यन्दिका को  
जा पहुंचे उस स्थान पर, धनधान्य से था सम्पन जो  

पूर्वकाल में जिस भूमि को, इक्ष्वाकु को दिया मनु ने
सीता को दिखलाई भूमि, कहे राम ने वचन सूत से

लौट पिता से कब मिलूँगा, मृगया हेतु भ्रमण करूंगा
नहीं अधिक अभिलाषा इसकी, मनुपुत्रों की है यह क्रीड़ा

इक्ष्वाकुवंशी श्रीराम, विभिन्न विषयों पर बातें करते
किया पार कोसल सीमा को, उस मार्ग पर आगे बढ़ते

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनचासवाँ सर्ग पूरा हुआ.