Friday, April 29, 2016

कौसल्या का सीता को पतिसेवा का उपदेश, सीता के द्वारा उसकी स्वीकृति

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोनचत्वारिंशः सर्गः

राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना, कोषाध्यक्ष का सीता को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण देना, कौसल्या का सीता को पतिसेवा का उपदेश, सीता के द्वारा उसकी स्वीकृति तथा श्रीराम का अपनी माता से पिता के प्रति दोष दृष्टि न रखने का अनुरोध करके अन्य माताओं से विदा माँगना

जो स्त्रियाँ प्रियतम पति से, सम्मानित होने पर भी  
संकट में पड़ने पर उसका, आदर नहीं किया करतीं

असती नाम से जानीं जातीं, इस सम्पूर्ण जगत में वे
पति से सुख तो प्राप्त करें पर, दोष लगातीं हैं दुःख में

मिथ्यावादी, ह्रदयहीना वे, विमुख पति से पल में होतीं
अव्यवस्थित चित्त है उनका, दुष्टा ही वे कहलातीं

उत्तम कुल, मिला सम्मान, क्षण में भुला सभी को देतीं
नहीं उन्हें कुछ वश में करता, सती नहीं वे जानीं जातीं

किंतु सत्यवादिनी जो हैं, मर्यादा का पालन करतीं
पति ही परम देवता उनका, वे साध्वी कहलातीं

इसीलिए तुम मेरे पुत्र का, कभी अनादर न करना
वनवासी ये धनी या निर्धन, देव समान उन्हें जानना

धर्म-अर्थ से युक्त वचन सुन, तात्पर्य समझ सास का
सम्मुख आकर हाथ जोड़, सीता ने इस भांति कहा

आर्ये ! जो उपदेश आपका, पालन उसका करूँगी मैं
विदित मुझे, सुना है पहले, कैसा बर्ताव करूं स्वामी से

पूजनीया माँ ! आप मुझे, असती के समान न जानें
नहीं विलग ज्यों प्रभा चन्द्र से, वैसे ही मैं पतिव्रत से  

बिना तार वीणा न बजती, बिन पहिये का रथ न चलता
सौ पुत्रों की माता भी हो, पति बिना न सुख मिल सकता

पिता, पुत्र, भाई तीनों ही, परिमित सुख प्रदान करते हैं
पति अपरिमित सुखदाता, दोनों लोक सफल होते हैं  

पति का न सत्कार करेगी, कौन स्त्री ऐसी होगी
श्रवण किया मैंने इसका, पातिव्रत्य का अर्थ जानती

वचन मनोहर सुन सीता का, कौसल्या के नयन भरे
अंत करण शुद्ध था उनका, दुःख व हर्ष सहर्ष झरे

पिता को दुःख से न देखना, माता से तब कहा राम ने
शीघ्र समाप्त होगा वनवास, चौदह वर्ष बीत जायेंगे   

निश्चित अभिप्राय कह उनसे, राम ने फिर देखा उस ओर
साढ़े तीन सौ माताएँ थीं, उन पर भी छाया था शोक

हाथ जोड़ उन माताओं से, धर्मयुक्त यह बात कही
सदा साथ रहने के कारण, अन्जाने में जो भूलें की

सबकी क्षमा माँगता हूँ मैं, विदा आप मुझको कर दें
सुन कर हुईं शोक से व्याकुल, कर उठीं विलाप माताएँ

मुरज, पणव, मेघ आदि से, भवन गूँजता जो रहता था  
आर्तनाद से व्याप्त हुआ, दुखमय अब प्रतीत होता था


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.



Thursday, April 28, 2016

राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकोनचत्वारिंशः सर्गः

राजा दशरथ का विलाप, उनकी आज्ञासे सुमन्त्र का राम के लिए रथ जोतकर लाना, कोषाध्यक्ष का सीता को बहुमूल्य वस्त्र और आभूषण देना, कौसल्या का सीता को पतिसेवा का उपदेश, सीता के द्वारा उसकी स्वीकृति तथा श्रीराम का अपनी माता से पिता के प्रति दोष दृष्टि न रखने का अनुरोध करके अन्य माताओं से विदा माँगना

राजा दशरथ हुए अचेत, मुनि वेश में देख राम को
दुःख से बोल न कोई निकला, न ही देख सके वह उनको

दो घड़ी अचेत सा रहकर, होश उन्हें जिस पल आया
करने लगे विलाप दुखी हो, चिन्तन मन में श्रीराम का

शायद किसी पूर्वजन्म में, प्राणियों की, की थी हिंसा
गौओं का उनके बछड़ों से, अथवा तो विछोह कराया

इस कारण ही संकट आया, कैकेयी द्वारा दुःख कितना
किन्तु मृत्यु न आती अब भी, क्लेश सहन करने पर इतना

प्राण नहीं निकलते तब तक, जब तक समय नहीं आता
अग्नि समान राम तेजस्वी, वल्कल धारण किये देखता

वर रूपी शठता के कारण, स्वार्थ सिद्ध करने में रत
अति महान दुःख के भागी हैं, कैकेयी के कारण ही सब

शिथिल हुईं इन्द्रियां सारी, ऐसा कह अश्रु भर आये
हे राम ! कह हुए अचेत से, घड़ी बाद ये शब्द कहे

हे सुमन्त्र ! रथ ले आओ, उतम घोड़े जुते हों जिसमें
जनपद से बाहर ले जाओ, श्रीराम को बिठाके उसमें

श्रेष्ठ वीर पुत्र को स्वयं ही, माता-पिता यदि वन भेजें
फल गुणों का यही है शायद, यही लिखा शास्त्रों में

राजा की आज्ञा धारण कर, उत्तम रथ एक ले आये
सुवर्ण भूषित रथ तैयार है, हाथ जोड़ कहा राजा से

देश काल के ज्ञाता नृप ने, बुला कहा कोषाध्यक्ष को
चौदह वर्षों तक पर्याप्त हों, वस्त्र और आभूषण लाओ

महाराज के यह कहने पर, सीता को अर्पित की चीजें
वनवास हेतु  उत्सुक थीं, धारण किया उन्हें सीता ने

प्रातः काल का उगता सूरज, ज्यों शोभित करता नभ को
करने लगीं सुशोभित सीता, इसी तरह उस राजमहल को

कौसल्या ने तब सीता को, कसा भुजाओं में अपनी
 निज ह्रदय से उन्हें लगाया, मस्तक सूंघ कही ये वाणी



Wednesday, April 27, 2016

गुरु वसिष्ठ का कैकेयी को फटकारते हुए सीता के वल्कल-धारण का अनौचित्य बताना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

सप्तत्रिंश सर्गः

श्रीराम आदि का वल्कल-वस्त्र धारण, सीता के वल्कल धारण से रनिवास की स्त्रियों को खेद तथा गुरु वसिष्ठ का कैकेयी को फटकारते हुए सीता के वल्कल-धारण का अनौचित्य बताना

बात सुनी मंत्री की जब, विनय के ज्ञाता कहा राम ने
भोगों का परित्याग कर चका, क्या प्रयोजन है सेना से

निर्वाह होगा फल-मूल से, छोड़ चका हूँ सब आसक्ति
भरत को अर्पित करता हूँ मैं, मेरे लिए पर्याप्त चीर ही

गजराज का दान करे, पर रस्से को रखना चाहे
नहीं है उचित ऐसा लोभ, क्यों आसक्ति हो रस्से में

खंती और पिटारी ही अब, उपयोगी हो सकती वन में
शर्म-लाज सब छोड़ चुकी थी, कैकयी स्वयं लायी उन्हें

चीर लिए उसके हाथों से, मुनियों के से वस्त्र धरे
वल्कल वस्त्र किये धारण तब, इसी प्रकार लक्ष्मण ने

तब धर्मज्ञा जनक नंदिनी, अपने लिए चीर देखकर
उसी प्रकार भयभीत हो गयीं, मृगी ज्यों होती जाल देखकर

लज्जित हुईं वस्त्र लेकर वह, नयनों में अश्रु भर आये
तेजस्वी पति से पूछा, वनवासी कैसे चीर बाँधते

वल्कल एक गले में डाला, दूजा लिए हाथ में वे
बस चुपचाप खड़ीं थीं वह, स्वयं बांधा तब राम ने

सीता को वल्कल पहनाया, उनके रेशमी वस्त्र के ऊपर
रोने लगीं देख रानियाँ, आँखों में आँसू भरकर

हुईं खिन्न बोलीं राम से, न सीता को वनवास मिला
तुम जब तक वन में रहोगे, देख इसे हम रहें यहाँ

लक्ष्मण को संग ले जाओ, किन्तु नहीं सीता हित वन
पूर्ण करो याचना हमारी, सफल बने हमारा जीवन

माताओं की बातें सुन भी, पहनाया सीता को वल्कल
पति समान शील था जिसका, उसे देख गुरु हुए व्याकुल

कैकेयी से कहा उन्होंने, किया उल्लंघन मर्यादा का
पैर अधर्म की ओर बढ़ाती, है कलंक तू अपने कुल का

राजा को धोखा देकर अब, शील का परित्याग किया
सीता वन नहीं जाएँगी, उनका ही राज्य यह होगा

यह अर्धांगिनी हैं राम की, हैं आत्मा श्रीराम की
उनकी जगह यही लेंगी अब, राज सिंहासन पर बैठेंगी

वन को गयीं यदि जनक नन्दिनी, हम भी साथ चले जायेंगे
सभी नागरिक, रक्षक सारे, धन-दौलत भी ले जायेंगे

भरत और शत्रुघ्न दोनों, चीर वस्त्र धारण कर लेंगे
वन में जाकर श्रीराम की, दोनों मिल सेवा करेंगे

निर्जन व सूनी पृथ्वी का, रह अकेली राज्य करना
दुराचारिणी, अहितकारी, राज्य नहीं वह वन होगा

स्वतंत्र राष्ट्र बनेगा वह वन, राम जहाँ निवास करेंगे
भरत यदि हैं पुत्र पिता के, राज्य नहीं लेना चाहेंगे

पुत्रवत् बर्ताव भी करें, ऐसा नहीं कदापि होगा
अप्रिय ही किया है तूने, प्रिय करना चाहा भरत का

कोई ऐसा नहीं है जग में, श्रीराम का जो न भक्त हो
तू आज ही देखेगी कि, पशु, पक्षी, मृग जाते वन को

औरों की क्या बात वृक्ष भी, उत्सुक संग चले जाने को
सीता से वल्कल ले उनको, दे वस्त्र धारण करने को

राम का ही वनवास हुआ है, सीता न वल्कल धरें
वस्त्रों से होकर आभूषित, वन में यह निवास करें

सेवक और सवारी भी हों, वस्त्र व उपकरण सारे
अप्रतिम मुनि वसिष्ठ के, सीता ने ये वचन सुने

किन्तु प्रियतम पति समान ही, इच्छा थी वेश धरने की
विदेह नंदिनी, जनक दुलारी, चीर धारण से नहीं विरत हुईं


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Tuesday, April 26, 2016

सिद्धार्थ का कैकेयी को समझाना तथा राज का श्रीराम के साथ जाने की इच्छा प्रकट करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षट्त्रिंशः सर्गः
राजा दशरथ का श्रीराम के साथ सेना और खजाना भेजने का आदेश, कैकेयी द्वारा इसका विरोध, सिद्धार्थ का कैकेयी को समझाना तथा राज का श्रीराम के साथ जाने की इच्छा प्रकट करना 

राजा का यह क्रोध देखकर, कैकेयी भी हुई कुपित
राजा सगर की याद दिलायी, उसने हो दुगनी क्रोधित

असमंज पुत्र था उनका, देश निकाला दिया जिसे
इसी तरह चाहिए इनको, जाएँ निकल राम यहाँ से 

‘है धिक्कार’ कहा राजा ने, सब लोग गड़ गये लाज से 
किन्तु समझ न पायी रानी, औचित्य को धिक्कार के

उस समय वहाँ बैठे थे, वयोवृद्ध प्रधान मंत्री
सिद्धार्थ नाम था उनका, धर्म युक्त यह बात कही

असमंज दुष्ट अति था, बच्चों को सरयू में फेंकता
ऐसे ही कार्यों से वह, अपना मनोरंजन था करता

नगरनिवासी बोले नृप से, उसकी यह करतूत देखकर
या तो असमंज को रखें, या हमसब ही रहें यहाँ पर

प्रजाजनों की बात सुनी जब, त्याग दिया पुत्र राजा ने
पत्नी सहित उसे बिठाकर, बाहर निकाला सामग्री दे

फाल और पिटारी लेकर, कन्दराओं में वह विचरा
दुर्गम गुफा बनी निवास, पापाचारी था, त्यागा

किन्तु राम का क्या दोष है, रोका जिन्हें राज्य पाने से
शुक्ल द्वितीया के चन्द्र समान, कोई अवगुण नहीं है इनमें

यदि दोष कोई हो उनमें, उसे कहो ठीक तुम आज
सन्मार्ग में जो स्थित है, धर्म विरुद्ध है उसका त्याग

कोई लाभ न होगा तुमको, राज्याभिषेक रोकने में
इंद्र तेज भी दग्ध हो सके, रक्षा करो लोकनिंदा से  

सिद्धार्थ की बातें सुनकर, थके हुए राजा भी बोले
हित अहित का ज्ञान न रहा, तुझको मेरे या अपने  

दुःखद मार्ग का आश्रय लेकर, कर रही ऐसी कुचेष्टा
साधू पुरुषों के विरुद्ध है, यह तेरी सारी चेष्टा

धन, राज्य व सुख त्याग कर, मैं भी चला राम के पीछे
राज्य अकेली तू भोगना, ये लोग भी साथ चलेंगे


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छत्तीसवाँ सर्ग पूरा हुआ

Tuesday, April 19, 2016

राजा दशरथ का श्रीराम के साथ सेना और खजाना भेजने का आदेश, कैकेयी द्वारा इसका विरोध

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षट्त्रिंशः सर्गः
राजा दशरथ का श्रीराम के साथ सेना और खजाना भेजने का आदेश, कैकेयी द्वारा इसका विरोध, सिद्धार्थ का कैकेयी को समझाना तथा राज का श्रीराम के साथ जाने की इच्छा प्रकट करना

इक्ष्वाकु कुल नन्दन राजा, होकर पीड़ित निज प्रण से
अश्रु बहाते, श्वास खींचते, फिर सुमन्त्र से यह बोले

रत्नों से भरी-पूरी जो, चतुरंगिणी उस सेना को
श्रीराम के पीछे-पीछे, वन जाने की आज्ञा दो

रूपाजीवा सरस स्त्रियाँ, महाधनी व कुशल वैश्य भी
करें सुशोभित सेनाओं को, जाये संग खजाना भी

वीर मल्ल जो प्रिय राम के, आयुध, व्याध और पशु संपदा
संग चले यदि राम के वे सब, नहीं करेंगे स्मरण राज्य का

यज्ञ करेंगे वे वनों में, राज्य करें भरत अवध का
ऋषियों से मिल रहेंगे सुख से, आचार्यों को दे दक्षिणा

मनोवांछित भोग से उन्हें, सम्पन्न करके भेजा जाये
महाराज की बातें सुनकर, कैकेयी का मन घबराए

गला रुंधा, सूखा मुख उसका, त्रस्त हुई दुखी वह बोली
 स्वाद विहीन वह सुरा न लेगा, सार भाग ले जिसका कोई

सेवन करने योग्य न होगा, धनहीन राज्य यह सूना
भरत कदापि न लेंगे इसे, सुन कर तब राजा ने कहा

अनार्ये, अहित कारिणी, दुर्वह भार दिया है तूने
शब्दों के चाबुक मारती, ढो रहा उस भार को जब मैं

पहले तो यह नहीं कहा था, जाना है अकेले वन में
जो प्रतिबन्ध लगाती है अब, सेना, सामग्री देने में