Friday, September 7, 2018

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


पंचसप्ततितमः सर्गः

कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना

बहुत देर हुई होश में आकर, जब पराक्रमी भरत उठे
अश्रु भरे नयनों से बैठी, दीन हुई माँ को लख बोले

मंत्रीवर ! नहीं राज्य की इच्छा, ना ही कहा कभी इस हित
राजा ने जो लिया था निर्णय, नहीं ज्ञात उसके भी हित

शत्रुघ्न के साथ दूर था, नहीं मुझे कुछ ज्ञान था इसका 
हुआ भाई का निर्वासन कब, सब कुछ मुझको अज्ञात था 

माता को जब कोस रहे थे, कौसल्या ने आवाज सुनी
कैकेयी के पुत्र आ गये,  मैं आज मिलना हूँ चाहती 

कह सुमित्रा से तब ऐसा, दुर्बल व सूखे मुख वाली
जहाँ भरत थे उसी स्थान पर, कौसल्या तब चलीं कांपती

उसी समय आ भरत रहे थे, कौसल्या के भवन की ओर
मार्ग में गिर पड़ीं कौसल्या, दौड़े आये भरत वहाँ पर

दोनों रोने लगे गले मिल, कौसल्या ने कहा भरत से
 राज्य चाहते थे तुम केवल, प्राप्त हुआ निष्कंटक राज्य ये

किन्तु खेद इसका है सबको, क्रूर कर्म से इसको पाया
अति शीघ्रता थी कैकेयी को, जाने लाभ कौन सा भाया

चीर वस्त्र पहनाये राम को, वन-वन भटक रहे वे कहाँ
अब मुझको भी वहीं भेज दे, हैं महा यशस्वी राम जहाँ

या फिर साथ सुमित्रा को ले, अग्निहोत्र को आगे कर के
सुखपूर्वक मैं वहीँ चलूँगी, जहाँ राम निवास हैं करते

अथवा तुम अपनी इच्छा से, मुझे राम के निकट भेज दो
धन-धान्य सम्पन्न यह राज्य, कैकेयी से मिला है तुमको

Monday, August 6, 2018

भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्




चतुःसप्ततितमः सर्गः
भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना 


एक समय दृष्टि जब डाली, सुरभि ने अपने पुत्रों पर   
हुए अचेत से थक गये थे, मध्याह्न तक वे हल जोतकर

पुत्रों को इस दशा में देख, सुरभि लगी थी अश्रु बहाने
उसी समय इंद्र जाते थे, दो आँसूं उन पर भी गिर गये

इंद्र ने दृष्टि ऊपर डाली, देखा नभ में सुरभि खड़ी है 
सबका हित चाहने वाली, दीन भाव से स्वयं पीड़ित है

देवराज उद्व्गिन हो उठे, हाथ जोड़कर उससे बोले
 क्या हम पर कोई भय आया, किस कारण दुःख पाया तुमने

प्रश्न सुना जब इंद्र का उसने, उत्तर दिया धीर सुरभि ने
देवराज ! नहीं कोई भय है, दुखी देख पुत्रों को दुःख में

ये दोनों दुर्बल व दुखी हैं, सूर्य ताप से भी पीड़ित हैं
दुष्ट किसान इन्हें मारता, ये दोनों मुझे अति ही प्रिय हैं

सारा जगत भरा हुआ है, जिस कामधेनु के पुत्रों से
रोती देखकर उसे इंद्र ने, माना पुत्र अति प्रिय होते 

देवेश्वर ने अपनी देह पर, पावन अश्रुपात देख तब
सुरभि को अति श्रेष्ठ माना था, दो पुत्रों हित दुखी देखकर

हितकारी हैं समान रूप से, दान रूप शक्ति से सम्पन्न
सहस्त्र पुत्र धारण करती हैं, दो पुत्रों हित करती क्रन्दन

जिनका केवल एक पुत्र है, कितना दुख वह पाती होंगी
है विछोह राम का जिनसे, कैसे वह कौशल्या रहेंगी

इकलौते पुत्र वाली जो, सती-साध्वी कौसल्या को
दुख देकर तू सुखी न होगी, जब जाएगी परलोक को

मैं तो यह राज्य लौटाकर, पूजा करूँगा प्रिय राम की
अंत्येष्टि संस्कार करवा के,  पूजन होगा पिता का भी

तेरा दिया कलंक मिटाने, स्वयं मैं वन को जाऊंगा,
जो हमारे यश को बढ़ाएं, ऐसे ही मैं कर्म करूँगा

अश्रु बहाते अवरुद्ध कंठ, सब पुरवासी मुझको देखें
तेरे पाप का बोझ उठाऊँ, नहीं यह हो सकता मुझसे

जलती अग्नि में प्रवेश करे, अथवा स्वयं वन को चली जा
 बाँध गले में रज्जु प्राण दे,  नहीं गति दूजी इसके सिवा

सत्य पराक्रमी श्रीराम जब, आ जायेंगे  पुनः अयोध्या
तभी कलंक मिटेगा मेरा, कृत-कृत्य भी तभी होऊंगा

अंकुश द्वारा पीड़ित हाथी सम,  कह यह भू पर भरत गिरे
फुफकारते सर्प  की भांति, लम्बी श्वासें लगे खींचने 

उत्स्व के समाप्त होने पर, इंद्र ध्वजा गिरायी ज्यों जाती 
भरत गिरे, टूटे आभूषण,  रक्तिम नेत्र, बिखरे वस्त्र भी

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


Thursday, May 17, 2018

भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना




श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


चतुः सप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना

इस प्रकार कर निंदा माँ की, रोषावेश में भरत भर गये
माँ नहीं तू शत्रु है मेरी, फिर कठोर वाणी में बोले

क्रूर हृदया हो भ्रष्ट राज्य से, धर्म ने त्याग किया तेरा
रोना नहीं अब मृत राजा हित, मरा जान मुझे अब रोना

राजा तथा राम ने आखिर, क्या तेरा अनुपकार किया था
एक साथ ही उन दोनों को, पड़ा मृत्यु व वनवास भोगना

कारण बनी कुल विनाश का, भ्रूण हत्या का पाप लगेगा
इसीलिए नरक में जा तू, लोक पिता का नहीं मिलेगा

वन भेजकर प्रिय राम को, जो ऐसा बड़ा पाप किया है
तेरे उस घोर कर्म ने, मेरे हित भी भय खड़ा किया है 

तेरे कारण पिता मरे हैं, वन का आश्रय लिया राम ने
अपयश का भागी बनाया, मुझे भी तूने जीव जगत में

मुझसे बात नहीं अब करना, दुराचारिणी, पतिघातिनी
राज्य के लोभ में पड़कर, अति क्रूर कर्म को करने वाली

कौसल्या, सुमित्रा आदि को, दुःख  महान दिया है तूने
अश्वपति की नहीं तू कन्या,  उत्पन्न है राक्षसी कुल में

तेरा पाप मुझमें आया है, हो गया हूँ पिता हीन मैं
अप्रिय बना समस्त जगती का, बिछुड़ गया दो भाइयों से

किस लोक में जाएगी अब तू, राम पिता तुल्य हैं मेरे
जितेन्द्रिय, सभी के बन्धु, रूप यह उनका क्या तू ना जाने

माँ के अंग-प्रत्यंग, हृदय से, पुत्र जन्म हुआ करता है 
अन्य बंधु प्रिय होते हैं, सर्वाधिक प्रिय पुत्र होता है

Friday, April 27, 2018

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

 त्रिसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना 

राम यदि तुझे माँ न मानते, झट तेरा त्याग किया होता 
कलुषित बुद्धि सदा निंदित है, तूने उसे कहाँ से पाया 

बड़ा पुत्र राज्याधिकारी, अन्य सभी सेवक ही होते 
राजधर्म तू नहीं जानती, कानून सदा एक से होते 

इक्ष्वाकु वंश में इसी का, सदा ही पालन होता आया 
केकय के राज में जन्मी तू, बुद्धिमोह कहाँ से पाया 

पापपूर्ण विचार है तेरा, कदापि नहीं पूर्ण करूंगा 
नींव डाल दी उस विपदा की, प्राण भी ले सकती जो मेरा

ले, अप्रिय करूंगा तेरा, वन से राम को लौटाकर 
स्वजनों के प्रिय श्रीराम का, सदा रहूँगा सेवक बनकर 

ऐसा कह भरत ने दुखी हो, कैकयी को फिर फटकारा 
मन्दराचल की गुफा में बैठ, सिंह ज्यों कोई गरज रहा 

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


Wednesday, March 14, 2018

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना

पिता हुए परलोकवासी सुन, वनवास भाई का सुनकर
भरत अति संतप्त हो उठे, व्यक्त किया दुःख वचन यह कहकर

हाय ! मुझे मार ही डाला, बिछड़ा पिता से सदा के लिए
विलग किया गया मैं अभागा, पिता समान बड़े भ्राता से

क्या करना है लेकर यह राज्य, डूब रहा हूँ मैं शोक में
राजा मृतक, भाई वनवासी, दुःख पर दुःख दिया है तूने

घावों पर नमक सा छिड़का, कुल के विनाश हेतु तू आई
ज्यों अंगारा हो दहकता, लेकिन पिता को समझ न आई

कुल कलंकिनी, अरी पापिनी, तूने उन्हें मृत्यु दे डाली
मोह वश छीना सुख कुल का, पिता थे मेरे महा यशस्वी

क्यों विनाश किया है उनका, क्यों बड़े भाई को वन भेजा
 माँ कौसल्या, सुमित्रा का अब, कठिन है जीवित भी रहना

धर्मात्मा हैं राम अति ही, सदाचरण की रीत जानते
जैसा माँ से करना उचित, व्यवहार वह तुझसे भी करते

कौसल्या माँ दूरदर्शिनी, बहन समान ही तुझे मानतीं
उनके पुत्र को भेज तू वन में, फिर भी शोक नहीं जानती 

श्रीराम नहीं दोष देखते,  महायशस्वी शूरवीर हैं
वल्कल वस्त्र उन्हें पहनाकर, कैसा लाभ भला तू देखे  

तू लोभिन है इसीलिए, रामप्रति मेरा भाव न देखे
यह महा अनर्थ कर डाला, राज्य के लिए  तभी तो तूने

कैसे रक्षा कर सकता हूँ, बिन राम-लक्ष्मण के अकेला
पिता भी लें आश्रय उन्हीं का, पर्वत वन का जैसे लेता

किस बल से धारण कर सकता, महाधुरंधर धरता जिसको 
बैलों से जो ढोया जाये, बछड़ा कैसे ढोए उसको

यदि उपाय और बुद्धि से, शक्ति हो मुझमें भरण-पोषण की
राज्य पुत्र के लिए चाहती, इच्छा पूर्ण न होगी तेरी


Saturday, February 10, 2018

कैकेयी द्वारा भरत का श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्




द्विसप्ततितमः सर्गः


भरत का कैकेयी के भवन में जाकर उसे प्रणाम करना, उसके द्वारा पिताके परलोकवास का समाचार पा दुखी हो विलाप करना तथा श्रीराम के विषय में पूछने पर कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना 



नहीं हरा है धन ब्राह्मण का, धनी या निर्धन नहीं मारा
परस्त्री पर नजर न डालें, कारण अन्य है वन जाने का

होने वाला राज्याभिषेक,  श्रीराम का सुना मैंने
उनके हित माँगा वनवास, ले लिया राज्य तुम्हारे हित में

सत्यप्रतिज्ञ स्वभाव के कारण, पूर्ण पिता ने की माँगें
लक्ष्मणऔर सीता के साथ, श्रीराम वन को भेजे गये

पुत्रशोक से पीड़ित होकर, महाराज ने त्यागे प्राण
सब कुछ किया तुम्हारे कारण, राजपद तुम करो स्वीकार 

शोक और संताप त्याग कर, धैर्य धर्म का अब लो आश्रय
है तुम्हारे ही अधीन अब,  नगर और यह निष्कंटक राज्य

विधि-विधान के ज्ञाता हैं जो, वसिष्ठ और ब्राह्मण के संग
कर अंतिम संस्कार पिता का, राज्याभिषेक कराओ अब


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Monday, February 5, 2018

भरत का कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


द्विसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी के भवन में जाकर उसे प्रणाम करना, उसके द्वारा पिताके परलोकवास का समाचार पा दुखी हो विलाप करना तथा श्रीराम के विषय में पूछने पर कैकेयी द्वारा उनका श्रीराम के वनगमन के वृत्तांत से अवगत होना 


सुनना चाहता हूँ उन्हें मैं, कहे वचन जो भी मेरे हित 
कैकेयी ने कहा सत्य तब, पूछ रहे जो बात भी भरत

हा राम ! कहा त्यागे प्राण, बुद्धिमानों में श्रेष्ठ पिता ने 
काल धर्म के वशीभूत हो, गज बंधा हो ज्यों पाशों से

अंतिम वचन यही थे उनके, वे ही मनुज कृतार्थ होंगे
लक्ष्मण, सीता सहित राम से, जो लौटेने पर मिलेंगे

अप्रिय बात सुनी दूजी जब, भरत और भी दुखी हो गये 
मुखड़े पर विषाद छा गया, पूछा पुनः यह प्रश्न माता से

कौसल्यानन्दन प्रिय राम, सीता सहित कहाँ चले गये
कैकेयी ने उन्हें बताया, समाचार यथोचित विधि से

वल्कल वस्त्र पहन कर राम, सीता संग गये दंडक वन
भाई के इस कृत्य का तब, लक्ष्मण ने भी किया अनुसरण

यह सुनकर भरत डर गये, शंका हुई भाई पर उन्हें
स्मरण कर महत्ता कुल की, कैकेयी से लगे पूछने

क्या किसी को मार दिया था, या हर लिया था धन ब्राह्मण का
परस्त्री पर नजर पड़ी क्या, राम को दंड मिला है किसका ?

तब चपल स्वभाव था जिसका, कैकेयी ने निज कृत्य कहा
व्यर्थ ही स्वयं को विदुषी माने, भर हर्ष में बतलाया