Thursday, June 10, 2021

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


त्र्यधिकशततम: सर्ग: 


श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन 


पिता की मृत्यु की बात सुनी जब,  हुए अचेत तब श्रीराम 

करूणाजनक बात थी ऐसी, लगी हृदय पर वज्र समान 


मन को प्रिय न लगने वाले, उस वाग् वज्र को सुना राम ने 

दोनों  हाथ उठाकर ऊपर, गिरे भूमि पर कटे वृक्ष से 


क्लान्त हुए गज से लगते थे, गिरे हुए धरती पर दुःख से 

दुर्बल हुए शोक के कारण, घेर लिया सभी भाइयों ने 

 

दीन वाणी में अश्रु बहाते, किया आरंभ करुण विलाप

महाराज को जान दिवंगत, धर्मयुक्त फिर कही यह बात 


स्वर्ग गमन कर गये पिता जब,  करूँगा क्या अयोध्या जाकर 

मेरे कारण ही हुआ यह, दाह संस्कार भी कहाँ सका कर 


तुम कृतार्थ हो निष्पाप भरत, तुमने सब संस्कार किए हैं 

हुआ हीन नगर राजा से,  जन आकुल व अस्वस्थ हुए हैं  


वनवास पूर्ण होने पर भी, नहीं शेष उत्साह हृदय में 

लौट अयोध्या कब जाऊँगा, नहीं बची लालसा मन में 


कौन बढ़ाएगा उत्साह, कौन मुझे उपदेश करेगा

कानों को सुख देने वाली, करते थे जो बातें पिता  


भरत से ऐसा कह श्रीराम, सुंदर सीता से यह बोले 

श्वसुर चल बसे हैं तुम्हारे, लक्ष्मण तुम पितृहीन हो गये 


देकर सांत्वना दुखी राम को,  कहा सबने जलांजलि दें 

समाचार सुन अश्रु भर आए, सीताजी  के नेत्रों में 


रोती हुई प्रिय पत्नी को, सांत्वना दे लक्ष्मण से कहा 

जलदान देने हित लाओ, उत्तरीय, इंगुदि का फल पिसा 


चलें आगे सीता फिर लक्ष्मण, सबके अंत में मैं चलूँगा 

शोक काल की यह परिपाटी, है अत्यंत दारुण यह प्रथा 


तत्पश्चात् धैर्य बँधाकर, ले चले सुमंत्र सहारा देकर 

कठिनाई से पहुँचे वे सब, मंदाकिनी नदी के तट पर 


गतिमय, उत्तम घाट हैं जिसके, पंक रहित रमणीय नदी पर  

जल प्रदान किया राजा को, दक्षिण दिशा में अंजलि भरकर 

 

Monday, May 31, 2021

भरत का पुनः श्रीराम से राज्य ग्रहण करने का अनुरोध


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

द्व्यधिकशततम: सर्ग: 


भरत का पुनः श्रीराम से राज्य ग्रहण करने का अनुरोध करके उनसे पिता की मृत्यु का समाचार बताना 


श्रीराम की बात सुनी तो, उत्तर दिया भरत ने ऐसे 

नहीं राज्य का अधिकारी, लाभप्रद उपदेश हो कैसे 


सदा से इस शाश्वत धर्म का, पालन होता आया कुल में 

छोटा पुत्र बने नहीं राजा, रहते हुए ज्येष्ठ पुत्र के 


समृद्धिशालिनी पुरी अयोध्या, चलिये आप साथ हमारे 

कुल के अभ्युदय की खातिर, राजा का पद सहर्ष स्वीकारें 


यद्यपि राजा को मानव मानें, किन्तु वह स्थित देवत्व में 

धर्म, अर्थ युक्त आचरण उसका, सम्भव न सामान्य जन से 


जब मैं था कैकय देश में, वन को आप चले आये थे 

अश्वमेधी, सम्मानित राजा, स्वर्गलोक को चले गए 


सीता और लक्ष्मण के संग, अयोध्या से जब निकले आप 

दुःख-शोक से पीड़ित होकर, महाराज ने त्यागे थे  प्राण 


जलांजलि पिता को देने, उठिये हे पुरुषसिंह श्रीराम

मैं व शत्रुघ्न पहले ही, दे चुके हैं जलांजलि का दान 


कहते हैं यह जल प्रिय पुत्र का, पितृलोक में अक्षय होता 

आप पिता के प्रिय पुत्र हैं, अलगाव न सह पाए आपका 


शोक के कारण रुग्ण हुए, आपके दर्शन की इच्छा ले 

आप में लगी हुई बुद्धि को, स्मरण आपका ही वे करते 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ दोवाँ सर्ग पूरा हुआ.



 

Sunday, May 23, 2021

श्रीराम का भरत से वन में आगमन का प्रयोजन पूछना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 एकाधिकशततम: सर्ग: 


श्रीराम का भरत से वन में आगमन का प्रयोजन पूछना, भरत का उनसे राज्य ग्रहण करने के लिए कहना और श्रीराम का उसे अस्वीकार कर देना 



भली प्रकार समझाकर भरत को, श्रीराम ने तब यह पूछा 

किस कारण तुम वन में आए, चाहता हूँ मैं तुमसे सुनना 


राज्य छोड़, वल्कल धारे तुम, जो इस वन प्रदेश आए हो 

स्पष्ट कहो  हर इक बात को, कृष्ण मृगचर्म, जटा धारे हो 


बलपूर्वक दबा कर उरशोक, हाथ जोड़कर कहा भरत ने 

पिता महाराज कर दुष्कर कर्म, स्वर्ग लोक को चले गए 


निज भार्या व मेरी माँ के, कहने से कर्म किया कठोर 

माँ ने भी यश खोने वाला, कर्म कर डाला यह अति घोर 


राज्य रूपी फल न पाकर वह, विधवा होकर शोकाकुल है 

महाघोर नरक की भागी, बनेगी माता यह निश्चित है 


दास स्वरूप मुझ भरत पर अब, कृपया कीजिए, हूँ अभिलाषी 

राज्य  ग्रहण आज ही करके, अभिषेक कराएं इन्द्र की भांति


प्रजा और विधवा माताएं, आयी हैं सब निकट आपके 

कृपा करें व राज्य संभालें, ज्येष्ट पुत्र होने के नाते 


शिष्य, दास, मैं भाई आपका, कृपा करें मुझपर रघुराय 

कुल परंपरा से चले आ रहे, मन्त्रिसमुह का यह निर्णय 


ये सब सचिव थे पिता काल में, सदा इनका सम्मान किया 

इनकी प्रार्थना न ठुकराएं,  यह कह भरत ने प्रणाम किया 


नेत्रों से उन्हें अश्रु बहाते, दीर्घ श्वास गज सम लेते  

राम ने भाई को उठाया, तब लगा हृदय से यह बोले 


भाई , तुम्हीं बताओ कुलवान, सत्वगुणी, तेजस्वी, व्रती 

राज्य हित कैसे कर सकता, पिता की आज्ञा का हनन भी 


तुम्हें पूर्ण निर्दोष मानता, दोष न देखो तुम माता में 

अभीष्ट स्त्रियों, प्रिय  पुत्रों पर, है गुरू का अधिकार सदा से


है अधिकार दें कैसी आज्ञा, हम पिता के शिष्य समान 

यही रीति हमारे कुल की, तुम भी नहीं इससे अनजान 


वल्कल वस्त्र, मृगचर्म पहनाकर, वन में भेजें या राज्य दें 

थे समर्थ वे दोनों के हित, कैसे न मानूँ वचन उनके 


है जितनी गौरव बुद्धि पिता में, हो उतनी ही माता में 

माँ-पिता दोनों की आज्ञा, क्यों विपरीत चलूं मैं उनके 


समस्त जगत हित राज्य संभालो, तुम अयोध्या में रहकर 

दण्डकारण्य में  रहना उचित, मुझे वल्कल वस्त्र पहन कर


बहुत से लोगों के सम्मुख, देकर हमें पृथक दो आज्ञा 

स्वर्ग सिधारे हैं महाराज, मानो तुम उनकी ही आज्ञा 


चौदह वर्षों तक जंगल में रह, राज्य का उपभोग करूँगा

इस को हितकारी मैं मानता, ब्रह्मा पद भी नहीं लूँगा 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ एकवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Sunday, May 16, 2021

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

शततम: सर्ग: 


श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना 


वन से हाथी मंगवाना, कर लेना अधीन राज्यों से

निर्जन स्थानों को बसाना, अष्ट धर्म हैं यही राजा  के 


धर्म, अर्थ व काम पुरुषार्थ, इस त्रिवर्ग पर ध्यान दिया है 

दण्डनीति, त्रिवेद,  वार्ता, इन विद्याओं को अपनाया है 


इन्द्रियों पर विजय पायी है, क्या तुमने अपनी मेधा से 

सन्धि, विग्रह, यान, आदि इन,  परिचित तो हो इन छह गुणों से 


दैवी और मानुषी बाधाओं, नीतिपूर्ण कृत्य राजा के 

विशन्ति वर्ग के राजाओं को,  प्रकृति मंडल को राज्य के


शत्रु पर आक्रमण , व्यूह रचना, सन्धि, विग्रह से परिचित हो 

त्याज्य को त्याग इनमें से, ग्रहणशील ही धारण करते हो 


नीतिशास्त्र की आज्ञानुसार, मंत्रियों से सलाह करते  

वेदयुक्त सब कार्य ही करते, निज क्रिया सदा सफल करते  


विनय आदि गुणों का दायक, शास्त्रज्ञान क्या सफल हुआ है 

जो कहा है तुमसे मैंने, निश्चय यही तुम्हारा भी है 


पिता और प्रपितामह ने, जिस आचरण का किया है पालन 

 जो मूल है कल्याण का, सत्कर्मों का करते हो पालन 


ग्रहण तो नहीं करते हो तुम, स्वादिष्ट अन्न कभी अकेले 

मित्रों को भी देते हो, जो उसकी आशा रखने वाले 

 

धर्मानुसार दण्ड जो धारे, प्रजापालक विद्वान् नरेश 

पृथ्वी को अधिकार में लेता, स्वर्ग जाता त्याग कर देह 




इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

सौवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 

Saturday, May 8, 2021

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

शततम: सर्ग: 


श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना 


निरपराध होने पर भी जिन्हें, मिथ्या दोष लगा दें दंड

उन मनुष्यों के आँसू गिरकर, शासक का कर देते अंत


क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों, प्रधान-प्रधान वैद्यों का भी 

मधुर वचन, अनुराग, धन आदि से, करते हो सम्मान कभी 


गुरुजनों, तपस्वियों, देवों, अतिथि गण, चैत्यों, मंदिरों को 

नमस्कार करते हो न तुम, वृद्धजनोंऔर ब्राह्मणों को 


तुम अर्थ के द्वारा धर्म को, धर्म के द्वारा अर्थ क्षेत्र में  

हानि तो नहीं पहुँचाते हो, आसक्ति तथा लोभ से उनमें 


विजयी वीरों में श्रेष्ठ हो, ज्ञाता समयोचित कर्त्तव्य के   

समय का करके विभाग तुम, सेवन करते न सही समय में


शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण, पुरवासी, जनपदवासी मानव  

कल्याण कामना तो करते हैं,  हित तुम्हारे सभी मिलकर 


नास्तिकता, असत वचन, आलस्य, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता 

ज्ञानी का संग न करना, सदा इन्द्रियों के वश में होना 


राजकार्यों के बारे में, एकांत में चिंतन प्रवाह

प्रयोजन को जो नहीं समझते, अयोग्य मंत्रियों की सलाह, 

 

एक साथ ही सब शत्रुओं पर,  राजा का आक्रमण करना 

न करना मांगलिक अनुष्ठान, गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर देना 


ये राजा के दोष हैं चौदह, तुमने तो इन्हें नहीं धरा 

नीतिशास्त्र की आज्ञा से तुम, सबसे करते हो मशवरा 


काम से  उत्पन्न हों जो दोष, दशवर्ग का त्याग किया है 

त्याज्य हैं वे राजा के लिए, पंचवर्ग पर ध्यान दिया है 


साम, दान, दंड, भेद चतुर्वर्ग,  सबल तुम्हारा सप्त वर्ग

आठ दोष तो त्याग दिए हैं, क्रोध से जो होते उत्पन्न 


राजा के जो योग्य कर्म हैं, अष्ट कर्म तो वे करते हो 

कृषि, व्यापार,  पुल, दुर्ग बना,खानों पर अधिकार करते हो 


 

Friday, April 30, 2021

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्.


शततम: सर्ग: 


श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना


नाना प्रकार के अश्वमेध, महायज्ञ के स्थान हैं बने 

देवस्थान, पौंसले, सरवर, शोभा जिसकी सदा बढ़ाते


सदा प्रसन्न जहां नागरिक,  मनाते हैं उत्सव, आयोजन 

हिंसा जहां नहीं होती है, खेती के लिए अधिक पशु धन 


खेती के लिए वर्षा जल पर, निर्भर नहीं रहना पड़ता 

नाना प्रकार की खानें हैं, जहाँ नहीं कोई भय बसता


पूर्वजों ने सदा ही जिसकी, भली-भांति सुरक्षा की है 

वह अपना प्रिय कोसल देश, धन-धान्य से सम्पन्न तो है


खेती और गोरक्षा से, निज आजीविका जो चलाते 

व्यापर में सलंग्न वैश्य, सदा प्रीतिपात्र तो हैं तुम्हारे


उनके श्रम से ही लोक सुखी, और उन्नतिशील बनता है 

उनके इष्ट की करा प्राप्ति, अनिष्ट निवारण तो होता है 


भरण-पोषण तो तुम उनका, धर्मानुसार सदा करते हो 

क्या वे सदा सुरक्षित रहतीं, स्त्रियों को सन्तुष्ट रखते हो 


विश्वास रख उनके ऊपर, गुप्त बात तो नहीं कह देते

हाथी जहाँ उत्पन्न होते, वे जंगल तो सुरक्षित रखते 


कमी तो नहीं उन गौओं की, अधिक दूध देने वाली जो 

हाथी, हथिनियों व अश्वों के, संग्रह से तो तृप्त नहीं हो


क्या तुम पूर्वाह्न काल में, वस्त्राभूषणों से हो सुसज्जित 

नगरवासियों को देते दर्शन, प्रधान सड़क पर जाकर नित 


अति निडर हो तुम्हारे सम्मुख, कर्मचारी तो नहीं आते 

अथवा वे सब भय के कारण, तुमसे दूर-दूर ही रहते 


मध्यम स्थिति का अवलंबन ही, अर्थसिद्धि का कारण होता 

आय अधिक, व्यय कम तो नहीं, धन अपात्र को तो नहीं मिलता 


धनधान्य, अस्त्र-शस्त्र, जल, शिल्पी तथा धनुर्धरों आदि से 

सभी तुम्हारे दुर्ग और किले, भरपूर सदा हैं रहते 


देव, पितृ, ब्राह्मण, अभ्यागत, योद्धा, मित्रों की खातिर ही 

धन व्यय होता है तुम्हारा, बेकार कभी जाता तो नहीं 


श्रेष्ठ व निर्दोष पुरुष पर,यदि कोई मनुष्य दोष लगाता

बिना जाँच कराये लोभ वश, दंड तो नहीं दिया जाता 


चोरी में जो गया हो पकड़ा, प्रमाण भी यही मिला हो 

 छोड़ते तो नहीं लोभ से,  राज्य में ऐसे किसी चोर को 


विवाद छिड़ा हो न्यायालय में, यदि कोई धनी व निर्धन में

धन के लोभ को तजकर उसपर, मंत्री तो विचार हैं करते 


 

Thursday, April 22, 2021

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


शततम: सर्ग: 

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना 

शूरवीर और धैर्यवान हैं,  जो सन्तुष्ट सदा रहते 
बुद्धिमान, कुलीन, पवित्र जन, अनुराग अपने में रखते 


 सेनापति तुमने जिन्हें बनाया, क्या वे सब ऐसे ही हैं 

 प्रधान योद्धा सभी तुम्हारे, रण कर्म में दक्ष पुरुष हैं


उनके शौर्य की परीक्षा भी, लेते रहते क्या कभी तुम   

सत्कार सहित उनका आदर भी, करते तो रहते हो तुम


नियत किया  वेतन, भत्ता, ठीक समय पर सदा ही देते  

यदि विलम्ब से मिलता वेतन, सैनिक अति कुपित हो जाते 


क्या उत्तम मंत्री, अधिकारी, प्रेम सभी तुममें हैं रखते  

क्या वे सभी तुम्हारी खातिर, प्राण देने को तत्पर रहते 


राजदूत जिसे बनाया तुमने, वासी निज देश का है न 

विद्वान्, कुशल, प्रतिभाशाली, सद्विवेक से युक्त भी है न 


शत्रु पक्ष के अठारह तीर्थ, पन्द्रह तीर्थ अपने पक्ष के 

तीन-तीन गुप्तचरों से, क्या सदा ही तुमसे परखे जाते 

 

जिन शत्रुओं को किया निष्कासित, यदि लौट कर वे आते 

दुर्बल उन्हें समझकर, उपेक्षा तो उनकी नहीं करते 


संग नास्तिक ब्राह्मणों का तो, कभी  भी नहीं तुम करते हो 

कुशलता से विचलित कर देते,  परमार्थ से बुद्धि को वो 


अज्ञानी होते हुए भी, अपने को बड़ा ज्ञानी समझें 

वेद विरुद्ध होने से उनका,  ज्ञान अशुद्ध, तर्क वे करते


प्रमाणभूत जो धर्म शास्त्र  हैं, उनमें वे विश्वास न रखते 

केवल ले बुद्धि का आश्रय, व्यर्थ ही बात बनाया करते 


तात ! हमारे वीर पूर्वजों की, अयोध्या मातृ भूमि है

जैसा नाम वैसा गुण इसका, द्वार सभी और से दृढ हैं 


गज, अश्व, रथों से परिपूर्ण, अपने अपने कर्म में रत जो 

ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य यहाँ हैं, उत्साही, जितेन्द्रिय, श्रेष्ठ वो 


नाना राजभवन और मंदिर, शोभा उसकी सदा बढ़ाते

विद्वानों से भरी है नगरी, तुम उसकी रक्षा तो करते 


Thursday, April 15, 2021

श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

शततम: सर्ग: 


श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना 


गूढ़ विषय पर मंत्रणा तुम, बैठ अकेले तो नहीं करते 

अथवा सबके साथ बैठकर, गुप्त बात भी फैला देते 


जिसका साधन अति ही लघु है, किन्तु दीर्घ फल देने वाला 

उस कर्म को शीघ्र तो करते, कर विलम्ब उसे नहीं टाला


पूर्ण हुए या होने वालें, कर्म तुम्हारे प्रकट तब होते 

ऐसा तो नहीं भावी कृत्य , पहले से ही सभी जानते 


तुमने निश्चय किया है जिनका, किन्तु अभी न प्रकट किया है 

तर्क व युक्तियों आदि से, उनको अन्य जान लेते  हैं क्या 


एक विद्वान् को निकट रखते, हजार मूर्खों  के बदले क्या,

कर सकता कल्याण वही जब,  संकट जब छाया हो गहरा


हजार मूर्ख भी नहीं सहायक, एक सुयोग्य मंत्री हो यदि 

शूरवीर, चतुर, नीतिज्ञ ही, दे सकता है सम्पत्ति बड़ी 


मुख्य व्यक्तियों को क्या तुमने, मुख्य कार्य में नियुक्त किया 

मध्यम को मध्यम कार्य में, निम्न को लघु कर्म में लगाया 


घूस नहीं लेते जो निश्छल, बहुत काल से कार्य कर रहे 

भीतर-बाहर से पवित्र हों, उत्तम कार्य सौंपा है उन्हें 


कठोर दण्ड से पीड़ित होकर, प्रजा तुम्हारे राज्य की कहीं

 अमात्यों व मंत्रियों का, तिरस्कार तो नहीं है करती 


 पतित यजमान का जैसे याजक, स्त्रियाँ कामी, पतित पुरुष का 

अपमान तो नहीं करती प्रजा, अधिक कर लेने पर तुम्हारा 


जो साम-दाम में अति कुशल है, राजनीति का भी ज्ञाता है 

राज्य हड़पने की इच्छा रख, भृत्यों को फोड़ने में रत है 


मरने से जिसे भय नहीं, ऐसे शत्रु को जो नहीं जीतता 

वह स्वयं उसके हाथों से, एक न एक दिन मारा  जाता