Thursday, February 25, 2021

लक्ष्मण का भरत की सेना को देखना और उनके प्रति अपने रोषपूर्ण उद्गार प्रकट करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षण्णवतितम: सर्ग:


वन जंतुओं के भागने का कारण जानने के लिए श्रीराम की आज्ञा  से लक्ष्मण का शाल वृक्ष पर चढ़ कर भरत की सेना को देखना और उनके प्रति अपने रोषपूर्ण उद्गार प्रकट करना 


मंदाकिनी का दर्शन करा, मिथिलेशकुमारी सीता को 

बैठ गए समतल स्थान पर, तत्पर हुए उनके लालन को 


तापस जन  प्रयोग करें जिनका, ऐसे फल व मूल खिलाते 

यह फल स्वादिष्ट है खाओ, कह मानसिक आनंद बढ़ाते 


रघुनन्दन जब यह कहते थे,  भली प्रकार यह कंद है सिका  

भरत की  सेना के कारण, धूल व कोलाहल तब प्रकटा 


गज समूह भी लगे भागने, सुनकर वह महान कोलाहल 

 देखी  धूल, सुना शोर राम ने,  लक्ष्मण से यह कहे वचन 


तुमसे ही माता सुमित्रा, श्रेष्ठ पुत्र वाली कहलाती 

देखो तो सही शोर है कैसा, कैसी यह गर्जना आती 


यह पता लगाओ क्यों भागते, हाथी, भैंस, मृग आदि पशु  

सिंह से तो भयभीत नहीं या, शिकार खेलता राजा ही 


अपरिचित पक्षियों का आना, इस पर्वत पर अति कठिन है 

हिंसक पशु का आक्रमण फिर, होना आखिर कैसे संभव है 


श्रीराम की आज्ञा  पाकर, चढ़े लक्ष्मण शाल वृक्ष पर 

सभी दिशाओं को देखकर, पूर्व दिशा में गई थी नजर 


तत्पश्चात उत्तर दिशा में, सेना एक दिखाई दे गई 

हाथी, घोड़ों, रथों से पूर्ण, पैदल सैनिकों से सज्जित थी 


श्रीराम को दी सूचना इसकी, लक्ष्मण ने यह बात कही 

अग्नि बुझा, कवच पहन लें,   गुफा में बैठें सीता देवी


यह सुनकर श्रीराम ने कहा, भली प्रकार तुम वहाँ  देखो  

तुम्हारी समझ में किसकी सेना, हो सकती है यही  कहो 


क्रोधित हुए रोष से लक्ष्मण,  सेना की तरफ लगे देखने  

मानो उसे भस्म ही कर दें, अति क्रोध में भरकर बोले 


 निश्चय ही कैकेयी पुत्र है,  हमें मारने यहाँ आया   

अयोध्या का राज पा चाहे, निष्कंटक राज्य हो उसका


सम्मुख जो विशाल पादप है, उसके निकट ही रथ खड़ा  है  

 उज्ज्वल तने से युक्त जिस पर, कोविदार से चिह्नित ध्वज है 


घुड़सवार भी इधर आ  रहे, हाथी पर भी चढ़े सवार 

हम दोनों को धनुष बाण ले, युद्ध हेतु है रहना तैयार 


कोविदार चिह्नित ध्वजा के, रथ पर हम अधिकार करेंगे 

आज भरत से होगा सामना, उसी कारण हम हैं वन में 


वंचित किया आपको उसने, सनातन राज्य के अधिकार से 

संकट में सभी को डाला, शत्रु हमारा यही भरत है 


वध के योग्य, अपकारी भी, उसे नहीं जीवित छोड़ेंगे 

इसमें कोई नहीं अधर्म, आप ही फिर शासक बनेंगे 


कैकेयी का बांधवों सहित मैं, वध करने को हूँ तत्पर 

 कैकेयी के महा पाप से, आज यह पृथ्वी होगी मुक्त 


 रोके हुए अपमान, क्रोध को, आज सेना पर छोड़ूँगा 

 आग लगा दी जाए जैसे, सूखा घास-फूँस है जलता 


टुकड़े-टुकड़े कर शत्रु के, आज अपने तीखे बाणों से  

चित्रकूट के वन प्रांतर को, सींचूँगा उनके रक्त से 


 बाणों से हत हाथी-घोड़े, तथा मनुष्य भी जो मृत हों 

गीदड़ आदि माँसभक्षी पशु, इधर-उधर घसीटें उनको  


सेना सहित भरत का वध कर, शस्त्र ऋण से उऋण होऊँगा 

इसमें संशय नहीं मुझे,  हर अपमान का बदला लूँगा 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 

Saturday, February 20, 2021

श्रीराम का सीता के प्रति मंदाकिनी नदी की शोभा का वर्णन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

पंचनवतितम: सर्ग:


श्रीराम का सीता  के प्रति मंदाकिनी नदी की शोभा का वर्णन 


तत्पश्चात कोसलनरेश ने, मिथिलेशकुमारी सीता को 

 बड़े ही प्रेम से भर दिखाया, पुण्य सलिला मंदाकिनी को 


चंद्र समान सुंदर मुख वाली, कटिप्रदेश भी सुंदर जिनका 

विदेहराज नंदिनी सीता से, कमलनयन श्रीराम ने कहा 


मंदाकिनी की शोभा देखो, हंस और सारस से सेवित 

अति विचित्र किनारा इसका, विविध रंगी फूलों से शोभित 


फूलों-फलों से लदे पादप, तट की शोभा बढ़ा रहे हैं 

 कुबेर के सरोवर की भांति, इसके घाट अति मनहर हैं  


अभी-अभी जल पीकर गए हैं, हरिणों के कुछ झुंड यहाँ से 

शीतल स्वच्छ मंदाकिनी का, पानी गँदला हुआ है जिससे 


जटा, मृगचर्म, वल्कल धारे, मुनिजन यहाँ स्नान  हैं करते

 उठा भुजायें दोनों ऊपर, अन्य सूर्य आराधन करते  


झूम रही शाखाएं जिनकी, पत्र-फूल बिखेरें तटों  पर 

उन वृक्षों से सजा हुआ यह, पर्वत मानो नृत्य रहा कर 


देखो, कैसी अद्भुत शोभा, कहीं मोतियों सा जल इसका 

कहीं कगार दिखाई देते, करें  सिद्ध जन सेवन इसका 


हवा द्वारा उड़ा के लाए, ढेरों फूल तैरते इसमें 

देखो हे सुंदर भामिनी, कहीं तटों पर फैले हैं वे 


मीठी बोली बोलने वाले, चक्रवाक पक्षी तटों पर 

सुंदर कलरव करते हैं वे, सुखद जान पड़ता है हर पल 


नित्य निरंतर तुम्हारा दर्शन, बढ़ा रहा है इनकी शोभा , 

अयोध्या-वास की अपेक्षा, अधिक सुखद निवास यहाँ का 


तप, संयम, मनोनिग्रह से, सम्पन्न मुनिगण यहाँ नहाते 

 आज चलो तुम भी मेरे संग, करने  स्नान इसके जल में 


सखियाँ ज्यों क्रीडा करती हैं, वैसे ही तुम उतरो जल में 

श्वेत और लाल कमलों संग, क्रीड़ा करो डुबा के जल में       


पुरवासियों जैसा ही समझो, तुम इस वन के निवासियों को  

चित्रकूट मानो अयोध्या, मंदाकिनी को सरयू समझो  


धर्मात्मा लक्ष्मण सदा ही, मेरे मन के अनुकूल हैं 

रहती तुम भी सदा अनुकूल, इससे मुझे अतीव सुख है 


संग तुम्हारे त्रिकाल स्नान कर, मधुर फल-मूल  पा आहार 

न ही कामना जाऊं अयोध्या, न  राज्य पाने का विचार 


गजसमूह जिसे मथ डालते, शेर और वानर जल पीते 

सुंदर पुष्पों से लदे वृक्ष, जिसके तट पर शोभा पाते   


ऐसी इस रमणीक नदी में, जो भी यहाँ स्नान करता है 

 ग्लानिरहित व सुखी नहीं  हो, ऐसा जग में मनुष्य नहीं है  


कारण जो रघुवंश वृद्धि के, श्रीराम कह ऐसी बातें 

नील-कान्ति युक्त पर्वत पर, प्रिया के साथ लगे विचरने 




इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पंचानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 

Friday, February 12, 2021

श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्नवतितम: सर्ग:


श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना 

 
इस पर्वत की अनेक शिलाएं, चहुँ ओर शोभित होती हैं
नीले, पीले, श्वेत, लाल, विविध रंगों की जो लगतीं हैं 

रात्रिकाल में अग्निशिखा सम, औषधियां उद्भासित होतीं 

वृक्षों की छाया से ढके, कई स्थान यहाँ घर से लगते 


चम्पा, मालती आदि फूल से,  सजे हुए हैं कई उद्यान

बहुत दूर तक चली गयी है, किसी जगह एक ही चट्टान 


इन सबसे अति शोभा होती, सभी ओर से सुंदर लगता 

फोड़ धरा को ऊपर आया, चित्रकूट पर्वत यूँ लगता


इधर एक शैया को देखो, पुन्नाग, भोजपत्र आदि की 

कमल पत्र भी बिछे हुए हैं,  मानो चादर हो पत्तों की 


कहीं मसल कर फेंकी हुई, कमल की मालाएं पड़ीं  हैं 

ऊँचे सुंदर वृक्ष अनेकों,  नाना तरह के फल लगे हैं 


फलों, मूल, जल से सम्पन्न, अलका पुरी सा शोभित होता 

इंद्रपुरी व उत्तर कुरु को, निज शोभा से तिरस्कृत करता 


प्राण प्रिया हे सीते ! यदि मैं, उत्तम व्रत का पालन करता 

चौदह वर्ष सानंद बिता लूँ, धर्म बढ़े वह सुख पा सकता 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौरानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Friday, February 5, 2021

श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्नवतितम: सर्ग:


श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना 


चित्रकूट श्रीराम को प्रिय था, दीर्घकाल से वहाँ रह रहे 

उसकी शोभा को दिखाने, इक दिन सीता से यह बोले 


यद्यपि राज्य से भ्रष्ट हुआ मैं, विलग सुहृदों से रहता हूँ 

व्यथित नहीं कर पाता कुछ भी, जब इस पर्वत को निहारूँ 


भिन्न-भिन्न आकार के पक्षी, देखो कैसे कलरव करते

नाना धातुओं से सुमण्डित, ऊँचे शिखर गगन बेधते 


कोई चमक रहे चांदी से, रक्तिम आभा कुछ बिखेरें 

किन्हीं प्रदेशों के रंग पीले, मणियों सम उद्भासित होते 


कोई पुखराज, स्फटिक कोई, है कोई केवड़े पुष्प सा

नक्षत्रों से चमक रहे कुछ, पारद सम प्रकाश किसी का 


मृग, व्याघ्र, चीते, रीछों से, भरा हुआ यह सुंदर पर्वत 

परित्याग कर दुष्ट स्वभाव का, रहते सब प्राणी मिलकर 


आम, प्रियल, आसन, कटहल, बीजक, जामुन, बेल, वर्ण, महुआ, 

बेर, आंवला, कदम्ब, आदि से, अनुपम शोभा से व्याप्त हुआ 


इन रमणीय शैल शिखरों पर, उन प्रदेशों को भी देखो 

मिलन भावना को उद्दीप्त कर, सदा बढ़ाते हैं हर्ष को 


वहां मनस्वी किन्नर जोड़े, एक साथ हो टहल रहे हैं 

जिनके खड्ग, व सुंदर वस्त्र, शाखाओं से लटक रहे हैं 


कहीं से  झरने फूट रहे, कहीं भूमि से सोते बहते 

पर्वत शोभित है इनसे, ज्यों मद धार से हाथी होते 

  

नाना प्रकार के फूलों की, सुगन्ध भरी वायु जब आती

नासिक को तृप्त करे वह, किस पुरुष का हर्ष नहीं बढ़ाती


यदि तुम्हारे व लक्ष्मण संग, रहूँ अनेकों वर्षों तक मैं 

नहीं करेगा जरा भी पीड़ित, नगर त्याग का शोक मुझे 


फूलों-फलों से युक्त हुआ यह, है पक्षियों से भी सेवित 

विचित्र शिखर वाले पर्वत पर, लगता बहुत है मेरा चित 


इस वनवास से पाए दो फल, मुझको दुगना लाभ हुआ  

एक पिता की आज्ञा पाली, दूसरा भरत का प्रिय हुआ   


होता है क्या तुम्हें आनंद, हे विदेह कुमारी ! बोलो 

 इन पदार्थों को जब देखती, मन, वाणी, देह को प्रिय जो 


प्रपितामह मनु आदि राजा ने, अमृत कहा उस वनवास को 

नियमपूर्वक जो किया हो, देता है परम कल्याण को वो