Friday, January 29, 2016

श्रीराम को उदास देखकर सीता का उनसे कारण पूछना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

श्रीराम को उदास देखकर सीता का उनसे कारण पूछना और श्रीराम का पिता की आज्ञा से वन में जाने का निश्चय बताते हुए सीता को घर में रहने के लिए समझाना

स्वस्तिवाचन पूर्ण हुआ जब, धर्म मार्ग पर स्थित राम
वन जाने वहाँ से निकले, कौसल्या को कर प्रणाम

जन से भरे राजमार्ग को, कर प्रकाशित वे जाते थे
सद्गुणों के कारण उनके, ह्रदयों को जैसे मथते थे

जनकनन्दिनी सीता ने वह, सारा हाल नहीं सुना था
उनके उर में यही बात थी, पति का अभिषेक हो रहा

राजधर्म व कर्त्तव्यों को, भली भांति जानती वह थीं
देवों की पूजा करके वह, राम प्रतीक्षा ही करती थीं

इतने में ही श्रीराम ने, किया प्रवेश उस अंतःपुर में
सजा-सजाया भरा जनों से, मुख नीचा उनका लज्जा से

उन्हें देखते ही आसन से, सीता उठकर खड़ी हो गयीं
चिंता से व्याकुल, संतप्त्, देख राम को कम्पित हुईं  

वेग सहन नहीं कर सके, शोक राम का प्रकट हो गया
देख प्रिया सीता को सम्मुख, मुख उनका उदास हुआ

दुःख से हो संतप्त अति, पूछा था सीता ने कारण
मंगलमय है पुष्य नक्षत्र, क्यों न दिखें आप प्रसन्न

नहीं देखती मुख आपका, जल के फेन समान प्रकाशित
शत तीलियों वाला छत्र, नहीं कर रहा है आच्छादित

कमलनयन आपके मुख पर, चंवर नहीं डुलाये जाते
मंगलकारी वचनों द्वारा, मागध स्तुति नहीं सुनाते

वेदज्ञ ब्राह्मणों द्वारा, मस्तक पर अभिषेक न हुआ
मंत्री अथवा जनपद वासी, पीछे कोई नहीं चल रहा

चार वेगशाली घोड़ों से, श्रेष्ठ पुष्प रथ जुता हुआ
तेजस्वी विशाल गजराज, आगे-आगे नहीं चल रहा

सुवर्ण जटित भद्रासन को, सेवक लेकर नहीं चल रहा
क्या कारण है इस पीड़ा का, रंग आपका उड़ा हुआ

इस प्रकार विलाप करती थी, सीता से यह कहा राम ने
वन में भेज रहे हैं मुझको, आज ही पूज्य पिता हमारे

धर्म परायण, हे कुलशीला, जनकनन्दिनी ! कह रहा, सुनो
सत्य प्रतिज्ञ महाराज ने, दो वर दिए कैकेयी माँ को

जब पिता के उद्योग से, राज्यभिषेक की हुई तैयारी
कैकेयी ने उन्ही वरों की, महाराज को याद दिला दी

विवश हुए पिता ने तब, भरत को युवराज बनाया
मुझे दूसरे वर द्वारा, चौदह वर्षों का वनवास दिया




Wednesday, January 27, 2016

श्रीराम का उन्हें प्रणाम करके सीता के भवन की ओर जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


कौसल्या का श्रीराम की वनयात्रा के लिए मंगलकामनापूर्वक स्वस्तिवाचन करना और श्रीराम का उन्हें प्रणाम करके सीता के भवन की ओर जाना 

पूर्वकाल में विनता माँ ने, गरुड़ के हित जो कृत्य किया था
मंगल वही प्राप्त हो तुमको, अमृत वह लाने वाला था

माता अदिति का आशीष, अमृत की उत्पत्ति काल में
दैत्यहंता इंद्र को मिला, तुमको भी वह सुलभ हो सके

तीन पगों को भू पर धरते, मंगलाशंसा पायी विष्णु ने
प्राप्त वही मंगल हो तुमको, शुभकारी हों सभी दिशाएँ

इस प्रकार आशीष दिया, माता ने फिर तिलक लगाया
रक्षा के उद्देश्य से औषधि, विशल्यकरणी को बांध दिया

सभी मनोरथ सिद्ध करे जो, मन्त्र जाप कर उसको बांधा
ऊपर से खुश दिखकर माँ ने, दुःख को भीतर छुपा लिया

वाणी मात्र से पढ़े मन्त्र तब, पुत्र के मस्तक को सूंघा
लगा हृदय से फिर राम को, मंगलकारी वचन कहा

सुखपूर्वक वन को जाओ, रोगरहित वापस लौटोगे
राजमार्ग पर तुम्हें देखकर, दुःख मेरे सब मिट जायेंगे

हर्षजनित उल्लास मिलेगा, वन से लौटे तुम्हें देखकर
चाँद पूर्णिमा का हो जैसे, देखूंगी उल्लसित होकर

राज सिंहासन पर बैठोगे, पुनः तुम्हारा दर्शन होगा
अब जाओ, पुनः लौटकर, राजोचित फिर वर्तन होगा

मंगल वस्त्राभूषण धर तब, पूर्ण कामना सीता की करना
चिर काल तुम्हारे हित की, मुझसे पूजित करें कामना

इस प्रकार कौसल्या माँ ने, अश्रु भर कर नयनों में
स्वस्ति वाचन कर्म किया, उन्हें लगाया निज उर से

की प्रदक्षिणा जब राम की, राम ने भी प्रणाम किया
सीताजी के महल की तरफ, शोभित हो प्रस्थान किया !


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पचीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Monday, January 25, 2016

कौसल्या का श्रीराम की वनयात्रा के लिए मंगलकामनापूर्वक स्वस्तिवाचन करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

कौसल्या का श्रीराम की वनयात्रा के लिए मंगलकामनापूर्वक स्वस्तिवाचन करना और श्रीराम का उन्हें प्रणाम करके सीता के भवन की ओर जाना

क्लेशजनित शोक को मन से, दूर कर दिया तब माता ने
यात्राकालिक मंगलकृत हित, किया आचमन पावन जल से

अब मैं तुम्हें रोक न सकती, रघुकुल भूषण ! अब जाओ
सत्पुरुषों के पथ पर रह कर, शीघ्र लौट, वन से आओ

सदा सुखी रह जिस धर्म का, नियमपूर्वक पालन करते
रघुकुल सिंह धर्म वही अब, रक्षा करे सभी ओर से

जिनको तुम करते प्रणाम, देव स्थानों व मन्दिर में
संग महर्षियों, देव सभी, वन में रक्षक बनें तुम्हारे

सद्गुणों से तुम प्रकाशित, दिए मुनि ने जो भी अस्त्र
रक्षा करें सभी ओर से, सदा तुम्हारी प्रियवर पुत्र !

शुश्रूषा पिता की की है, सेवा भी माताओं की
सत्य पालन से रहो सुरक्षित, बने रहो चिरंजीवी

समिधा, कुशा, पवित्री, वेदी, मन्दिर, पर्वत, वृक्ष सभी
पक्षी, पोखर, सर्प और सिंह, रक्षक बनें तुम्हारे सब ही

साध्य, विश्वेदेव तथा, संग महर्षि मरुद्गण सारे
धाता और विधाता दोनों, पूषा, भग, कल्याण करें

लोकपाल, छह ऋतुएं, मास, संवत्सर दिन व रात्रि,
मंगलकारी हो जाएँ, श्रुति, स्मृति, तथा धर्म भी

स्कन्ददेव, सोम, बृह्स्पति, सप्तर्षिगण, मुनि नारद भी
सिद्द गण, दिशाएं, दिक्पाल, हों संतुष्ट स्तुति से मेरी

पर्वत, सागर, वरुण, द्युलोक, अंतरिक्ष, पृथ्वी व वात
सब नक्षत्र, चराचर प्राणी, देवों सहित संध्या, दिन-रात

रक्षा करें तुम्हारी वन में, मुनि का वेश धरे जब वन में
हिंसक जीवों, और पिशाचों, भय न हो राक्षसों से

मेढक, वानर, बिच्छू, डांस, मच्छर, सर्प, कीट सभी
हिंसक न हों, द्रोह करें न, रीछ, सिंह, व्याघ्र, हाथी

मेरे द्वारा पूजित होकर, नरभक्षी भी न हों हिंसक
मार्ग सभी मंगलकारी हों, करो यात्रा तुम सकुशल

नभचर, भूचर, देव सभी, शत्रु भी मंगलकारी हों
शुक्र, सोम, सूर्य, कुबेर, यम हो पूजित रक्षक हों

स्नान और आचमन समय, अग्नि, वायु, धूम, मन्त्र
ब्रह्मा, ऋषिगण, परब्रह्म, सब के सब बनें रक्षक

ऐसा कह विशाल लोचना, रानी ने किया पूजन
पुष्प, गंध, स्तुति के द्वारा, होम कराया विधिपूर्वक

ब्राह्मण ने शांति के हित तब, अर्पित की बलि करके होम
स्वस्तिवाचन हित दे दान, स्वस्त्ययन मन्त्रों का पाठ

दी दक्षिणा मनोनुकूल, कहे वचन राम से माँ ने
इंद्र को जो आशीष मिला था, मंगल हित हो वही तुम्हारे


Thursday, January 14, 2016

विलाप करती हुई कौसल्या का श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए आग्रह करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

चतुर्विंशः सर्गः

विलाप करती हुई कौसल्या का श्रीराम से अपने को भी साथ ले चलने के लिए आग्रह करना तथा पति की सेवा ही नारी का धर्म है, यह बताकर श्रीराम का उन्हें रोकना और वन जाने के लिए उनकी अनुमति प्राप्त करना

कौसल्या ने देखा जब यह, वन जाने को तत्पर राम
अश्रुपूर्ण गद्गद् वाणी में, किये वचन तब यह उच्चार

कभी नहीं दुःख देखा जिसने, प्रियवादी दशरथ नन्दन
धर्मात्मा पुत्र वह मेरा, कैसे करेगा वन में विचरण

रहेगा कैसे ? दास भी जिसके, स्वादिष्ट अन्न हैं पाते
दाने बीन उच्छवृत्ति से, कंदमूल फल खाकर वन में

कौन भला विश्वास करेगा, किसको भय नहीं होगा सुन
वनवास राम को मिलता ?, राजा का प्रिय सद्गुण सम्पन्न !

निश्चय ही है दैव महान, सुख-दुःख का देने वाला
उसी के प्रभाव में आकर, ऐसा निश्चय कर डाला

किन्तु पुत्र, बिछुड़ कर तुमसे, शोक मुझे जला डालेगा
जैसे दावानल ग्रीष्म में, सूखे ईंधन को भस्म करेगा

शोकाग्नि प्रकटी अंतर में, विरह की वायु इसे बढ़ाती
दुःख ही ईंधन इसमें बनता, आँसू ही घी की आहूति

उच्छ्वास ही धुआं है मानो, कैसे तुम वापस आओगे
चिंता जन्म देती अग्नि को, प्रतिक्षण इसे बढ़ाती श्वासें

तुम्हीं हो जल जो इसे बुझाये, यह अन्यथा जला ही देगी
धेनु-वत्स सी चलूंगी मैं भी, जाओगे तुम जहाँ कहीं भी

कहा राम ने, मैं वन जाता, कैकेयी विपरीत पिता के
तुम भी यदि उन्हें त्यागोगी, पिता न जीवित रह पाएंगे

अति क्रूरतापूर्ण कर्म है, नारी के लिए त्याग पति का
मन में ऐसी बात न लाओ, सत्पुरुषों ने की है निंदा

सेवा करो तुम महाराज की, यही सनातन धर्म कह रहा
श्रीराम की बात सुनी जब, शांत हो गयीं तब कौसल्या

ऐसा ही होगा पुत्र अब, हामी भर दी जब माता ने
हम दोनों का यही कर्त्तव्य, पुनः कहा था श्रीराम ने