Friday, August 31, 2012

दशमः सर्गः अंगदेश में ऋष्यश्रंग के आने तथा शांता के साथ विवाह होने का प्रसंग कुछ विस्तार के साथ वर्णन


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्


दशमः सर्गः
अंगदेश में ऋष्यश्रंग के आने तथा शांता के साथ विवाह होने का प्रसंग कुछ विस्तार के साथ वर्णन

राजा की आज्ञा जब पायी, कहा सुमन्त्र ने उसी कथा को
रोमपाद के मंत्री गण ने, ऋषि बुलाया जिस उपाय से

कहा अमात्यों सँग पुरोहित ने, एक उपाय निर्विघ्न है
ऋषि सदा वन में ही रहते, स्त्री जाति से अनभिज्ञ हैं

जन के चित्त को हर लेते जो, विषयों का देंगी प्रलोभन
लुभाकर ले आयें गणिकाएँ, सुदंर वेश बना कर शोभन

मुख्य-मुख्य गणिकाएँ गण की, उस महान वन जा पहुंची
आश्रम से कुछ निकट ठहर, करें प्रतीक्षा मुनि दर्शन की

मुनिकुमार थे धीर बहुत, सँग पिता के ही रहते थे
जन्म से अब तक कभी उन्होंने, स्त्री के दर्शन न किये थे

एक बार घूमते-फिरते, मुनिकुमार वहाँ जा पहुँचे
वनिताएँ गातीं थीं मनहर, वेश बहुत ही सुंदर थे

देखा ऋषिकुमार को जिस क्षण, उनके पास चली आयीं
आप कौन हैं, क्या करते हैं, हम ये हैं जानना चाहतीं

ऋष्यश्रृंग ने देखा उनको, मन में स्नेह उपज आया
पिता का परिचय दे दूँ इनको, भीतर यह विचार किया

पिता का नाम विभाण्डक है, मैं कहलाता ऋष्यश्रृंग
कर्म तपस्या सभी जानते, निकट ही है मेरा आश्रम

आप परम सुंदर लगती हैं, चलें आश्रम पर सब मेरे
विधिपूर्वक करूँगा पूजा, सहमत हो कर गयीं सभी वे

अर्ध्य, पाध्य, और कंद-मूल दे, विधिवत् पूजन किया मुनि ने
शीघ्र विचार किया जाने का, भय था उनको ऋषि पिता से

वे बोलीं, ब्रह्मण ! ये फल हैं, आप भी ग्रहण करें इनको
हर्ष में भरकर आलिंगन कर, दिए मिष्ठान आदि उनको




  


Wednesday, August 29, 2012

नवमः सर्गः सुमन्त्र का राजा को ऋष्यश्रृंग मुनि को बुलाने की सलाह देते हुए उनके अंगदेश में जाने और शांता से विवाह करने का प्रसंग सुनाना


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


अष्टम सर्गः
राजा का पुत्र के लिये अश्वमेधयज्ञ करने का प्रस्ताव और मंत्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन 


राजा को देकर बधाई, लौट गए सब धर्मज्ञ ब्राह्मण
देकर मंत्रियों को आदेश, गए नृप भी निज प्रांगण

कहा नरेश ने रानियों से तब, दीक्षा ग्रहण करें वे भी
पुत्र के लिये यज्ञ करेंगे, सुन हर्षित हुईं रानियाँ भी

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में आठवाँ सर्ग पूरा हुआ.

नवमः सर्गः

सुमन्त्र का राजा को ऋष्यश्रृंग मुनि को बुलाने की सलाह देते हुए उनके अंगदेश में जाने और शांता से विवाह करने का प्रसंग सुनाना

पुत्र यज्ञ की बात सुनी जब, कहा सुमन्त्र ने एकांत में
अति पुराना एक इतिहास है, सुनिए, हे राजन ! मुझसे

अश्वमेध का यह विधान भी, किया ऋत्विजों ने ही है
किन्तु कुछ विशेष बात है, सनत्कुमार ने जो कही है

कहा उन्होंने था मुनियों से, कश्यप के हैं पुत्र विभाण्डक
उनका भी इक वंशज होगा, नाम रखेंगे ऋष्यश्रृंग

वे रहेंगे सदा ही वन में, पालन वन में ही होगा
पिता के सँग ही सदा रहेंगे, दूजा कुछ न परिचित होगा

ब्रह्मचर्य के दो रूप हैं, मुख्य और गौण कहलाते
पालन होगें दोनों ही, सहज सदा उन ऋषिवर से

पिता व अग्नि की सेवा में, समय व्यतीत होगा उनका
उसी काल में अंगदेश में, रोमपाद होंगे एक राजा

धर्म उल्लंघन होगा उनसे, अनावृष्टि राज्य में होगी
जनता हाहाकार करेगी, भय से भी व्याकुल होगी

रोमपाद को भी दुःख होगा, ब्राह्मणों से उपाय पूछेंगें
वेद शास्त्र के ज्ञाता हैं जो, प्रायश्चित उनसे जानेंगे

वेदों के विद्वान वे मुनि, राजा को सलाह देगें
ऋष्यश्रृंग को कर आमंत्रित, पुत्री उन्हें सौंप देंगे

राजा को चिंता होगी यह, कैसे उन्हें बुलाया जाये
पुरोहित व मंत्री भी चिंतित, कैसे उन्हें मनाया जय

किसी बहाने से वे उनको, अंगदेश में ले आएंगे
आते ही वर्षा भी होगी, शांता से फिर ब्याहेंगे

आपके वह हुए जामाता, वे ही यज्ञ का करें सम्पादन
राजा सुनकर हो हर्षित, लगे पूछने विस्तृत विवरण

  


Friday, August 24, 2012

अष्टम सर्गः राजा का पुत्र के लिये अश्वमेधयज्ञ करने का प्रस्ताव और मंत्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन



श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


अष्टम सर्गः
राजा का पुत्र के लिये अश्वमेधयज्ञ करने का प्रस्ताव और मंत्रियों तथा ब्राह्मणों द्वारा उनका अनुमोदन

धर्मज्ञ राजा दशरथ थे, पुत्र कामना हेतु चिंतित
नही था वंश चलाने वाला, महामनस्वी अति व्यथित

किया विचार हृदय में इक दिन, अश्वमेध यज्ञ मैं करूं
कहा सुमन्त्र से बुला के लाओ, गुरुजनों व पुरोहितों को

वेदविद्या के पारंगत थे, सब मुनि शीघ्र वहाँ आये
स्वागत किया सभी का नृप ने, अर्थ युक्त यह वचन सुनाये

पुत्र बिना व्याकुल हूँ मैं, सुख न देता राज्य भी मुझको
निश्चय किया कि यज्ञ करूं मैं, पाऊं पुत्र प्राप्ति के सुख को

शास्त्रोक्त विधि से अनुष्ठान हो, मनोवांछित वर पाऊं
करें विचार आप सब इस पर, कैसे मैं शांति पाऊं

राजा के ऐसा कहने पर, वशिष्ठ आदि ने किया अनुमोदन
अति शुभ विचार आपका, कहा सभी ने हो प्रसन्न  

संग्रह हो यज्ञ साम्रगी का, अश्व भी छोड़ें यज्ञ सम्बन्धी
सरयू तट पर बने यज्ञ भूमि, पूर्ण करो तुम इच्छा अपनी

कथन सुना जब यह राजा ने, हो संतुष्ट कहा मंत्रियों से
गुरुजनों की पूर्ण हो आज्ञा, विघ्न न आये इस यज्ञ में

Saturday, August 18, 2012

राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 



सप्तमः सर्गः
राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन 



मंत्रणा को गुप्त रखते थे, सूक्ष्म विषय का करें विचार
नीति शास्त्र का ज्ञान था उनको, प्रिय वाणी करें व्यवहार

ऐसे थे गुणवान मंत्री, राजा जिन सँग शासन करते
गुप्तचरों के द्वारा दृष्टि, शत्रु राज्यों पर थे रखते

धर्मपूर्वक पालन करते, सदा अधर्म से दूर ही रहते
तीनों लोकों में प्रसिद्धि, उदार और सत्य प्रतिज्ञ थे

नहीं मिला था कोई शत्रु, जो उनसा या बड़ा हो उनसे
मित्र बहुत थे उनके लेकिन, चरणों में भी कई थे झुकते

दूर हुए थे कंटक सारे, राज्य के उनके प्रताप से
रह अयोध्या में वह राजा, इंद्र की भांति शासन करते

सभी मंत्री रत रहते थे, राज्य के हित साधन में ही
थे अनुरक्त नरेश के प्रति, कार्यकुशल व शक्तिशाली भी

सारे जगत को करे प्रकाशित, ज्यों सूर्य रश्मियों से शोभित
उसी प्रकार घिरे रहते थे, दशरथ मंत्रियों से सज्जित

इस प्रकार श्री वाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सातवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Friday, August 10, 2012

राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


सप्तमः सर्गः
राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन 


पूर्व परम्परागत ऋत्विज भी थे, काम मंत्री का जो करते  
विनयशील, सलज्ज, जितेन्द्रिय, सबके सब विद्वान बहुत थे

यशस्वी व महा पराक्रमी, कार्य कुशल, श्रीसम्पन्न थे
शस्त्रविद्या के ज्ञाता थे सब, क्षमाशील, तेजस्वी भी थे

सदा सजग राज कार्यों में, मुस्का कर बात करते थे
राजा की आज्ञा से चलते, सदा सत्य भाषण करते थे

अपने या शत्रु पक्ष के, राज भी उनसे छिपा नहीं थे
गुप्तचरों से पता लगाते, दूजे राजा क्या करते थे

सौहार्द की दी थी परीक्षा, वे सभी व्यवहारकुशल थे
मौका यदि ऐसा आ जाये, पुत्र को भी दंड देते थे

राजकोष का संचय करते, चतुरंगिणी सेना भी सजाते
शत्रु यदि अपराध न करे, कभी न उसकी हिंसा करते

सदा शौर्य, उत्साह था उनमें, राजनीति में थे पारंगत
सत्पुरुषों की रक्षा करते, धन अर्जन उनका न्यायोचित

ब्राह्मण व क्षत्रियों को कभी, कष्ट नहीं पहुंचाते वे थे
अपराधी के बलाबल पर, तीक्ष्ण या मृदु दंड देते थे

भाव शुद्ध, विचार एक थे, जानकारी कोसल की रखते
मिथ्यावादी, दुष्ट न कोई, कभी परस्त्रीगामी न पाते

राष्ट्र, नगर में छायी शांति, राजा के हितैषी थे वे
नीति रूप नेत्र से देखें, उत्तम व्रत का पालन करते

थे गुरुतुल्य, गुणों के कारण, राजा के अनुग्रह पात्र थे
सभी ओर ख्याति थी उनकी, देश विदेश में सभी जानते

गुणवान हर देश काल में, दैवी सम्पत्ति से युक्त थे
संधि, विग्रह का ज्ञान था, उपयोग व अवसर जानते


Monday, August 6, 2012

राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षष्टः सर्गः

राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या और वहाँ के नागरिकों की उत्तम स्थिति का वर्णन 


विन्ध्य और हिमाचल पर्वत, थे जिनके जन्म स्थान
बलशाली, मदमत्त गजों से, भरी हुई थी भूमि महान

ऐरावत कुल में थे उत्पन्न, महापद्म के वंशी भी थे
अंजन, वामन दिग्गजों से, प्रकटे गज पूर्णता देते

हिमालय के भद्र जाति के, विन्ध्य के मन्द्र जाति के
सह्य पर्वत के मृग जाति, सारे गज वहाँ रहते थे

इनके मेल से हुए जो संकर, पर्वताकार मदोन्मत हाथी
तीन योजन के विस्तार की, अयोध्या की उनसे शोभा थी

दो योजन भूमि ऐसी थी, युद्ध होना था जहाँ असंभव
अयोध्या यह नाम सार्थक, शासन करते थे नृप दशरथ

ज्यों शशि राजा नक्षत्रों का, महातेजस्वी राजा दशरथ
शत्रु कोई नहीं था उनका, अयोध्या था नाम सार्थक

द्वार व अर्गला दृढ़ थे, विचित्र गृहों से थी सुशोभित
भरी सहस्त्रों मनुष्यों से, इन्द्र्तुल्य राजा से शासित

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य बालकाण्ड में छठा सर्ग पूरा हुआ

सप्तमः सर्गः

राज मंत्रियों के गुण और नीतिका वर्णन

इक्ष्वाकुवंशी वीर राजा के, आठ मंत्री थे गुण सम्पन्न
मंत्र के तत्व को जानते, बिना कहे समझते थे मन

शुद्ध आचार-विचार से युक्त, करें प्रिय, हित राजा के
यशवान थे सभी मंत्री, राज-काज में सदा सलंग्न थे

धृष्टि, जयंत, विजय, सुराष्ट्र, राष्ट्रवर्धन, अकोप, धर्मपाल
सुमन्त्र आठवें का नाम था, सभी जानते थे अर्थशास्त्र

ऋषियों में श्रेष्ठतम वशिष्ठ, वामदेव भी दो ऋत्विज थे
सुयज्ञ, जाबालि, कश्यप, गौतम, मार्कण्डेय, कात्यायन भी थे  


Saturday, August 4, 2012

राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या और वहाँ के नागरिकों की उत्तम स्थिति का वर्णन


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


षष्टः सर्गः

राजा दशरथ के शासनकाल में अयोध्या और वहाँ के नागरिकों की उत्तम स्थिति का वर्णन 

कोई ऐसा नहीं वहाँ था, उत्तम वस्तु न रखता हो
धर्म आदि पुरुषार्थ भी जिसके, सिद्ध न हों, अभाव सहता हो

कामी, कृपण, मूर्ख न कोई, क्रूर और नास्तिक न थे
सभी स्त्री-पुरुष वहाँ के, धर्मशील, संयमी, खुश थे

ऋषियों जैसा शील था उनका, सद्आचरण निर्मल करते थे
सुदंर, स्वच्छ, लगाये चन्दन, कुंडल, मुकुट, हार धरते थे

धन-धान्य की कमी नहीं थी, बाजूबंद, निष्क, पहने थे
दानी, मन को वश में रखते, पवित्र अन्न ग्रहण करते थे

अग्निहोत्र यज्ञ सब करते, देव व अतिथि पूजक थे
क्षुद्र, चोर, आचार शून्य, ऐसे मानव वहाँ नहीं थे

अयोध्या के निवासी ब्राह्मण, सदा कर्म में रत रहते थे
दान और स्वाध्याय करते, प्रतिग्रह से बचे रहते थे

एक भी ऐसा द्विज नहीं था, हो नास्तिक या असत्यवादी
शास्त्र ज्ञान से रहित न कोई, परदोष दृष्टि न विद्या हीन ही

साधन में असमर्थ न कोई, वेदों को थे सभी जानते
व्रत शील, दानी प्रसन्न, रूपवान, सब श्रीमान थे

राजभक्ति भी भरी थी उनमें, दीर्घायु सब सुख से रहते
स्त्री, पुत्र, पौत्र के सँग वे, सत्य धर्म का पालन करते

क्षत्रिय, ब्राह्मण का मुँह जोहते, वैश्य, क्षत्रियों की मानें
तीनों वर्णों की सेवा में, कर्तव्य पालना शुद्र भी करें

जैसे मनु ने की थी रक्षा, अयोध्या पुरी की पूर्वकाल में
राजा दशरथ भी तत्पर थे, रक्षा करने सभी काल में

शौर्य की थी अधिकता जिनमें, दुर्धुर्ष जो अग्नि सम थे
रहित कपट से, अभिमानी भी, अस्त्र-शस्त्र के ज्ञाताओं से

भरी-पूरी थी पूर्ण अयोध्या, जैसे गुफा, सिंह समूह से
इंद्र के उच्चैःश्रवा समान, भरी हुई सुंदर अश्वों से

काम्बोज, बाह्लीक देश के, उत्तम वंश के घोड़ों से
वनायु देश के अश्व वहाँ थे, दरियाई भी सिंधु तट के