Thursday, April 28, 2022

जाबालि का नास्तिकों के मत का अवलम्बन करके श्रीराम को समझाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 अष्टाधिकशततम: सर्ग:

जाबालि का नास्तिकों के मत का अवलम्बन करके श्रीराम को समझाना


जब धर्मज्ञ श्रीराम भरत को, समझा बुझा रहे प्रेम से 

तब ब्राह्मण शिरोमणि जाबालि ने, धर्म विरुद्ध ये वचन कहे 


रघुनंदन आप बुद्धिमान हैं, अपढ़ जन सम विचार न करें

कौन यहाँ किसका बंधु है, जीव अकेला जन्मता व मरे 


कोई न माता-पिता किसी का, आसक्ति सब व्यर्थ है यहाँ 

दुनिया एक सराय जैसी, सज्जन न होते आसक्त जहाँ 


त्याग पिता का राज्य आपको, उचित नहीं है वन में रहना 

अयोध्या नगरी प्रतीक्षित, राज्य अभिषेक कराएं अपना


देवराज ज्यों स्वर्ग में रहते, वैसे ही विचरें आप भी 

पिता आपके कोई नहीं थे, नहीं जुड़ें उनसे आप भी 


पिता जन्म में निमित्त मात्र है, रज-वीर्य संयोग है कारण 

नहीं हैं राजा अब दुनिया में, दुःख उठाते आप किस कारण 


प्राप्त हुए अर्थ का जो नर, धर्म के नाम पर त्याग कर गए 

उनके लिए अति शोक मुझे है, व्यर्थ ही मृत्यु को प्राप्त हुए 


अष्टका आदि जो श्राद्ध हैं, उनके देव पितर कहलाते 

किन्तु विचार यदि हम देखें, इसमें अन्न का नाश ही करते  


एक का खाया कहाँ लग सकता, भला दूसरे की देह में 

ऐसा नहीं संभव हो सकता, मृत मनुष्य पा सकते कैसे 


यदि कहीं ऐसा होता तो, यात्रियों का श्राद्ध कर देते 

उन्हें स्वयं ही मिल जाता फिर, मार्ग के लिए पथ्य न देते 


देवों के हित यज्ञ व पूजा, तप करने हित बनो सन्यासी 

यह बातें ग्रन्थों में लिखीं हैं, ज्ञानियों ने दान की खातिर 


इस लोक के सिवा दूसरा, लोक नहीं कोई इसको जानें 

राज्य लाभ का लेकर आश्रय, पारलौकिक को नहीं मानें 


सत्पुरुषों की बुद्धि जगत में, राह दिखाती प्रमाण भूत है 

मान कर अनुरोध भरत का, ग्रहण करें राज्य आप सुख से 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ आठवाँ सर्ग पूरा हुआ.

  


2 comments:

  1. अरे वाह ...आपने पढ़ ली श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण ...बहुत सुंदर

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  2. स्वागत व आभार अलकनंदा जी !

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