Monday, April 22, 2019

भरत का श्रीराम को ही राज्य का अधिकारी बताना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


एकोनाशीतितमः सर्गः

मंत्री आदि का भरत से राज्य ग्रहण करने के लिए प्रस्ताव तथा भरत का अभिषेक-सामग्री की परिक्रमा करके श्रीराम को ही राज्य का अधिकारी बताकर उन्हें लौटा लाने के लिए चलने के निमित्त व्यवस्था करने की सबको आज्ञा देना

तत्पश्चात चौदहवें दिन, राजाधिकारी भरत से बोले
महाराज अब स्वर्गलोक गये, जो हमारे श्रेष्ठ गुरु थे

कोई नहीं राज्य का स्वामी, आप हमारे अब राजा हों 
स्वयं आपको राज्य दिया, वनवास दिया बड़े भाई को

अतः आपका राजा होना, पूरी तरह न्याय संगत है
इसे निज अधिकार में लेना, नहीं आपका अपराध है

मंत्री, स्वजन, पुरवासी भी,  सब तैयार हैं सामग्री ले
अभिषेक हेतु तत्पर होकर, राज्य राजा का ग्रहण करें

यह सुनकर उत्तम व्रतधारी, उठे भरत यह सबसे बोले
ऐसी बात नहीं कहनी थी, आप सभी तो बुद्धिमान हैं 

ज्येष्ठ पुत्र ही अधिकारी है, इस कुल की रीति यही कहती 
श्रीराम ही होंगे राजा, हर दृष्टि से ऐसा है सही

चौदह वर्षों तक वन में अब, मैं जाकर निवास करूँगा
सेना सबल तैयार करें, वन से उन्हें लौटा लाऊँँगा

अभिषेक हित इस सामग्री से, राजतिलक राम का होगा
यज्ञ से लायी जाती जो, उस अग्नि सम उन्हें लाऊंगा

मातृभाव अब शेष रहा है, कैकेयी में लेशमात्र ही
राजा होंगे राम, मैं नहीं,  इच्छा उसकी पूर्ण न होगी

कारीगर जाकर मार्ग बनाएं, भूमि को समतल कर दें
दुर्गम स्थानों के ज्ञाता हैं, रक्षकगण भी कुछ साथ चलें

राजकुमार भरत के मुख से, श्रीराम हित सुनी ये बातें
वहाँ उपस्थित लोगों ने तब, सुंदर वचन कहे ये उनसे

रहें आपके निकट लक्ष्मी, ऐसे उत्तम वचन जो कहे
श्रीराम को स्वयं ही राज्य, लौटा देना आप चाहते

आशीर्वचन जब पड़ा कर्ण में, अति प्रसन्न हुए भरत थे
उनकी ओर देख मुखड़े पर, लगे हर्षजनित अश्रु बरसने

राम को लौटा लाने वाली, सुनी बात सभी हुए सुखी
सुख से भर भरत से बोले, सभा सदस्य, मंत्री, कर्मचारी

राज्य प्रति जिनमें भक्ति भाव है, ऐसे कारीगर व रक्षक
आज्ञानुसार आपकी गये हैं, राह ठीक करने वन तक

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में उनासीवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


Thursday, April 4, 2019

भरतजी के कहने से शत्रुघ्न का मंथरा को मूर्छित अवस्था में छोड़ देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


अष्ट सप्ततितमः सर्गः


शत्रुघ्न का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी  के कहने से उसे मूर्छित अवस्था में छोड़ देना 


शत्रुओं का दमन जो करते, उस शत्रुघ्न ने भर रोष में
कुब्जा को भूमि पर घसीटा, चिल्लायी वह बड़े जोर से

मंथरा जब घसीटी जाती, सब आभूषण टूट रहे थे
नाना तरह के वे आयोजन, पृथ्वी पर बिखर जाते थे

आभूषण के उन टुकड़ों से, राजमहल शोभित होता था
शरद काल का अम्बर जैसे, हो तारागण से सजा हुआ

तत्क्षण कैकेयी ने आकर, मंथरा को छुड़ाना चाहा
कह कठोर बातें उसको भी, भर क्रोध में उसे धिक्कारा

कैकेयी को हुई अति पीड़ा, सुनकर दुखदायी वचन वे
शत्रुघ्न के भय से थर्रा, गयी तब भरत की वह शरण में

क्षमा करो ! स्त्रियाँ अवध्य हैं, यह कहा भरत ने शत्रुघ्न को
भय अति राम की घृणा का, मातृघाती समझेंगे मुझको

कुब्जा के भी मर जाने का, समाचार मिलेगा यदि उन्हें
त्याग देंगे बोलना निश्चय, हो दुखी वे हम दोनों से

बात सुनी जब भाई भरत की, छोड़ दिया मंथरा को तब
गिर कैकेयी के चरणों में, करने लगी विलाप करुण तब

आर्त और अचेत हुई सी, कुब्जा को देख कर कैकेयी
धीरे-धीरे आश्वासन दे,  होश में उसे लाने लगी

पिजरें में बंधी क्रौंची सी, कातर दृष्टि से देख रही 
कैकेयी की वह अनुचरी, थी शत्रुघ्न से अति डरी हुई

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.