Monday, May 30, 2011

भगवदगीता का भावानुवाद


द्वितीय अध्याय
(सांख्य योग )
कृष्ण कह उठे तब अर्जुन से, मोह ग्रस्त तू क्यों होता है ?
ऐसा विकट काल आया है, हे पार्थ ! तू क्यों रोता है ?

है मोह सदा ही दुखदायी, अपकीर्ति बढ़ाने वाला 
तज कायरता और मूढ़ता, है मोह गिराने वाला

किन्तु मोह अर्जुन का भारी, सीख अनसुनी कर दी
कहा न शस्त्र उठाऊंगा मैं, भीख मांग कर लूँगा जी

मैं निहत्था ही खड़ा रहूँगा, वार झेलने सब उनके
राज्य सुख के लोभ में आकर, हरने चला प्राण जिनके

 भ्रमित हो गया है मन मेरा, धर्म-अधर्म नहीं सूझता
हे केशव ! राह दिखाओ, बुद्धि को कुछ नहीं बूझता

कृष्ण देख हालत अर्जुन की, मन ही मन कुछ मुस्काए
शोक अविद्या के कारण है, आत्म ज्ञान ही हर पाए

 शांत भाव ले उर में बोले, सदा से हैं हम सदा रहेंगे
ये राजा, ये सारी सेना, बार बार यहाँ जन्मेंगे

न जीवित ही न मृत प्राणी, शोक का कारण बन सकते
जिन्हें आत्मा का ज्ञान है, वे न कभी चिंतित होते

जीवन-मृत्यू भ्रम हैं दोनों, मरता नहीं है कभी आत्मा
देह बदलता है जीव पर, सदा शाश्वत है आत्मा

जैसे कोई वस्त्र बदलता, देही देह बदल लेता है
जीर्ण-शीर्ण तन तज के प्राणी, नूतन तन धर लेता है

असत की सत्ता ही न मानो, सत का तो अभाव नहीं
व्याप रही जो सत आत्मा, असत तन में नाश नहीं

है अजन्मा, अविनाशी यह. नित्य शाश्वत सदा आत्मा
नाश देह का, पर रहता है, सदा अमर यह मुक्त आत्मा

शस्त्र काट न सकें रूह को, जला नहीं सकती अग्नि
पवन सुखा न पाए इसको, जल से भीग नहीं सकती 

मन-इन्द्रियां, सुख-दुःख पाते, सहना सीख समान भाव से  
कितने ही हों, हैं अनित्य ये, अविनाशी तू आत्मभाव से

जनम से पहले कहाँ छिपा था, बाद मृत्यु के कहाँ रहेगा
मध्य काल में ही गोचर जो, कौन उसे फिर सत्य कहेगा

मृत्यु हुई तो स्वर्ग मिलेगा, विजय हुई राज्य सुख पाए
कायर बन यदि युद्ध से भागा, अपकीर्ति ही हाथ में आये

क्रमशः

Friday, May 27, 2011

भगवदगीता का भावानुवाद


श्रीमद्भगवद्गीता
प्रथम अध्याय
(अर्जुनविषादयोग)
जब कौरव-पांडव चले युद्ध को, धृतराष्ट्र संजय से बोले
 कुरुक्षेत्र उस धर्मक्षेत्र में, क्या किया फिर उन दोनों ने

संजय ने वार्ता बढ़ाई
दिव्य दृष्टि थी उसने पायी,
दुर्योधन, द्रोण से बोला  
वीरों की संख्या गिनाई !

भीष्म हमारे रक्षक वीर, भीम शत्रुओं के नेता हैं
ग्यारह अक्षौहिणी निज सेना, मात्र सात विपक्ष में हैं

शंख बजे, बजे नगाड़े
रणभेरी सुन सब थर्राए,
हुआ भयंकर नाद जब
गोमुख व दमामे बजाए !

श्रीकृष्ण का रथ अद्भुत, मणियों से खंचित है
मेघों की आवाज करे, श्वेत अश्व सज्जित हैं

सुंदर ग्रीवा कर्ण लाल हैं
पैरों में स्वर्ण नुपुर,
बजा रहे निज शंख अनोखा
कृष्ण विराजे रथ ऊपर !

‘पांचजन्य’ शंख कृष्ण का, ‘देवदत्त’ वीर अर्जुन का,
भीमसेन का ‘पौण्ड्र’ कहाए, ‘अनंतविजय’ धर्मराज का !

अर्जुन बोला तब केशव से,
मध्य में ले चलो मुझे,
कौन-कौन हैं जरा देख लूँ
 प्राणों का भय नहीं जिन्हें !

कृष्ण हांकते रथ हौले से, ले आये ठीक मध्य में
भीष्म पितामह, गुरु द्रोण, प्रिय अति, मातुल दिखे

था अति कोमल उर अर्जुन का,
कांप उठा जो लख अपनों को,
बहा स्वेद, अंतर अकुलाया,
बोला उसने तब केशव को !

नहीं चाहिए राज्य मुझे, विजय भी नहीं चाहता हूँ,
परिजनों का करके वध मैं, स्वर्ग भी नहीं मांगता हूँ

माना ये दोषी हैं हमारे
दुःख दारुण बहुत दिये हैं,
माना पाप किया इन्होंने,
कष्ट हमने बहुत सहे हैं !

लेकिन ये अपने हैं फिर भी, क्यों पाप कमाऊँ इन्हें मार
तज कर धनुष-बाण अर्जुन, जा बैठा पीछे रथ में हार ! 


अनिता निहालानी
२७ २०११







Wednesday, May 25, 2011

ईश्वर की प्रतिकृति


ईश्वर की प्रतिकृति

हर इंसान के भीतर कैद है
उसकी सही पहचान
बाहर मुखौटे लगाये घूमता है
चेहरा बदल-बदल देखता है !

कई बार माँगे हुए चेहरे, लगाये हुए मुखौटे
हो जाते हैं तार-तार...
वह बेचेहरा होकर तडपता है....

फिर एक नया मुखौटा तलाशा जाता है
दम तोड़ चुकी होती है
अपने भीतर झांक कर देखने की
ख्वाहिश...
जिए चला जाता है वह उधार की जिंदगी !

कुछ चेहरे उसे परिवार देता है
 कुछ थमा देता समाज
कुछ अपनी सुविधा के लिये जुटा लेता...
और इस तरह ईश्वर की प्रतिकृति यह मानव
ईश्वर से विपरीत दिशा में चलने लगता है...

अनिता निहालानी
२५ मई २०११  

Monday, May 23, 2011

वह कौन है


वह कौन है

कहीं भीतर कोई सोता फूट पड़ा हो जैसे
भाव ऐसे छलकाने लगता है मन
सब कुछ अच्छा, बेहद अच्छा लगने लगता है...

आँखें एक पल के लिये नम हो जातीं,
बिखर जाती होठों पर सतरंगी मुस्कान

वह कौन है अंदर जिसको छू जाता है प्यार
छू जाती है ओस की ठंडक
रातों की चाँदनी और सुबह की धूप
इतनी शिद्दत से कि पोर-पोर सिहर उठता है..

वह कौन है जो आँसू देखकर खुद आँसू बहाने लगता है
और बिखेर देता है हँसी दूसरों के सुख में
क्या वहीं कहीं ईश्वर का बसेरा है
जो निर्विकार रहता है, किन्तु कभी कहीं भीतर कोई ....

अनिता निहालानी
२३ मई २०११ 

Saturday, May 21, 2011

यही सिलसिला है


यही सिलसिला है

किसी शाम हँस कर, कहा गुलमोहर ने
ली अम्बर से लाली, औ खुशबू जमीं से

हवा ने संवारा, खिलाया किरण ने
दी बदली ने ठंडक, खुशी जिंदगी ने

ये खुशबू ये रंगत, हैं जग के लिये
धरती, पवन और गगन के लिये

ये तोहफे जो कुदरत ने, सौंपे मुझे
हैं उसकी अमानत, चमन के लिये

कुछ अपना नहीं, सब जहाँ से मिला है
लौटना यहीं है यही सिलसिला है !

अनिता निहालानी
२१ मई २०११ 

Thursday, May 19, 2011

एक असीम गीत भीतर है


एक असीम गीत भीतर है


निर्मल जैसे शुभ्र हिमालय
स्वयं अनंत है व्यक्त न होता
यही उहापोह मन को डसता !

एक असीम गीत भीतर है
गूंज रहा जो प्रकट न होता
यही उहापोह मन को खलता !

खिल न पाता हृदय कुसुम तो
कलिका बनकर भीतर घुटता
 यही उहापोह मन में बसता !

सुरभि निखालिस कैद है जिसकी
ज्योति अलौकिक कोई ढकता 
यही उहापोह लिये तरसता !

सबके उर की यही कहानी
कह न पाए कितना कहता
 देख उहापोह मन है हँसता !

अनिता निहालानी
२० मई २०११






Wednesday, May 18, 2011

इस वर्ष


इस वर्ष

हवा की छुवन, सोंधी महक माटी की
और इस जग की जितनी भी प्यारी सौगातें है

इस जन्मदिन पर इन्हें
ईश्वर का उपहार मान कर देखो !

प्यार, जो नसों में रक्त के साथ बहता है
हँसी, जो शिराओं में हर उस वक्त घुली रहती है
जब मन साफ धुला होता है

प्यार, हँसी और इस जग की
जितनी भी अनमोल सौगातें है

इस वर्ष इन्हें
त्योहार मान कर देखो !

अनिता निहालानी
१८ मई २०११ 

Monday, May 16, 2011

इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले


इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले

घर खाली देख चला आये
उसे निरालापन भाता है,
सदा भीड़ में रहे अकेला
एक में सब समा जाता है !

तब कहाँ गयी पीड़ा उर की
जब कोई खुद में ठहर गया,
 आस रही न कोई निराशा
विषाद न जाने कहाँ गया !

ना ज्वार रहा ना ही भाटा
इक रसता भीतर व्याप रही,
इक मद्धिम-मद्धिम आंच जले
सम रसता ही तब शेष रही !

अनिता निहालानी
१६ मई २०११

   


Sunday, May 15, 2011

श्रद्धा सुमन





श्रद्धा सुमन

दीप जला श्रद्धा का मन में
जिस क्षण हमने तुम्हें निहारा,
भाव उठा समर्पण का तब
जब से तुमने हमें पुकारा !

उठी प्रार्थना गहरे तल से
पल में जा पहुंची जो तुम तक,
डोर बंधी है एक अगोचर  
भेज रहे संदेशे हम तक !

ज्ञान की ज्योति जलाते भीतर
दुःख अग्नि पर जल बरसाते,
खुशियों की बरसात बन सदा
अंतर आंगन को महकाते !

हम सा बन के रहते हम में
खुद में स्वयं बन के रहते,
उस अदृश्य, अगम रब से मिल
सहज स्नेह ही बांटा करते !

जग सीमित पर वह अनंत है
सत्य एक है सदा अटल,
मायाधीश बड़ा माया से
निरंकार, निर्भय, निर्मल !

प्रेम तत्व से बना ईश्वर
उससे एक हुए तुम रहते,
हमें बुलाते अपने घर में
‘मुक्त हो रहो’ इतना कहते !

‘ध्यान समाधि’ से उस घर के
रस्ते से पहचान बना लो,
फिर जब चाहे जा सकते हो
जरा हृदय में उसे बसा लो !

दिल के इतने हो करीब तुम
तुमसे कुछ भी नहीं छुपा है,
हम जो भी हैं जैसे भी हैं
सदा प्रेम से हमें भरा है !
   
हो आनंद के इक निर्झर तुम
भिगो रहे निज शीतलता में,
दिव्य चेतना की हो मूरत
जगा रहे हो हमें ज्ञान में !

उसी ज्ञान में भस्म हो रहे
संस्कार अशुभ कर्मों के,
द्वन्द्वों से पूर्ण है यह जग
परे आत्मा सब धर्मों से !

सहज रहें, संघर्ष भी करें
द्वन्द्वों का हम करें सामना,
तेरी नजरों से जब देखें
सहयोग की बढ़े भावना !

हर पल तुम हो साथ हमारे
इससे बड़ा न कोई आश्रय,
घर जा पहुँचे तुमसे मिलकर
मिटी ग्लानि और सारे संशय !

अनिता निहालानी
१५ मई  २०११ 

Monday, May 9, 2011

शहंशाहों की रीत निराली



शहंशाहों की रीत निराली

मंदिर और शिवाले छाने
कहाँ-कहाँ नहीं तुझे पुकारा,
चढ़ी चढ़ाई, स्वेद बहाया
मिला न किन्तु कोई किनारा !

व्रती रहे, उपवास भी किये
अनुष्ठान, प्रवास अनेकों,
योग, ध्यान, साधना साधी
माला, जप, विश्वास अनेकों !

श्राद्ध, दान, स्नान पुण्य हित
किया सभी कुछ तुझे मान के,
सेवा के बदले तू मिलता
झेले दुःख भी यही ठान के !

किन्तु रहा तू दूर ही सदा
अलख, अगाध, अगम, अगोचर
भीतर का सूनापन बोझिल
ले जाता था कहीं डुबोकर !

तभी अचानक स्मृति आयी
सदगुरु की दी सीख सुनाई,
कृत्य के बदले जो भी मिलता
कीमत उससे कम ही रखता !

जो मिल जाये अपने बल से
मूल्य कहाँ उसका कुछ होगा ?
कृत्य बड़ा होगा उस रब से
पाकर उसको भी क्या होगा ?

कृपा से ही मिलता वह प्यारा
सदा बरसती निर्मल धारा,
चाहने वाला जब हट जाये
तत्क्षण बरसे प्रीत फुहारा !

वह तो हर पल आना चाहे
कोई मिले न जिसे सराहे,
आकाक्षाँ चहुँ ओर भरी है
किससे अपनी प्रीत निबाहे !

इच्छाओं से हों जब खाली
तभी समाएगा वनमाली,
स्वयं से स्वयं ही मिल सकता
शहंशाहों की रीत निराली !

अनिता निहालानी
९ मई २०११