Friday, February 21, 2014

राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमा शीलता की प्रंशसा

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

त्रयसि्ंत्रशः सर्गः

राजा कुशनाभ द्वारा कन्याओं के धैर्य एवं क्षमा शीलता की प्रंशसा, ब्रह्मदत्त की उत्पत्ति तथा उनके साथ कुशनाभ की कन्याओं का विवाह

सुन राजा कुशनाभ का वचन, कन्याओं ने कहा प्रणाम कर
धर्म पर दृष्टि नहीं थी उनकी, संचारी सर्वत्र वायु देव

उनसे हमने यही कहा था, देव ! हो कल्याण आपका
पिता हमारे विद्यमान हैं, उनसे कह करें वरण हमारा

किन्तु न मानी बात उन्होंने, मन पाप से बंधा हुआ था
धर्मयुक्त थी बात हमारी, फिर भी हमको दी है पीड़ा

राजा ने जब बात सुनी यह, उतम कन्याओं को बोले
उत्तम कार्य किया है तुमने, क्षमा महापुरुष ही करते

स्त्री हो या पुरुष सभी का, आभूषण है क्षमा का गुण
कुल की मर्यादा का पालन, कामभाव से मुक्त रही तुम

देवों के लिए भी दुष्कर, तुम सब में है वही सहिष्णुता
क्षमा दान है, सत्य भी है वह, यज्ञ, यश और धर्म क्षमा

तब देवतुल्य कुशनाभ ने, दी आज्ञा भीतर जाने की

किया विचार मंत्रियों के संग, चर्चा की उनके विवाह की 

Tuesday, February 18, 2014

कुशनाभ की सौ कन्याओं का वायु के कोप से ‘कुब्जा’ होना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

द्वात्रिंशः सर्गः
ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन, शोण भद्र-तटवर्ती प्रदेश को वसु की भूमि बताना, कुशनाभ की  सौ कन्याओं का वायु के कोप से ‘कुब्जा’ होना 

वायुदेव किया करते हैं, कर्म महान कई अनायास ही
कथन सुना जब उनका, हँसकर, सौ कन्याएं तब बोलीं

प्राणवायु के रूप में प्रतिपल, सुरश्रेष्ठ हे ! आप विचरते  
अनुपम अति प्रभाव आपका, हम सब भली भांति जानते

ऐसी दशा में क्यों करते, यह अनुचित प्रस्ताव आप यह
होता इससे अपमान हमारा, देख नहीं पाते क्यों यह

कुशनाभ की कन्याएं हम, शाप आपको दे सकती  
नहीं करेंगी किन्तु ऐसा, निज तप को बचा रखतीं

ऐसा समय कभी न आये, अवहेलना पिता की करके
कामवश या कभी अधर्म से, स्वयं ही वर अपना ढूँढें

हम पर है प्रभुत्व पिता का, वे ही हैं देवता हमारे
वही पति हमारा होगा, जिसके हाथ हमें सौपेंगे

कुपित हुए तब वायुदेवता, प्रविष्ट हुए उनके भीतर
सब अंगों को टेढ़ा करने, कुबड़ी हुईं देह मुड़ने पर

अति लज्जित व उद्ग्विन हुईं वे, आँखों से आश्रू बहते  
राजमहल में किया प्रवेश जब, राजा देख उन्हें घबराए

किसने की अवहेलना धर्म की ?, किसने तुम्हें बनाया ऐसा ?
 क्यों चुप हो तुम, तड़प रही हो, दीर्घ श्वास ले बैठे राजा  


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में बत्तीसवां सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, February 12, 2014

ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

द्वात्रिंशः सर्गः
ब्रह्मपुत्र कुश के चार पुत्रों का वर्णन, शोण भद्र-तटवर्ती प्रदेश को वसु की भूमि बताना, कुशनाभ की  सौ कन्याओं का वायु के कोप से ‘कुब्जा’ होना

कहा मुनि ने, हे श्री राम, महातपस्वी इक राजा थे
ब्रह्मा के पुत्र साक्षात, पूर्वकाल में कुश नाम के

हर संकल्प पूर्ण होता था, उनका बिना किसी बाधा के
सत्पुरुषों का करते आदर, धर्म के ज्ञाता व महान थे

उतम कुल वाली पत्नी से, जो थी विदर्भ की राजकुमारी
चार पुत्र पाए राजा ने,  थे सभी महान बड़े उत्साही

कुशाम्ब, कुशनाभ, असूर्त-रजस, व वसु नाम उन चारों के थे
राजा कुश प्रजा रक्षक थे, पुत्र सभी सत्यवादी थे

पिता ने आज्ञा दी पुत्रों को, पालन प्रजा का करें सभी
पृथक नगर बनवाये सबने, प्रथम पुत्र का था ‘कौशाम्बी’

कुशनाभ का नगर ‘महोदय’, ‘धर्मारण्य’ असूर्त-रजस का
‘वसुमती’ के नाम से प्रचलित, नगरव्रज था राजा वसु का

पांच श्रेष्ठ पर्वत भी सुशोभित, वसुमती के थे चारों ओर
सुंदर सोन नदी आयी है, दक्षिण-पश्चिम से यहाँ बहकर

‘सुमागधी’ नाम से सोन, मगध देश में जानी जाती
पांच पर्वतों के मध्य यह, माला की भांति है लगती

सुंदर उपजाऊ खेत हैं, दोनों तट पर सोन नदी के
पूर्वोत्तर की ओर यह बहती, शोभित हरी—भरी खेती से

घृताची अप्सरा के द्वारा, राजर्षि कुशनाभ ने
सौ कन्याएं भी पाई थीं, सब की सब सुंदर थीं वे

एक दिन सुसज्जित होकर, नृत्य-गीत में डूबी थीं वे
उत्तम गुणों से थीं सम्पन्न, देख उन्हें कहा वायु देव ने

सुन्दरियों, मैं तुम्हें चाहता, बनो सभी मेरी भार्याएँ
त्याग करो मनुष्य भाव का, दीर्घ आयु पाओगी इससे

युवावस्था नहीं है स्थिर, मानव देह में क्षीण जो होती
मुझसे जुड़ अमर हो जाओ, अक्षय यौवन प्राप्त करोगी