Tuesday, March 20, 2012

नमस्कार


प्रिय ब्लॉगर साथियों, मैं कुछ दिनों के लिये यात्रा पर जा रही हूँ, अतः आपके ब्लॉग पर मैं नियमित उपस्थित नहीं हो सकूंगी, मेरी भी नियमित पोस्ट संभव नहीं हो सकेगी, मेरा अनुरोध है कि आप मेरी पुरानी पोस्ट जो आपकी नजर में नहीं आयी हों, उन्हें पढ़ें, अनंत आपके जीवन में जगमगाए इसी शुभकामना के साथ...
 आपकी अपनी ब्लॉगर मित्र अनिता 

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
प्रथमः सर्गः
नारद जी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप से श्रीरामचरित्र सुनाना 


हृदय उदार, विचार शुभ रखते, लोक प्रिय और वाकपटु हैं
प्रियदर्शन, सम भाव युक्त, सागर से गम्भीर पुरुष हैं  

माँ कौशल्या को सुख देते, विष्णु के समान बलवान
धैर्य हिमालय सा दृढ़ रखते, क्षमा धरा सी, त्याग महान

धर्मराज सम सत्य है उनमें, क्रोध काल अग्नि सा भीषण
उत्तम गुण से सम्पन्न राम, दशरथ के दरबार के भूषण

जैसे नदियाँ सिंधु में गिरतीं, राम से साधु जन मिलते हैं
सत्य, पराक्रम शाली, प्रतिभा सम्पन्न हो खिलते हैं

प्रजा के हित में संलग्न थे, राजा दशरथ ने सोचा
ज्येष्ठ पुत्र को राज्य मिले, प्रजा वर्ग का हित होगा

कैकेयी ने वर के बल से, जो था पहले से उसके पास  
राज्य दिया पुत्र भरत को, राम को चौदह वर्ष वनवास


Saturday, March 17, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः 

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम्
प्रथमः सर्गः
नारद जी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप से श्रीरामचरित्र सुनाना 



त्रिलोकी के ज्ञाता नारद, वाल्मीकि से सादर बोले
इक्ष्वाकु के वंश में राम, युक्त पुरुष हैं सभी गुणों से

बुद्धिमान, महाबलवान, जितेन्द्रिय व धैर्यवान हैं
नीतिज्ञ, वक्ता अद्भुत वह, शत्रु संहारक भी हैं

आजानुभुज, चौड़े स्कंध, शंख समान है ग्रीवा उनकी
ठोड़ी मांसल, वक्ष विशाल, भव्य ललाट, हैं बड़े प्रतापी

कद मध्यम, तन सुडौल है, नयन बड़े शोभायमान हैं
धर्म के ज्ञाता, ज्ञानी, पावन, श्री सम्पन्न प्रजा पालक हैं

स्वधर्म, स्वजनों के पालक, वेद वेदांगों के तत्ववेत्ता
धनुर्वेद में बड़े प्रवीण, अखिल शास्त्रों के वह ज्ञाता

Friday, March 16, 2012

श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्

बालकाण्डम्
प्रथमः सर्गः
नारद जी का वाल्मीकि मुनि को संक्षेप से श्रीरामचरित्र सुनाना

तप व स्वाध्याय में रत थे, नारद मुनि श्रेष्ठ मुनियों में
उनसे पूछा प्रश्न अनोखा, वाल्मीकि तपस्वी जी ने

कौन है इस युग में मुनिवर, गुणवान और वीर पुरुष
दृढ़ प्रतिज्ञ, सत्यवक्ता, धर्मज्ञ और प्रियदर्शन

अक्रोधी, कान्तिमान, जिसका मन पर है अधिकार
हितसाधक हर इक प्राणी का, देव भी करते जिससे प्यार

हे मुनिवर यह आप कहें, आप बताने में हैं समर्थ
उत्सुक हूँ मैं मुझे बताएं, किसमें हैं यह गुण दुर्लभ

Wednesday, March 14, 2012

शिष्य विदा, अनुबंध चतुष्टय, ग्रंथ प्रशंसा

पिछले वर्ष अक्तूबर की २३ तारीख को मैंने यह श्रृखला आरम्भ की थी. आज १४ मार्च २०१२ को इसका अंतिम भाग प्रस्तुत कर रही हूँ. आप सभी का सहयोग मिला और यह कार्य सम्पन्न हुआ. आगे भी इसी तरह का कार्य करने की इच्छा है आपमें से कोई सुझाव दें तो स्वागत है.

 श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


उपसंहार
शिष्य विदा, अनुबंध चतुष्टय, ग्रंथ प्रशंसा

बंधन, मुक्ति हैं माया में, नहीं आत्मा में हो सकते
सर्प का होना या न होना, भ्रम है क्रिया हीन रज्जु में

बंधन है अज्ञान के कारण, दूर हुआ तो मुक्ति घटती
ब्रह्म को कैसे ढके आवरण, द्वैत नहीं मानती श्रुति

सूर्य को ढका हम कहते, चाहे मेघ ढके आँखों को
ब्रह्म को न ढक सकता कोई, बुद्धि के ही गुण हैं दोनों

ब्रह्म सदा एक अविनाशी, होना, न होना न उसमें
बुद्धि में ही भाव, अभाव, बंध, मोक्ष कल्पित माया में  

निर्मल, शांत, निरंजन, है वह, नभ जैसा विस्तीर्ण विशाल
निरवयव, निष्क्रिय ब्रह्म में, कैसे हो कल्पना जाल

नहीं नाश होता है उसका, ना मृत्यु ही संभव है
न कोई साधक न मुमुक्षु, सदा आत्मा मुक्त ही है

दोष रहित, हे तृष्णा शून्य, तुझे पुत्र समान ही जान
गुह्य ज्ञान कहा है मैंने, सकल शास्त्र का अनुपम सार

शिष्य की विदा

किया शिष्य ने नमन गुरु को, मुक्त हुआ किया प्रस्थान
आनंद मग्न हुए गुरुवर भी, धरती पर फिर करें विहान

आत्मज्ञान का यह निरूपण, कहा गया साधक के हित में
बोध करें सुगमता से वह, पढ़ संवाद गुरु-शिष्य में

शास्त्र श्रवण से हुए शुद्ध जो, शांत चित्त, मुमुक्षु जन
 हितकारी उपदेश को पढ़कर, करें ज्ञान का समुचित आदर

जग के पथ में दाह बहुत है, हैं दुःख रूपी सूर्य की किरणें
जल की इच्छा से भ्रमते हैं, मरुथल में जन थके-थके से

अति निकट ही ब्रह्म सिंधु है, जिसमें भरा है अमृत सा जल
शंकराचार्य की मोक्ष प्रदायिनी, वाणी देती है अद्भुत फल   

इति

Monday, March 12, 2012

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)

नट जैसे पुरुष ही रहता, स्वांग करे या रहे अयुक्त
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म ही है, उपाधि युक्त हो या हो मुक्त

जहाँ-तहाँ ज्यों पत्र गिरे हों, सूखे हुए किसी वृक्ष के
उसका तन भी दग्ध हुआ है, चाहे गिरे किसी स्थल पे

वृक्ष का सूखा पत्ता चाहे, कहीं भी गिरे न पड़ता अंतर
नाली, नदी, शिवालय में या, गिरे किसी चबूतरे पर

सत्स्वरूप में हुआ वह स्थित, देह भाव से मुक्त हुआ वह  
कहीं भी त्यागे देह, न अंतर,  देशकाल न देखे वह

हृदय की अविद्या ग्रंथि, जिसकी नष्ट हुई वह मुक्त
देह त्याग नहीं है मोक्ष, रहता वह आनंद से युक्त

वृक्ष के पत्ते, पुष्प, डाल सम, मन, बुद्धि, इन्द्रियाँ मिटते
आनंद रूप आत्मा अमर है, उसे न देखा किसी ने मरते

आत्मा का लक्षण प्रज्ञानघन, उसकी सत्यता को बतलाता
अविनाशी है यह आत्मा, उपाधि का ही नाश है होता

जैसे अन्न अग्नि बन जाता, जब अग्नि में उसे डालते
देह आदि भी ज्ञानाग्नि में, भस्म हुए परम हो जाते

सूर्य उदित होने पर जैसे, अंधकार का नाश हो जाता
ज्ञान हुए से दृश्य प्रपंच, ब्रह्म में ही लीन हो जाता

घट के नाश हुए से जैसे, घटाकाश, महाकाश बनता
लय होता जब उपाधि का, ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म हो जाता

एक हुआ दूध मिल दूध, तेल, तेल से मिलकर एक
आत्मा में मिल ज्ञानी आत्मा, जल, जल से मिलकर हो एक

एक अखंड सत्ता शेष हो, वही विदेह-कैवल्य कहलाता
ब्रह्म भाव को प्राप्त हुआ जो, भव बंधन से मुक्त हो जाता

ब्रह्म-आत्मा के ऐक्य से, दग्ध हुए अज्ञान, अविद्या
ब्रह्मवेत्ता ब्रह्म हुआ फिर, जन्म न फिर होता है उसका 

Monday, March 5, 2012

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)

श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)
चैतन्य ही वस्त्र है उसका, सहज हुआ डोला करता
सर्वात्म भाव से हो स्थित, आत्मतुष्ट रहा करता

कहीं मूढ़, कहीं विद्वान, कहीं ठाठबाट से रहता
कहीं भ्रांत, कहीं शांत, निश्चल कहीं पड़ा रहता

सम्मानित हो या अपमानित, उसे भेद न पड़ता कोई
कहीं ज्ञात कहीं अज्ञात, सदा संतुष्ट रहे ज्ञानी

नित्य तृप्त, महा बलवान, समदर्शी ही वह कहलाता
सब कुछ करता हुआ अकर्ता, फल भोगे पर रहे अभोक्ता

देह होने पर हुआ विदेही, सर्वव्यापी होकर परिछिन्न
प्रिय अप्रिय नहीं है कोई, शुभ अशुभ न कोई दिन

देह अभिमानी को ही छूते, सुख-दुःख अथवा शुभ-अशुभ
देह पृथक है जो यह जाने, उसे न छूता कोई फल

तथ्य नहीं जानते जो जन, रवि को राहू ग्रस्त मानते
देह से परे हुए ज्ञानी को, अज्ञानी जन नहीं जानते

मुक्त पुरुष का देह आभासी, जैसे केंचुल सर्प की होती
प्राण वायु से हो संचालित, उसमें आसक्ति नहीं रहती

फल की वह चिंता न करता, आत्मस्वरूप में स्थित रहता
श्रेष्ठ ब्रह्मवेत्ताओं में वह, शिव स्वरूप ही कहलाता

नहीं अभाव है उसको कोई, न ही ज्ञान शून्य सुप्त सम
जीवित है तो मुक्त सदा है, मर कर ब्रह्म में होता लीन





Thursday, March 1, 2012

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

उपदेश का उपसंहार (शेष भाग)

चलते-फिरते, उठते-बैठते, सोते-जागते रहे स्वयं में
आत्मा में ही रमा करे वह, चाहे हो किसी दशा में

जिसने आत्मस्वरूप को जाना, आत्मतत्व की सिद्धि करता
देश काल से परे हुआ वह, नियम, लक्ष्य सब कुछ ही तजता

‘यह घट है’ इसको जो जाने, किस नियम की उसे अपेक्षा
मैं ब्रह्म हूँ, इस ज्ञान को, ज्ञानी जन स्वयं ही कहता

जगत प्रकाशित है सूर्य से, असत् पदार्थ भासते सत् से
उस सत् को कौन प्रकाशे, सत् प्रकाशित होता स्वयं से

वेद, शास्त्र, प्रमाण व प्राणी, अर्थवान हैं जिस परम से
कौन प्रकाशित करेगा उसको, परम प्रकाशित है स्वयं से

स्वयंप्रकाश, अनंत शक्ति, अप्रमेय, अनुभव स्वरूप यह
जान इसे ही मुक्त हुआ, ज्ञानी जन हुआ है धन्य

विषय प्राप्त होते हैं उसको, सुखी-दुखी न होता ज्ञानी
न आसक्त न हुआ विरक्त, स्वयं में ही रस पाता ज्ञानी

आत्मा के आनंद का रस पा, वह स्वयं में ही क्रीड़ा करता
ममता, अहं से मुक्त हुआ वह, निज स्वरूप में ही रमता

जैसे बालक मग्न हुआ सा, खेल में ही लगा रहता
भूख और नींद को भुला के, खिलौने से तृप्त हो रहता

चिंता व दीनता छूटी, मुक्त हुआ सा वह विचरे
अभय हुए वह घूमे वन-वन, सारा जग अपना माने

दिशा वस्त्र है, धरा बिछौना, परब्रह्म में क्रीड़ा करता
सदा सुखी हो तृप्त हुए वह, मुक्त जगत में घूमा करता

बालवत् हुआ वह ज्ञानी, देह का मात्र आश्रय लेता
आसक्ति न रहती उसमें, चिह्न न कोई प्रकट करता