Monday, September 25, 2023

वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षोडशाधिकशततम: सर्ग:


वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना 

 

लौट गये जब भरत अयोध्या, राम वहीं वन में बसते थे 

उन्हें एक दिन भान हुआ यह, तापस उद्वगिन से लगते थे 


श्रीराम का आश्रय लेकर, पूर्व में जो आनंद मग्न थे 

मानो वहाँ से जाना चाहें, ऐसे उत्कंठित लगते थे 

   

नेत्रों से, भौहें टेढ़ी कर,  राम की ओर  संकेत करें

मन ही मन शंकित हों जैसे, बातें करते मंद स्वरों में 


श्रीरघुपति ने मन में सोचा, उनसे कोई भूल हुई क्या 

हाथ जोड़ कुलपति से पूछा, क्या मुझसे कोई अपराध हुआ 


या मेरा बर्ताव था अनुचित, राजाओं के योग्य नहीं था 

अथवा कोई विकार दिख रहा, मुनि गण को जो अति खला था  


लक्ष्मण ने प्रमाद के कारण, कोई किया आचरण ऐसा  

योग्य नहीं है जो उसके भी, ऋषिगण ने जिसको देखा है


अर्ध्य-पाद्य के द्वारा, जो करती आयी ऋषियों की सेवा 

मेरी सेवा कारण क्या, की सीता ने नहीं समुचित सेवा 


श्रीराम के प्रश्न को सुन, वृद्ध महर्षि काँपते से बोले 

जो स्वभाव से कल्याणी  है, सीता से त्रुटि संभव कैसे 


राक्षसों द्वारा आपके कारण, भय उपस्थित होने वाला 

तभी उद्विग्न हुए तपस्वी, आपस में करते हैं चिंता 


रावण का छोटा भाई खर,  हता है यहीं वन प्रांत में

 तपस्वियों को उखाड़ फेंका,  जनस्थान में रहने वाले


अति क्रूर, घमंडी, ढीठ बहुत, नरभक्षी, विजयोन्मत्त है 

नहीं सहन कर पाता आपको, तापसों  पर रुष्ट हुआ है 


जब से आप यहाँ आये हैं, तब से वे अति कष्ट दे रहे 

हैं अनार्य राक्षस अति भीषण, खल, विकृत व दुखदायक भी वे



Friday, June 30, 2023

भरत का नंदीग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


पञ्चशाधिकशततम: सर्ग:


भरत का नंदीग्राम में जाकर श्रीराम की चरणपादुकाओं को राज्य पर अभिषिक्त करके उन्हें निवेदनपूर्वक राज्य का सब कार्य करना 


माताओं को अयोध्या में रख, दृढ़ प्रतिज्ञ भरत ने कहा 

गुरुजन से आज्ञा माँगू , अब मैं नंदीग्राम  रहूँगा


श्रीराम वियोग से उत्पन्न,  दुख महा वहीं सहन करूँगा 

इस राज्य के लाभ के हेतु,  करूँगा भाई  की प्रतीक्षा


 गये स्वर्ग पिता, राम वन में, वह गुरु हैं पूजनीय मेरे 

मंत्री और पुरोहित वसिष्ठ, शुभ वचन भरत का सुन बोले 


भातृ भक्ति से प्रेरित होकर, यह जो तुमने बात कही है 

 प्रशंसनीय होने के साथ, वास्तव में योग्य तुम्हारे है 


भाई के दर्शन भी चाहते, हित साधन में उनके लीन 

श्रेष्ठ मार्ग पर स्थित हो तुम,  करे न कौन तुम्हारा अनुमोदन 


मंत्रियों का प्रिय वचन सुना, तब सारथी से भरत ने कहा

रथ तैयार करो शीघ्र तुम, ली माताओं से भी आज्ञा 


रथ पर वे आरूढ़ हो गये,  उसी समय शत्रुघ्न के साथ

मंत्रियों और पुरोहितों से घिर,  ब्राह्मण भी चल रहे साथ


अयोध्या से पूर्वाभिमुख, नंदीग्राम का पथ पकड़ा 

अश्व, गजों रथ से भरी,  स्वयं पीछे-पीछे चल दी सेना


पुरवासी भी साथ हो लिए, भातृवत्सल भरत के पीछे 

मस्तक पर रख चरण पादुका, बहुत शीघ्रता से जाते थे 


उतर नंदीग्राम में रथ से, गुरुजनों से भरत ने कहा 

धरोहर के रूप में मुझको, भाई ने राज्य यह सौंपा 


सुवर्णाभूषित पादुकाएँ, निर्वाह करें योगक्षेम

उनके प्रति मस्तक झुकाया, राज्य कर दिया उन्हें समर्पित 


इन पर धारण करें छत्र अब, इन्हें मानूँ भाई के चरण

 इनके द्वारा ही राज्य में, परम धर्म का होगा स्थापन 


प्रेम के कारण ही भाई ने, यह धरोहर मुझे सौंप दी 

रक्षित होगी मुझ  द्वारा, उनके वापस लौटने तक ही 


इसके बाद स्वयं इनको मैं, श्रीराम को लौटा दूँगा 

पादुकाओं से सज्जित, चरण युगलों का दर्शन करूँगा 


उनके आने पर मिलते ही, राज्य समर्पित उनको कर के 

आज्ञा के अधीन रहकर, सदा सेवा में उनकी रह के 


राज्य भार तब उन्हें सौंप कर, स्वयं हल्का हो जाऊँगा

श्रीराम  की सेवा में दे, पश्चाताप से मुक्त  रहूँगा 


ककुत्स्थकुल भूषण श्रीराम के, राजा के पद पर होने से 

हर्षित होंगे लोग सभी, चौगुना मिलेगा आनंद मुझे 


इस प्रकार दीनभाव से भरकर, कर विलाप दुख मग्न भरत  

राज्य चलाने लगे वहीं से,  वह मंत्रियों के संग मिलकर 


वल्कल और जटा धारण कर, सदा मुनिवेश में वहाँ रहे 

भाई की आज्ञा पालन कर, प्रतिज्ञा के भी पार गये 


राज्य का समस्त कार्य वे, पादुकाओं को निवेदन करते 

ख़ुद ही उनपर छत्र लगाते, स्वयं ही चंवर डुलाते थे 


ख़ुद  रहकर उनके अधीन वे, मंत्रियों से कार्य  करवाते 

जो भी कार्य उपस्थित होता, प्रबंध यथावत उसका करते 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ पंद्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Tuesday, June 27, 2023

अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशाधिकशततम: सर्ग: 


भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा

अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना 


विशाल धनुष की प्रत्यंचा ज्यों, वेगशाली तीर से कटी

स्थान भ्रष्ट दिखाई देती, उसके समान अयोध्या पुरी 


युद्धकुशल किसी घुड़सवार ने, जिस घोड़ी पर की सवारी 

सहसा शत्रु से हत हुई, वैसे ही अयोध्या नगरी थी 


दशरथ नंदन कुमार भरत, कहते वचन सारथि सुमंत्र से 

गीत और संगीत नहीं हैं, पूर्व की भाँति नाद न सुनते 


मधु की मादक गंध नहीं है, चंदन व अगरू नहीं महकें 

नहीं सवारियों की आवाज़ें,  अश्व औ’ गज नहीं चिंघाड़ें  


श्रीराम वनवास के कारण, तरुण सभी यहाँ संतप्त हैं 

पुष्पमाल ग्रहण नहीं करते, फूलों का अति ही अभाव है 


उत्सव आदि बंद हो गये, सारी शोभा विनष्ट हुई है 

भाई संग उल्लास गया, अयोध्या न शोभित होती है 


अब कब राम पधारेंगे पुन, महोत्सव की भाँति  नगर में 

ग्रीष्म ऋतु के मेघ की भाँति, ख़ुशियों का संचार करेंगे 


बड़ी-बड़ी सड़कें नगरी की, हर्षित जन को नहीं देखतीं 

इस प्रकार बात करते वे, राजा के राजमहल में गये 


सिंह से रहित गुफा की भाँति, राजा दशरथ से विहीन था 

सूर्य हीन दिवस की भाँति, शोक में डूबा  शोभारहित   था 


स्वच्छता व सजावट से विहीन, देख अयोध्या नगरी को 

 धैर्यवान थे बहुत भरत, पर, अश्रु बहाने लगे दुखी हो  


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ चौदहवाँ सर्ग पूरा हुआ.




Monday, June 26, 2023

भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशाधिकशततम: सर्ग: 


भरत के द्वारा अयोध्या की दुरवस्था का दर्शन तथा अंत:पुर में प्रवेश करके भरत का दुखी होना 


महायशस्वी भरत आ गये, घर्घर घोष युक्त रथ द्वारा 

शीघ्र किया प्रवेश नगरी में, अयोध्या को सूना पाया 


विचर रहे थे बिलाव, उलूक भी, घरों के किवाड़ बंद थे 

कृष्ण पक्ष की काली रात सा, अंधकार छाया नगर में 


चंद्रमा को ज्यों राहु डस ले, रोहिणी असहाय तब होती

दिव्य ऐश्वर्य से प्रकाशित, अयोध्या अब राजा हीन थी  


कृशकाय सी उस नदी सी, जल जिसका गंदला हो जाये 

भाग गये हों पक्षी सारे, मीन, ग्राह छिप जायें जल में  


धूम रहित इक ज्योति शिखा सी, जो सदा प्रकाशित होती थी 

श्रीराम के वनवास से, बुझकर जैसे लगती विलीन सी  


महा समर में संकट ग्रस्त,  दिखायी पड़ती उस सेना सी

जिसके कवच टूट गये हों, मुख्य वीरों को मृत्यु हो मिली 


फेन, गर्जना संग उठी, लहर समुद्र की शांत हो जाती 

कोलाहल पूर्ण अयोध्या अब, शब्द शून्य जान पड़ती थी  


यज्ञकाल समाप्त होने पर, शांत हुआ हो मंत्रोच्चारण

वैसे ही अयोध्या नगरी, जान पड़ती अतीव  सुनसान


समागम हेतु गैया उत्सुक हो, किंतु उसे अलग किया हो 

आर्त भाव से बंधी गोष्ठ में, अयोध्या दुखी अंतर में 


मोती की वह माला जिससे, सुंदर मणियाँ अलग की गई 

श्रीहीन हुई थी अयोध्या,  रामचन्द्र  से रहित हुई थी 


आसमान से गिरी तारिका, जैसे पुण्य भ्रष्ट हुई हो 

शोभाहीन जान पड़ती थी, जिसकी प्रभा क्षीण हुई हो 


जैसे पुष्पित लता सुशोभित, दावानल से झुलस गई हो 

अब उदास जान पड़ती थी  उल्लास पूर्ण थी पूर्व में जो


किंकर्तव्यविमूढ़ व्यापारी, बाज़ार भी कम खुले थे 

उस गगन की भाँति लगती, मेघ श्याम जहां घिर आये थे 


स्वच्छ नहीं थी गलियाँ, सड़कें, उजड़ी हुई मधुशालायें  

टूटी बिखरीं पड़ी प्यालियाँ, पीने वाले विनष्ट हुए 


दशा पुरी की उस प्याऊ सी, ढह गया जो स्तंभ टूटे हों 

जलपात्र बिखरें सभी ओर, पानी भी जिसका चुक गया हो 


Friday, April 14, 2023

भरत का भरद्वाज से मिलते हुए अयोध्या को लौट जाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्



त्रयोदशाधिकशततम: सर्ग:

भरत का भरद्वाज से मिलते हुए अयोध्या को लौट जाना 


इसके बाद श्रीरामचंद्र की, पादुकाओं को सिर पर रख 

भाई सहित भरत बैठ गए, रथ में अति प्रसन्नता पूर्वक 


वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि, मंत्री गण चले तब आगे 

चित्रकूट की कर परिक्रमा, मंदाकिनी से पूर्व को चले 


चित्रकूट से कुछ दूरी पर, भरद्वाज का आश्रम देखा 

रथ से उतर पड़े भरत तब, मुनि के चरणों में प्रणाम किया 


हर्षित होकर पूछा मुनि ने, मिलना हुआ क्या श्रीराम से 

बुद्धिमान मुनि भरद्वाज को, उत्तर दिया था यह भरत ने 


मैंने व गुरुजी ने भी राम से, कई बार अनुरोध किया 

किंतु राम ने कहा गुरु से, पूर्ण करूँगा वचन पिता का 


मर्मज्ञ ज्ञानी वशिष्ठ ने, श्रीरघुनाथ से वचन कहे ये 

प्रतिनिधि के रूप में दीजिए, भरत को अपनी पादुकाएँ 


राज्य के संचालन हेतु, राम ने अपनी पादुकाएँ सौंपीं 

भरत का वचन सुना मुनि ने, उन्हें मंगलमय यह बात कही 


सिंह समान हो तुम मनुजों में, शील, सदाचार के ज्ञाता 

सारे गुण आ तुममें  मिलते,  जल जैसे सरवर में आता


पिता तुम्हारे  उऋण हुए हैं, तुम जैसा उन्हें सुपुत्र मिला 

भरत हुए नतमस्तक मुनि के, माँग ली जाने की आज्ञा 


भरद्वाज की कर परिक्रमा, मंत्री  सहित चले वे आगे 

रथों, हाथियों, छकड़ों संग, चली वह सेना साथ भरत के


दिव्य नदी यमुना को पार कर,  सुसलिला गंगा तट पहुँचे 

बंधु-बांधवों संग पार किया,  शृंगवेरपुर  जा पहुँचे


कर अयोध्यापुरी के दर्शन, जो विहीन  पिता, भाई से 

 दुख से हो संतप्त भरत ने, कहे वचन सारथि से ऐसे


 शोभा इसकी नष्ट हुई है, पूर्व की भाँति नहीं सुसज्जित 

सुघड़ रूप, आनंद खो गया, दीन और  लगती है नीरव


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, March 15, 2023

श्रीराम का अपनी चरण पादुका देकर सबको विदा करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्



द्वादशाधिकशततम: सर्ग:


ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना, भरत का पुनः श्रीराम के चरणों में गिरकर चलने की प्रार्थना करना, श्रीराम का उन्हें समझाकर अपनी चरण पादुका देकर उन सबको विदा करना 


मदमत्त हंस के समान तब, मधुर स्वरों में बात यह कही 
स्वाभाविक विनयी  प्रज्ञा  से, रक्षा कर सकते हो भू की 

अमात्यों, मंत्रियों, सुहृदों से, बुद्धिमानों से लो सलाह 
सहज सभी कर सकते हो, हो कार्य चाहे कितना भी बड़ा

चँद्रमा से विलग हो चाँदनी, सागर चाहे लाँघे सीमा
हिम का त्याग करे हिमालय, पिता का वचन न झूठा  होगा 

लोभ वश या कामना वश हो,  कर्म किया जो कैकेयी ने
उसके लिए दोष मत देकर,  देना माँ का सम्मान उन्हें 

द्वितीय के चंद्र सम सुंदर, जो सूर्य समान तेजस्वी हैं 
दर्शन से मिले  आह्लाद, उन श्री राम से कहा भरत ने

स्वर्णाभूषित दो पादुकाएँ, चरणों में आपके अर्पित 
योगक्षेम निर्वाह करेंगी, चरण रखें अपने इन पर

तब महातेजस्वी श्रीराम ने, पग रखकर फिर अलग किए  
सौंप दिया फिर उन्हें भरत को, करके प्रणाम भरत ने कहा 

धर जटा-चीर , फल-मूल खा, मैं भी चौदह वर्ष रहूँगा 
रहकर नगर से बाहर ही मैं, आपकी प्रतीक्षा करूँगा 

चौदह वर्ष पूर्ण होने पर, प्रथम दिन यदि आप न आए 
मैं कर जाऊँगा तब प्रवेश, प्रज्ज्वलित  होती ज्वाला में 

देकर स्वीकृति इस बात को, राम ने उनको गले लगाया 
शत्रुघ्न को भी लगा हृदय से, सुंदर वचन प्रेम से कहा 

अपनी व सीता की शपथ दे, तुमसे यह बात मैं कहता 
सदा कैकेयी की रक्षा करना, उनके प्रति क्रोध न करना 

इतना कहते-कहते उनकी, आँखों में आँसू भर आए 
व्यथित हृदय से भाइयों को तब, विदा किया था श्रीराम ने 

परम उज्ज्वल पादुकाओं को, लेकर फिर धर्मज्ञ भरत ने 
श्रीराम की की थी परिक्रमा, रखा मस्तक पर गजराज के 

धर्म में हिमालय की भाँति, स्थिर रहता था हृदय राम का  
जनसमुदाय, गुरु, मंत्री, प्रजा, माता व भाई को विदा किया 

कौसल्या आदि माताओं का, गला रुंध गया अश्रुओं से 
  कह न सकीं कुछ वे राम से, कर प्रणाम गये राम कुटी में

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 
एक सौ बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Wednesday, January 4, 2023

ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

द्वादशाधिकशततम: सर्ग:


ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना, भरत का पुनः श्रीराम के चरणों में गिरकर चलने की प्रार्थना करना, श्रीराम का उन्हें समझाकर अपनी चरण पादुका देकर उन सबको विदा करना 


उन अनुपम वीर भाइयों का, रोमांच युक्त देख समागम 

विस्मय से भर गये महर्षि, जिनका हुआ था वहाँ आगमन 


अदृश्य भाव से अंतरिक्ष में, प्रत्यक्ष भी जो मुनिजन थे 

ककुत्स्थ वंशी उन बंधु गण की, करने लगे प्रशंसा ऐसे 


दोनों राजकुमार श्रेष्ठ हैं, धर्म मार्ग पर चलने वाले 

बार-बार इनको सुनने की,  इच्छा होती है अंतर में 


दशग्रीव रावण के वध की, अभिलाषा थी जिनके मन में 

ऋषियों ने मिलकर आपस में, तभी  कही यह बात भरत से 


महाप्राज्ञ ! तुम उत्तम कुल वंशी, आचरण भी अति महान 

यदि तुम पिता का भला  चाहते, मान लो श्रीराम की बात 


पिता के ऋण से मुक्त हों राम, हम ऐसा देखना चाहें 

कैकेयी का ऋण चुकाकर, पहुँचे हैं महाराज  स्वर्ग में 


इतना कहकर वहाँ जो आए, गंधर्व, महर्षि व राजर्षि 

लौट गए निज स्थानों को, परम पूज्य वहाँ उपस्थित महर्षि  


जगत का कल्याण हैं करते, दर्शन केवल  दे जो अपने 

श्री राम हुए थे अति प्रसन्न, ऋषियों के वचनों को सुन के 


हर्षित हुए  खिला मुख उनका, अति शोभित हुए थे श्रीराम 

की महर्षियों की अति  प्रशंसा, किंतु भरत का काँपा गात 


लड़खड़ाती हुई वाणी में, कर जोड़ वह राम से बोले 

ककुत्स्थकुल भूषण हे भाई !, बड़े पुत्र होने के नाते 


राज्य ग्रहण पर अधिकार आपका, इस धर्म पर दृष्टि डालें

मैं, मेरी माता करती हैं, याचना हमारी सफल करें  


इस विशाल राज्य की रक्षा, मैं अकेले नहीं कर सकता 

पुरवासी जिन्हें प्रेम आपसे, उन्हें प्रसन्न नहीं रख सकता 


बाट जोहते हैं किसान ज्यों, उसी प्रकार सभी जनवासी 

योद्धा, मित्र, सुहृद, बांधव सब, बाट जोहते हैं आपकी 


राज्य को स्वीकार आप करें, फिर अन्य किसी को दे देवें 

वही पुरुष समर्थ हो सकता, ऐसा कहा, गिरे चरणों पे 


अति मीठे वचनों में भाई से, की प्रार्थना पुनः भरत ने 

श्यामवर्ण भाई को राम ने, बिठा लिया था तब गोद में