Friday, June 16, 2017

राजा दशरथ का शोक और उनका कौसल्या से अपने द्वारा मुनिकुमार के मारे जाने का प्रसंग सुनाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रिषष्टितम: सर्गः

राजा दशरथ का शोक और उनका कौसल्या से अपने द्वारा मुनिकुमार के मारे जाने का प्रसंग सुनाना

दो ही घड़ी सोये थे राजा, व्याकुलता से जाग पड़े
वन में जाने से राम के, मन ही मन चिंता करते थे

इन्द्र्तुल्य तेजस्वी नृप को, शोक ने ऐसे आ दबाया
अंधकार राहु का जैसे, छाकर दिनकर को ढक लेता

पत्नी सँग वन गये राम जब, कोसल नरेश को स्मरण हुआ
कजरारे नेत्र जिसके, कहूँ, कौसल्या को पाप पुराना 

वनवास गये छठी रात्रि थी, आधीरात उन्हें हुआ स्मरण
कौसल्या को लगे बताने, पूर्व काल में किया दुष्कर्म

शुभ-अशुभ नर जो भी करता, सुख-दुःख उनसे ही पाता है
कल्याणी ! हे भद्रे !, कर्म ही, हर्ष व शोक प्रदाता है

 आरम्भ  में जो कर्मों की, लघुता, गुरुता नहीं देखता
लाभ-हानि या गुण-दोष ही, वह बालक ही समझा जाता 

सुंदर पुष्प पलाश का देख, मन ही मन यदि सोचे कोई
 सुस्वादु और मनोहर होगा, इस वृक्ष का फल अवश्य ही

आम्र वाटिका काट यदि वह, पौध पलाश की लगाके सींचे
पश्चाताप अति उसे होगा, फल पाकर न अनुरूप आशा के

फल का ज्ञान नहीं रखता जो, केवल कर्म किये जाता है
आम काट पलाश बोने सा, शोक उसे फल पा होता है

आम्र वाटिका काट यदि वह, पौध पलाश लगाके सींचे
पश्चाताप अति उसे होगा, फल पा न अनुरूप आशा के

फल का ज्ञान नहीं रखता जो, केवल कर्म किये जाता है
आम काट पलाश बोने सा, शोक उसे फल पा होता है

काट आम के वन मैंने, सींचे पलाश यही मानता
बुद्धि अति खोटी है मेरी, फल पाकर अत्यधिक पछताता

पिता के जीवन काल में जब, ख्याति मेरी फ़ैल गयी थी
राजकुमार धनुर्धर था, बाण चलाता था शब्द वेधी

इसी ख्याति में पड़कर मैंने, एक पाप कृत्य कर डाला
इस महान पीड़ा के रूप में, उसी कुकर्म का फल पाया  

 यदि अज्ञान वश विष खाले, बालक को वही मार डालता
मोह, अज्ञान से किया कर्म, उसका फल ही पड़ा भोगना

जैसे कोई गंवार मनुष्य, हो मोहित केवल फूल पर 
वैसे ही मैं सुन प्रशंसा, मोहित हुआ था इस विद्या पर

इससे पापकर्म बन सकता, यह ज्ञान मुझे नहीं हुआ था
देवी, जब युवराज ही था मैं, अभी विवाह नहीं हुआ था


Thursday, June 15, 2017

दुखी हुए राजा दशरथ का कौसल्या को हाथ जोड़कर मनाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्विषष्टितम: सर्गः

दुखी हुए राजा दशरथ का कौसल्या को हाथ जोड़कर मनाना और कौसल्या का उनके चरणों में पड़कर क्षमा माँगना

शोकमग्न हो कुपित हुई जब, वचन कहे कटु कौसल्या ने
दु:खित हुए राजा दशरथ तब, अति अधिक चिंता में पड़ गये

मोह से ढकीं इन्द्रियां सारी, बहुत देर तक अचेत रहे
शत्रु को भय देने वाले, राजा दीर्घ श्वासें भरते थे

दुःख में पड़े हुए उनको फिर, दुष्कर्म इक याद हो आया
अनजाने में हुआ उनसे, शब्द बेधी जब बाण चलाया

उस दुःख से व राम वियोग से, बड़ी वेदना छायी मन में
मुख नीचे कर लगे काँपने, हाथ जोड़कर तब यह बोले 

हाथ जोड़ मैं तुम्हें मनाता, यूँ मेरे प्रति न क्रोध करो
वात्सल्य और दया से पूरित, मुझे कठोर वचन न कहो

हो गुणवान या गुणहीन ही, सती पति को देव समझती 
 धर्म में तुम तत्पर रहती, भले-बुरे को खूब जानती

यद्यपि तुम अतीव दुखी हो, मैं भी तो दुःख से पीड़ित हूँ
कहो कठोर वचन तुम मुझसे, अल्प भी यह तुमको उचित है

दुखी हुए राजा के मुख से, करुणाजनक वचन ये सुन कर
कौसल्या के अश्रु बह चले, ज्यों परनाली से गिरता जल

 कमल समान जुड़े करों को, अति घबराकर लगाया सिर से
रोने लगीं अधर्म के भय से, इक-इक शब्द लगीं कहने

देव ! पड़ी हूँ मैं धरती पर, चरणों में सिर क्षमा माँगती
यदि आपने करी याचना, भगवन, तब तो मैं मारी गयी

यदि मुझसे अपराध हुआ हो, क्षमादान  के योग्य हूँ मैं
इहलोक तथा परलोक में भी, पति पूजनीय है स्त्री से

पति द्वारा जो जाती मनाई, कुल स्त्री वह नहीं कहलाती
स्त्रीधर्म जानती हूँ मैं, सत्यवादी आपको जानती

अकथनीय बात जो कह दी, निकली पुत्रशोक के कारण
शोक धैर्य को मिटा डालता, हर लेता सब शास्त्रज्ञान

शोक समान नहीं कोई शत्रु, कर देता है विनष्ट सभी 
शस्त्रों का प्रहार सह सकते, नहीं दैववश अल्प शोक भी

श्रीराम को जंगल में गये, पांच रात्रियाँ बीत गयीं हैं
 इनको ही गिनती रहती हूँ, पांच वर्ष समान बीती यें

श्रीराम का चिन्तन करते, शोक हृदय का बढ़ता जाता
जैसे नदियों के वेग से, सागर का जल अति बढ़ जाता

कौसल्या शुभ वचन बोलतीं, रात्रिकाल तब तक आ पहुंचा
सुन राजा को  हुई प्रसन्नता, निद्रा ने आ उनको  घेरा

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बासठवाँ सर्ग पूरा हुआ.



Wednesday, June 7, 2017

कौसल्या का विलापपूर्वक राजा दशरथ को उपालम्भ देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


एकषष्टितम: सर्ग:

कौसल्या का विलापपूर्वक राजा दशरथ को उपालम्भ देना

प्रजाजन को सुख देते जो, धर्म परायण उन श्रीराम के
वन जाने पर होकर आकुल, कौसल्या ने ये वचन कहे

तीनो लोकों में है ख्याति, सभी जानते हैं आप उदार
किन्तु नहीं विचारा इसको, कैसे रहेंगे वन में राम

सुकुमारी वह तरुण कुमारी, जो सुख भोगने के है योग
शीत-ग्रीष्म कैसे झेलेगी, ग्रहण करेगी वन के भोग

मधुर ध्वनि सुना करती थी, हो सम्पन्न मांगलिक पदार्थ से
शब्द सुनेगी वहाँ अशोभन, भययुक्त हिंसक प्राणियों से

इंद्र समान उत्सव देते थे, महाबली, महाबाहु राम
परिघ समान बाँह तकिये पर, कैसे सोते होंगे याम

कमलकांति है जिनके मुख की, कमलनयन परम श्रीराम का
है सुवास जिनकी श्वास में,  कब देखूंगी सुंदर मुखड़ा

निश्चय ही मेरा अंतर यह, बना हुआ कठोर लोहे का
टुकड़े टुकड़े नहीं हो रहे, श्री राम को देख पाऊं ना

क्रूर कर्म यह किया आपने, वन को भेजा बिना विचारे
सुख भोगने के जो योग्य थे, वन में दौड़ें दीन हुए से 

इक दिन वन से जब लौटेंगे, भरत उन्हें राज्य दे देगा ?
उनके लिए तब राज्य, खजाना, भरत नहीं कभी त्यागेगा

सुना है कुछ लोग श्राद्ध में, निज बन्धु-बााँधवों को बुलाते
ब्राह्मणों को देने से पहले, भोजन उनको ही कराते

किन्तु वहाँ गुणवान ब्राह्मण, जो सभी देवतुल्य होते हैं  
 अमृत भी यदि गया परोसा, उसे स्वीकार नहीं करते हैं

यद्यपि पहली पंक्ति में भी, ब्राहमण ने ही भोजन पाया
भुक्त अन्न ग्रहण नहीं करते, जब अपमान का भय समाया

सींग कटाने को ज्यों बलवान, बैल नहीं होते तैयार
दूजी पंक्ति में न बैठें, ब्राहमण जो करते धर्म विचार

इसी तरह श्रेष्ठ भ्राता भी, कैसे राज्य वह ग्रहण करेगा
छोटे भाई ने भोगा हो, उसका सदा त्याग कर देगा

अन्यों के लाये शिकार को, बाघ नहीं चाहता जैसे
पुरुष सिंह राम भी ऐसे, भुक्त राज्य को न चाहेंगे

घृत, हविष्य, पुरोडाश औ कुश, खदिर यज्ञ में अर्पित होते 
उपभुक्त ये हो जाते हैं, एक बार ही काम में आते

भुक्तावशिष्ट पदार्थ की भांति, भोगे हुए इस राज्य को
ग्रहण नहीं करेंगे राम, नहीं सहेंगे अपमान को

महासमर हो सब लोकों से, राम नहीं डरेंगे फिर भी
त्याग किया इस राज्य कासहर्ष चले हैं राह वह धर्म की
भस्म करें प्राणियों को सब, अग्निदेव ज्यों प्रलयकाल में
 महासागरों को भी राम, निज बाणों से सहज सुखा दें

सिंह सम बल, आँख बैल सम, पिता के हाथों मारे गये
जैसे मत्स्य के शिशु निरीह, मत्स्य पिता से मारे जाते

देशनिकाला दिया आपने, धर्म परायण प्रिय बेटे को
नाश किया है निज राष्ट्र काहुए आनंदित हैं केवल दो

अतः प्रश्न यही उठता है, जिन धर्मों को वेद बतलाते 
द्विज आचरण में लाते हैं, क्या सत्य मानते आप उसे

  पति सहारा है नारी का, उसके बाद पुत्र कहलाता
पिता व बन्धु आश्रय तीजा, चौथा कोई नहीं आसरा

आप तो मेरे हैं ही नहीं, पुत्र भी वन गया है भेजा
बन्धु-बांधव दूर बहुत, मुझे, हर भांति से आपने मारा

यह राष्ट्र व अन्य राज्य भीइसी निर्णय से विनष्ट हुए हैं 
मंत्री सहित प्रजा भी पीड़ित, भरत व कैकेयी ही खुश हैं

अति विचलित हुए तब राजा, रानी ने कटु वचन सुनाया
स्मरण हुआ इक दुष्कर्म का, जिस कारण था यह दुःख पाया

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में एकसठवाँ सर्ग पूरा हुआ.