Thursday, August 27, 2015

कैकेयी का राजा को सत्य पर दृढ़ रहने के लिए प्रेरणा देकर अपने वरों की पूर्ति के लिए दुराग्रह दिखाना,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

चतुर्दशः सर्गः  
कैकेयी का राजा को सत्य पर दृढ़ रहने के लिए प्रेरणा देकर अपने वरों की पूर्ति के लिए दुराग्रह दिखाना, महर्षि वसिष्ठ का अंतःपुर के द्वार पर आगमन और सुमन्त्र को महाराज के पास भेजना, राजा की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम को बुलाने के लिए जाना

इक्ष्वाकु नंदन राजा दशरथ, पुत्रशोक से पीड़ित थे
अति वेदना से पीड़ित हो, पृथ्वी पर अचेत पड़े थे

देख उन्हें इस दीन दशा में, दुष्ट कैकेयी यह बोली
दो वरदान मुझे देने की, आपने ही प्रतिज्ञा की थी

पाप किया है जैसे कोई, ऐसे आप हैं पछताते
सत्पुरुषों की जो मर्यादा, उसमें टिके नहीं रहते

सत्य श्रेष्ठ धर्म है इसको, धर्मज्ञ पुरुष भी बताते
उसी सत्य का ले आश्रय, प्रेरित किया आपको मैंने

राजा शैव्य ने की प्रतिज्ञा, देह बाज को देंगे अपनी
पूरी की थी वह प्रतिज्ञा, उत्तम गति प्राप्त कर ली

वेदों के ज्ञाता ब्राह्मण को, दोनों आँखें दे डाली थीं
इसी प्रकार राजा अलर्क ने, जब उसने याचना की थी  

सत्य को जो प्राप्त हुआ, सागर सत्य का पालन करता
छोटी सी सीमा भूमि का, कभी उल्लंघन न करता

सत्य ही शब्द ब्रह्म है, धर्म प्रतिष्ठित सत्य में ही
अविनाशी वेद सत्य है, सत्य से ही ब्रह्म प्राप्ति

धर्म में स्थित बुद्धि आपकी, सत्य का अनुसरण करें
आप ही दाता मेरे वर के, शीघ्र ही उसको पूर्ण करें

धर्म के अभीष्ट फल हित, राम को वनवास दीजिये
तीन बार दोहराती हूँ मैं, प्रतिज्ञा का पालन कीजिये

यदि हुआ न ऐसा तो मैं, प्राणों का परित्याग करूँगी
इस प्रकार जब हो निशंक, प्रेरित करती थी कैकेयी

तोड़ सके न बंधन राजा, जैसे बलि वामन के पाश को
उस बैल की भांति बंधे जो, दो पहियों के बीच फंसा हो  

फीकी पड़ी कांति मुख की, विकल नेत्र न कुछ देखते
कठिनाई से धैर्य धरा तब, उर सम्भाल रानी से बोले

अग्नि के समीप मैंने, मन्त्रों का उच्चारण करके
तेरे जिस हाथ को पकड़ा, त्याग रहा उसे आज मैं

त्याग पुत्र का भी करता हूँ, रात बीतने को ही है
शीघ्र करें राज्यभिषेक, सभी कहेंगे, प्रातः हुआ है

जो सामान किया एकत्र, श्रीराम के राजतिलक हित
उससे जलांजलि दिलाना, किन्तु न देना तू व भरत

जनसमुदाय हुआ था हर्षित, राज्याभिषेक के समाचार से
आज देख न सकूँगा मैं, उनके दुखी मुखों को लटके

बीती रात्रि हुआ प्रभात, कैकेयी पुनः यह बोली
विष और शूल आदि रोगों सम, क्यों बोलते हैं वाणी

श्रीराम को यहाँ बुलाये, बिना क्लेश के वन भेजें
राज्यलक्ष्मी भरत को सौंपे, निष्कंटक मुझे करें  



Wednesday, August 26, 2015

राजा का विलाप और कैकेयी से अनुनय-विनय

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रयोदश सर्गः
राजा का विलाप और कैकेयी से अनुनय-विनय

भूमि पर पड़े थे राजा, अनुचित व अयोग्य दशा में
नृप ययाति के समान जो, देवलोक से भ्रष्ट हुए थे

नहीं मनोरथ सिद्ध हुआ, लोकलाज जिसने छोड़ी थी
वह कैकेयी पुनः बोली तब, ऐसी दशा देखकर उनकी

सत्यवादी व दृढ़प्रतिज्ञ हूँ, आप डींग मारा करते थे
मेरे इस वरदान को आप, हजम किन्तु करना चाहते

सुनकर राजा दो घड़ी तक, व्याकुल सी हालत में रहे
तत्पश्चात कुपित होकर, वे उत्तर उसे लगे यह देने

नीच ! अति शत्रु है मेरी, कारण है मेरी मृत्यु का
पुत्रहीन था पहले मैं, फिर श्रीराम को प्राप्त किया

कैसे उनका त्याग करूं मैं, सुख भोगने के योग्य जो
अति प्रिय हैं राम मुझे, वनवास का दुःख दूँ उनको ?

बिना दिए दुःख राम को यदि, जग से विदा हो गया होता
उस दशा में मृत्यु से भी, मुझे बड़ा ही सुख मिलता

ओ पाषाण हृदयी कैकेयी !, क्यों उनसे विछोह कराती
ऐसा करने से निश्चय ही, फैलेगी तेरी अपकीर्ति

इस प्रकार विलाप करते, व्याकुल हुआ चित्त राजा का
सूर्यदेव अस्ताचल को पहुंचे, और प्रदोषकाल आ पहुंचा

तीन पहर बीते रात्रि के, चन्द्रिका भी फैली हुई थी
किन्तु दुखी राजा दशरथ को, ज्योति या सुख दे न सकी

बूढ़े राजा उच्छ्वास ले, आकाश की ओर देखते
आर्त की भांति दुखपूर्ण, रात्रि से कहने लगे ये

हे कल्याणमयी रात्रि !, न लाना प्रभातकाल तुम
हाथ जोड़ता, दया करो, अथवा शीघ्र बीत जाओ तुम

संकट जिससे प्राप्त हुआ है, उसे देखना न चाहूँ
है निर्दयी क्रूर कैकेयी, जिससे अति पीड़ा पाऊं

ऐसा कहकर धर्म के ज्ञाता, राजा ने पुनः वचन कहा
कैकेयी को मना लें कैसे, हाथ जोड़ फिर यह सोचा

ओ कल्याणमयी देवी ! जो दीन तेरे आश्रित है
मरणासन्न, सदाचारी है, और विशेषतया राजा है

ऐसे उस राजा दशरथ पर, कृपा कर हे केकयनन्दिनी
राम के राज्याभिषेक की, भरी सभा में बात कही थी

बाले ! तू सहृदय बड़ी है, मुझ पर कर कृपा अपनी  
हो प्रसन्न, सुनयनी, देवी, तुझको यश की हो प्राप्ति

सुमुखी, सुलोचने, यह प्रस्ताव, सबको ही प्रिय होगा
पूर्ण कर तू इसको सुख से, भरत को भी हर्ष होगा

राजा का भाव शुद्ध था, आंसुओं से नेत्र लाल थे
दीन भाव से करुणा जनक, विचित्र विलाप करते थे

किन्तु निष्ठुर कैकेयी ने, आज्ञा का पालन न किया
नहीं हुई संतुष्ट किंचित वह, प्रतिकूल ही वचन कहा

राजा तब हुए मूर्छित, सुध-बुध खो भूमि पर गिरे
धीरे-धीरे रात बीत गयी, भयंकर उच्छ्वास लेते

प्रातःकाल उन्हें जगाने, मंगल गान व वाद्य बजे
राज शिरोमणि ने किन्तु वे, तत्काल ही बंद कराए



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Friday, August 21, 2015

महाराज दशरथ की चिंता, विलाप,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वाद्शः सर्गः

महाराज दशरथ की चिंता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न मांगने के लिए अनुरोध करना 

यदि भरत को भी प्रिय हो, श्रीराम का वन में जाना
मृत देह का मुझको उनसे, दाह संस्कार नहीं करवाना

था मेरा दुर्भाग्य तू आयी, तेरे कारण अपयश होगा
मर जाने पर मेरे सुख से, पुत्र सहित राज तू करना

रथों, हाथियों पर चलते थे, पैदल कैसे राम चलेंगे
तिक्त, कसैले, कटु फलों का, कैसे वे आहार करेंगे

बहुमूल्य वस्त्र थे जिनके, सुख से जो रहते आये 
वनवासी हो रहेंगे कैसे, राम वस्त्र गेरुए पहने 

किसकी हुई प्रेरणा तुझको, ऐसे वचन निकाले मुख से
धिक्कार है स्त्रियों को, किन्तु नहीं ऐसी हैं सब वे

पिता त्याग देंगे पुत्रों को, संकट में हों यदि श्रीराम
पति त्याग देंगी महिलाएँ, जगत करे विपरीत व्यवहार

देवकुमार समान राम को, देख निहाल सदा होता हूँ
मानो पुनः युवा हो गया, शोभा लख विस्मित होता हूँ

सूर्य बिना संसार रह सके, वर्षा बिन जीवन बच जाये
राम बिना जीवन न रहेगा, यही धारणा मन में आये

क्रूर अति व्यवहार है तेरा, क्यों मुझपर प्रहार कर रही
दांत तेरे क्यों न गिर जाते, कटु वाणी मुख से निकालती

कैसे दोष देखती उनमें, राम का सब करते सम्मान
दोषी को ही वन भेजते, कैसे मान लूँ तेरी बात

तू चाहे डूब ग्लानि में, विष खाकर या दे दे प्राण
है अहितकर अति कठोर, नहीं मान सकता यह बात

मीठी बातें करके तूने, छुरे समान घात किया है
कुल नाशिनी, झूठी है तू, उर को मेरे भस्म किया है

जीवन नहीं बिना राम के, सुख फिर कैसे हो सकता  
छूता हूँ मैं चरण तेरे, तू मुझ पर प्रसन्न हो जा

इस प्रकार राजा दशरथ, करते थे विलाप अनाथ सम
छूना चाहते थे चरणों को, किन्तु गिर पड़े हो मूर्छित


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.






Tuesday, August 18, 2015

महाराज दशरथ की चिंता, विलाप, कैकेयी को फटकारना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
द्वाद्शः सर्गः


महाराज दशरथ की चिंता, विलाप, कैकेयी को फटकारना, समझाना और उससे वैसा वर न मांगने के लिए अनुरोध करना 

क्या अप्रिय देखा है तूने, श्रीराम में या मुझमें ही
राम बिना राज्य लेना, स्वीकार करेंगे भरत नहीं

धर्म के पालन में आगे हैं, श्रीराम से प्रिय भरत
फीका होगा मुख राम का, कैसे कह दूँ जाओ वन

सुह्रदों से किया विचार, निर्णय लिया तब अभिषेक का
बुद्धि अब विपरीत हो रही, ज्यों शत्रु से पराजित सेना

दूर दिशाओं से जो आये, राजा गण उपहास करेंगे
कैसे कहूँगा, वन को गये, श्रीराम को जब पूछेंगे

सत्य का पालन करूँ यदि, वन को भेज राम को आज
सिद्ध असत्य हो जाएगी, थी जो राज्य देने की बात

कौसल्या क्या मुझे कहेगी, राम चले गये यदि वन को
अपकार कर उसका ऐसा, क्या उत्तर दूंगा मैं उसको

जिसका पुत्र अति प्रिय है, कौसल्या जब आयी द्वार
तेरे कारण उस देवी का, कभी नहीं किया सत्कार

प्रिय बर्ताव किया जो तुझसे, देता है आज संताप
जैसे हो दुखकारी अपथ्य, रोगी का बढ़ाए जो ताप

राम का अभिषेक निवारण, वन की ओर देख प्रस्थान
सुमित्रा भी होगी भयभीत, त्यागेगी मुझ पर विश्वास

दुखद समाचार सीता को, सुनने होंगे दो इक साथ
मेरी मृत्यु के साथ ही, श्रीराम का यह वनवास

किन्नर से बिछड़ी किन्नरी, ज्यों हिमालय के पार्श्व भाग में  
शोक करेगी राम के हित वह, मेरे प्राण तब नहीं बचेंगे

राम का वनवास देख व, रोते हुए देख सीता को
जीना नहीं चाहूँगा मैं, बेटे संग रहना विधवा हो

सती-साध्वी तुझे समझता, किन्तु अति दुष्ट निकली
जैसे कोई मदिरा पीकर, पीछे जाने थी विष मिली

मीठे वचन बोलकर जो तू, सांत्वना दिया करती थी
झूठी थीं वे तेरी बातें, व्याध की भांति प्राण हर रही

नारी के मोह में ग्रस्त, श्रेष्ठ पुरुष नीच कहेंगे,
बेच दिया बेटे को कहकर, निंदा होगी राह-बाट में

कितना दुःख मुझे होता है, तेरी बातें सुनकर आज
शायद पूर्वजन्म का फल है, दुखकारी किया था पाप

तेरी रक्षा की है मैंने, अज्ञान वश गले लगाया
फांसी की बनी है रस्सी, मृत्यु का तुझसे भय पाया

जैसे बालक खेल-खेल में, काले नाग को धरता हाथ
एकांत में आलिंगन कर, क्रीड़ा की है तेरे साथ

जीतेजी ही मुझ पापी ने, पितृ हीन बनाया सुत को
निश्चय ही गालियाँ देगा, संसार यह मुझ दुष्ट को

कामी और मूर्ख कहेंगे, जो निश्चय उचित होगा  
स्त्री की संतुष्टि के हित, प्रिय पुत्र को वन भेजा  

अब तक तो सलंग्न रहे, वेदों आदि के अध्ययन में
श्रम से कृश होते आये हैं, राम गुरूजन की सेवा में

सुखभोग का समय जब आया, वन में जाकर दुःख पाएंगे
यदि कहूँ मैं ‘वन को जाओ’, ‘हाँ’ कहकर चले जायेंगे

प्रतिकूल नहीं कर सकते, यदि करते तो अच्छा होता
किन्तु वह ऐसा नहीं करेंगे, यमलोक मेरा घर होगा

कौन सा अत्याचार करेगी, तब कौसल्या पर तू कह
वह भी दुःख न सह पायेगी, आएगी पीछे ही वह

कौसल्या, सुमित्रा संग मुझको, नर्क तुल्य शोक में डाल
स्वयं सुखी होकर रहना तू, इक्ष्वाकु कुल होगा बेहाल