तुम हो ! तुम अपने हो प्रियतम
यह भान मुझे हर्षित करता,
दिन रात प्रेम की धार बहे
फिर भी न तृषित अंतर भरता !
ज्ञान मुक्त हो भयविहीन अंतर अपना
टुकड़ों में नहीं बंटा, हो साझा सपना
कर्मशील मानव हो, प्रभु ! और प्रेम का स्रोत
हो प्रकाशित बिखर जग में परम जीवन ज्योत !
सुख पाकर मैं न इतराऊँ
दुःख को दुःख न जानूँ,
दो इतनी समता, दृढ़ता तुम
कुछ भी क्षुद्र न मानूँ !
Sunday, November 28, 2010
Friday, November 19, 2010
तुम मुक्त स्वयं, मुक्तिदाता !
तुम बांध नहीं रखते मुझको,
जग प्रेम की कीमत है बंधन
बिन कीमत चाहा है तुमको !
मन छलता है खुद को प्रतिपल
कहता प्रियतम को आराधें,
फिर खो जाता निज सुधियों में
फिर जग का आकर्षण बांधे !
मिट जाये मन, मृत हो आशा
झर जाये पुष्प सी अभिलाषा,
बस भान रहे इतना भीतर
तुम हो स्वामी, मैं हूँ दासा !
तुम बांध नहीं रखते मुझको,
जग प्रेम की कीमत है बंधन
बिन कीमत चाहा है तुमको !
मन छलता है खुद को प्रतिपल
कहता प्रियतम को आराधें,
फिर खो जाता निज सुधियों में
फिर जग का आकर्षण बांधे !
मिट जाये मन, मृत हो आशा
झर जाये पुष्प सी अभिलाषा,
बस भान रहे इतना भीतर
तुम हो स्वामी, मैं हूँ दासा !
Thursday, November 18, 2010
मैं तुमसे मिलने को आतुर
पर क्योंकर तुमसे मिल पाता
जब निकलूं घर से मिलने को
सँग मेरे अहं चला आता !
मैं स्वयं तुमसे चाहूँ मिलना
पर यह न कभी संभव होता
मन, बुद्धि, चित्त, अहं का गढ़
टूटा न कभी तोड़ा जाता !
हम स्वयं बंधते हैं बंधन में
फिर कहते प्रभु! खोलो,खोलो
नित अहं को पोषा करते हैं
फिर भजते हरि! बोलो,बोलो
पर क्योंकर तुमसे मिल पाता
जब निकलूं घर से मिलने को
सँग मेरे अहं चला आता !
मैं स्वयं तुमसे चाहूँ मिलना
पर यह न कभी संभव होता
मन, बुद्धि, चित्त, अहं का गढ़
टूटा न कभी तोड़ा जाता !
हम स्वयं बंधते हैं बंधन में
फिर कहते प्रभु! खोलो,खोलो
नित अहं को पोषा करते हैं
फिर भजते हरि! बोलो,बोलो
Wednesday, November 17, 2010
न तुमसा कोई न बढ़कर
तुम सहज प्रेम दे बुला रहे,
जग एक छलावा, फीका है
फिर भी आकर्षण लुभा रहे !
मन के ऊपर जो परतें हैं
हैं तुच्छ, घृणित, हैं दुखदायक
तुम ढके हुए भीतर कोमल
निर्दोष प्रेम ! हो सुखदायक !
जग में पाना निज को खोना
जग खोकर ही निजता पाते
जिसको जीवन हम समझ रहे
मरकर ही उस द्वारे जाते !
अनिता निहालानी
१७ नवम्बर २०१०
तुम सहज प्रेम दे बुला रहे,
जग एक छलावा, फीका है
फिर भी आकर्षण लुभा रहे !
मन के ऊपर जो परतें हैं
हैं तुच्छ, घृणित, हैं दुखदायक
तुम ढके हुए भीतर कोमल
निर्दोष प्रेम ! हो सुखदायक !
जग में पाना निज को खोना
जग खोकर ही निजता पाते
जिसको जीवन हम समझ रहे
मरकर ही उस द्वारे जाते !
अनिता निहालानी
१७ नवम्बर २०१०
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