Tuesday, December 22, 2015

लक्ष्मण का श्रीराम के अभिषेक के निमित्त विरोधियों से लोहा लेने के लिए उद्यत होना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रयोविंशः सर्गः
लक्ष्मण की ओज भरी बातें, उनके द्वारा दैव का खण्डन और पुरुषार्थ का प्रतिपादन तथा उनका श्रीराम के अभिषेक के निमित्त विरोधियों से लोहा लेने के लिए उद्यत होना 

सौंप राज्य अपने पुत्रों को, पुत्रवत् कर प्रजा का पालन
वन को जाता है वृद्ध नरेश, यही परम्परा है पुरातन

वानप्रस्थ नहीं लिया पिता ने, इस कारण यदि आप समझते
राज्य भार आप का लेना, है विरुद्ध उनकी आज्ञा के

जनता भी विद्रोह करेगी, त्याग दीजिये इस शंका को
रक्षा करूंगा मैं राज्य की, रोके जैसे भूमि सिन्धु को   

यदि करूं न ऐसा तो मैं, वीरलोक का होऊं न भागी
होने दें अपना अभिषेक, मंगलमयी है यह सामग्री  

रोकूँ सभी विरोधी बल को, हूँ समर्थ अकेला ही मैं
मेरी ये बलवान भुजाएं, नहीं हैं केवल शोभा हित ये

धनुष नहीं है यह आभूषण, कमरबंद नहीं तलवार
खम्भे नहीं बनें बाणों से, चारों हेतु शत्रु संहार

जीवित नहीं रहेगा शत्रु, बिजली सी चमके तलवार
चाहे इंद्र वज्र ले आये, हूँ करने को युद्ध तैयार

पट जाएगी सारी धरती, पिसे हुए हाथी, घोड़ों से
गमन न सम्भव, भर जायेंगे, हाथ, जांघ, मस्तक रथियों के

रक्त से लथपथ शत्रु सारे, जलती हुई अग्नि सम होंगे
बिजली सहित मेघ हों जैसे, पृथ्वी पर जो आज गिरेंगे

गोहचर्म के दस्ताने को, बांध युद्ध मैं आज करूंगा
कौन पुरुष मेरे सम्मुख, निज पौरुष पर अभिमान करेगा

कई बाणों से एक को मारूँ, मारूँगा अनेक, एक से    
मर्म स्थल पर चोट करूंगा, हाथी, घोड़ों, व पुरुषों के

प्रभुता मिटेगी राजा की अब, प्रभुत्व आपका हो स्थापित
अस्त्र बल से सम्पन्न मेरा, प्रकटेगा शौर्य प्रज्ज्वलित

देने दान, पालन करने में, बाजूबंद पहनने के भी
चंदन लेप के जो योग्य हैं, दो भुजाएं आज ये मेरी

प्रकट करेंगी महा पराक्रम, विघ्न डालने वालों हेतु
बतलाएं मैं किस शत्रु को, यश, प्राण से विलग कर दूँ

जिस उपाय से भी यह पृथ्वी, आपके अधिकार में आये
 राम ! दास हूँ मैं आपका, उसके लिए आज्ञा दे दें

सुनकर लक्ष्मण की ये बातें, आँसू पोंछे राम ने उनके  
जो रघुवंश के वृद्धि कर्ता, दी सांत्वना श्री राम ने

सौम्य ! मुझे तो तुम समझो, आज्ञा पालन में दृढ़ अति
माता पिता की बात मानना, है सत्पुरुषों का मार्ग यही  

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तेईसवाँ सर्ग पूरा हुआ.







Friday, December 18, 2015

लक्ष्मण की ओज भरी बातें, उनके द्वारा दैव का खण्डन और पुरुषार्थ का प्रतिपादन

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

त्रयोविंशः सर्गः
लक्ष्मण की ओज भरी बातें, उनके द्वारा दैव का खण्डन और पुरुषार्थ का प्रतिपादन तथा उनका श्रीराम के अभिषेक के निमित्त विरोधियों से लोहा लेने के लिए उद्यत होना

श्रीराम जब बोल रहे थे, नत मस्तक लक्ष्मण विचारें  
फिर सहसा शीघ्रता पूर्वक, दुःख व हर्ष के मध्य आये

भौहों को चढ़ा मस्तक पर, गहरी श्वासें लगे खींचने
मानो बिल में सर्प बैठकर, फुंकार हो लगा मारने

कुपित हुए सिंह के समान, मुख उनका जान पड़ता था
बड़ा कठिन था इस रूप में, उनकी ओर भी जरा देखना

जैसे हाथी सूंड हिलाता, दायाँ हाथ लगे हिलाने
टेढ़ी नजरों से लख बोले, गर्दन को सब ओर घुमाते

धर्म विरुद्ध आप समझते, भाई ! वन को न जाना  
शंका होगी जन-जन मन में, मानी नहीं पिता की आज्ञा

अवहेलना धर्म की होगी, यह शंका है मन में आपके
दैव तुच्छ है, प्रबल बताते, संदेह नहीं दोनों पर करते

स्वार्थ सिद्ध करने हेतु ही, ढोंग धर्म का रचा गया  
यदि ऐसा न होता तो, पहले ही दिया वर होता

लोक विरुद्ध कार्य होगा यह, जिसका आज आरम्भ हुआ
सिवा आपके अन्य किसी का, अभिषेक सहन न होगा

पिता के जिस वचन को मान, मोह में पड़ी आपकी बुद्धि
नहीं मानता उसे धर्म मैं, है निन्दित और अधर्म पूर्ण ही

सब कुछ करने में समर्थ हैं, फिर क्यों इसका पालन करते
है असत्य वरदान की बात, होता है बड़ा दुःख मन में

पुत्र का जो अहित करते हैं, उनका वचन न मानने योग्य
जो कायर है वही मानता, हैं पूजनीय दैव व भाग्य

जो समर्थ है पुरुषार्थ से, भाग्य बदल देने में अपना
बाधा पड़ने पर कार्य में, नहीं शिथिल हो वह बैठता

दैव बड़ा है या पुरुषार्थ, यह लोग आज देखेंगे
देव बली है या मनुष्य, निर्णय इसका भी करेंगे

जिन लोगों ने दैव के बल से, राज्याभिषेक को रुकता देखा
वे ही मेरे पुरुषार्थ से, देखेंगे विनाश को घटता  

अंकुश की भी न करे परवाह, तोड़ के सांकल गज दौड़े
उस मदमत्त की भांति दैव भी, मेरे पुरुषार्थ से लौट पड़े

लोकपाल, त्रिलोकी जन भी, रोक नहीं सकते अभिषेक
कैसे रोक सकेंगे पिताजी, विघ्न डाल राज्याभिषेक  

जिन लोगों ने किया समर्थक, आपस में वनवास का
छिपे रहेंगे वे ही जाकर, चौदह वर्षों तक वन में जा

पिता और उस कैकेयी की, आशा को मैं भस्म करूंगा
अति भयंकर दुःख पायेगा, जो मेरे विरोध में होगा

सहस्त्र वर्ष बीत जाने पर, जब आप वन में जाएँगे  
प्रजापालक रूप में तब भी, पुत्र आपके राजा होंगे





Thursday, December 17, 2015

श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में दैव को ही कारण बताना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वाविंशः सर्गः
श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में दैव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने का आदेश देना 

जिस दैव ने कैकेयी को, ऐसी बुद्धि की प्रदान
वन भेजना मुझे चाहती, प्रेरित करता उसे विधान

विफल मनोरथ कर पीड़ा दूँ, मेरे लिए नहीं यह उचित
दैव को ही तुम कारण समझो, जो मनोभाव हुआ विपरीत

माताओं के प्रति कभी भी, भेद न उपजा मेरे मन में
कैकेयी ने भी तो पहले, अंतर नहीं किया पुत्रों में

वन में मुझे भेजने हेतु, शब्द जो वह लायी उपयोग
कठिन उन्हें उच्चारित करना, साधारण जन न करें प्रयोग

दूजा कौन सा कारण होगा, इस घटना में सिवा दैव के
श्रेष्ठ गुणों से जो युक्त थी, ऐसी बातें कहती कैसे

अचिंतनीय विधान दैव का, न कोई उसको बदल सके
निश्चय ही प्रेरणा से उसकी, उलटफेर हुआ भाग्य में

सुख-दुःख आदि फल कर्मों के, उसके ही विधान से मिलते
कारण जिनका समझ न आता, दैव के ही कर्म कहलाते

नियम त्याग देते तपस्वी, प्रेरित होकर ही दैव से
मर्यादा से भ्रष्ट हुये वे, काम-क्रोध के वश में होते

अकस्मात जो सर पर आये, कार्य विफल कर दे जो पहला
है अवश्य विधान दैव का, इसमें नहीं है दोष किसी का

मन स्थिर हुआ है मेरा, इस तात्विक बुद्धि द्वारा
अभिषेक में विघ्न हुआ पर, दुःख-संताप नहीं हो रहा  

तुम भी कर अनुकरण इसका, दुःख शून्य अब हो जाओ
राज्याभिषेक के लिए रचा जो, आयोजन यह बंद कराओ  

अभिषेक के लिये संजोकर, रखे गये हैं जल कलश जो
तापस व्रत के संकल्प हित, उनसे ही मेरा स्नान हो

अथवा तो है क्या जरूरत, मंगल द्रव्यमय इस जल की
निज हाथ से गया निकाला, साधक होगा वह जल ही

चिंता नहीं करो लक्ष्मण, लक्ष्मी के इस उलटफेर में
राज्य-वन दोनों समान हैं, बल्कि लाभ है वन जाने में

विघ्न का कारण छोटी माता, नहीं करो तुम शंका ऐसी
पिता भी कारण नहीं हैं इसमें, दैव की ही इच्छा थी ऐसी

 इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में बाईसवाँ सर्ग पूरा हुआ.



Wednesday, December 16, 2015

श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में देव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने का आदेश देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

द्वाविंशः सर्गः
श्रीराम का लक्ष्मण को समझाते हुए अपने वनवास में देव को ही कारण बताना और अभिषेक की सामग्री को हटा लेने का आदेश देना

पीड़ा थी लक्ष्मण के मन में, क्रोध और रोष भी भारी
आँखें फाड़े देख रहे थे, जैसे कोई पीड़ित हाथी

मन को वश में रखने वाले, निर्विकार राम बोले तब
सुह्रद, प्रिय, हितैषी था जो, उस भाई से कहे वचन

धीरज का आश्रय लो तुम, क्रोध, शोक को दूर करो
अपमान का भाव त्याग कर, उर में अपने हर्ष भरो

अभिषेक की यह सामग्री, शीघ्र हटा दो इसे यहाँ से
कार्य करो ऐसा ही अब तुम, बाधक न हो वनगमन में

राज्यभिषेक के हेतु अब तक, जो भी था उत्साह तुम्हारा
इसे रोकने में लगा दो, वन गमन में भी तुम सारा

मेरे अभिषेक के कारण, हो रहा दुःख जिसके मन में
शंका न हो उस माता को, करो उपाय अब तुम ऐसे

हो संदेह से दुःख माता को, सहन नहीं इसको कर सकता
दो घड़ी भी इस बात की, नहीं उपेक्षा ही कर सकता  

जानबूझ कर या अनजाने, मुझको याद नहीं आता
छोटा सा अपराध भी किया, माताओं का या पिता का

पिता सदा ही रहते आये, सत्यवादी व पराक्रमी भी
परलोक का भय समाया, रहता उनके मन में भी

भय दूर हो जाये उनका, वही काम मुझे है करना
यदि अभिषेक गया न रोका, वचन न पूरा उनका होगा

मुझे सदा संतप्त करेगा, उनके अंतर का संताप
इन्ही कारणों से हे भाई !, जाऊं वन राज्य को त्याग

कृत कृत्य अब हो जाएगी, कैकेयी मेरे जाने से
हो निश्चिन्त और निर्भय वह, भरत का अभिषेक करावे


Tuesday, December 15, 2015

श्रीराम का पिताकी आज्ञा के पालन को ही धर्म बताकर माता और लक्ष्मण को समझाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

एकविंशः सर्गः

लक्ष्मण का रोष, उनका श्रीराम को बलपूर्वक राज्य पर अधिकार कर लेने के लिए प्रेरित करना तथा श्रीराम का पिताकी आज्ञा के पालन को ही धर्म बताकर माता और लक्ष्मण को समझाना 

जैसे कोई गजराज विशाल, अंधकूप में गिर जाये
जलते हुए लुआठों से फिर, लोग उसे पीड़ा पहुँचायें

जल उठता क्रोध से ज्यों वह, राम हुए थे आवेशित
करुण विलाप यह माँ का सुन, दुःख से जो हुईं अचेत

धर्म में स्थित हो दृढ़ता से, धर्मानुकूल तब बात कही
व्याकुल माता व लक्ष्मण से, कह सकते थे यह राम ही

नहीं छिपा है प्रेम तुम्हारा, भाई, क्या तुम्हें नहीं जानता  
समझो तुम मेरा अभिप्राय, माँ के साथ न तुम दो पीड़ा

धर्म पूर्वक जो भी कृत्य, किये गये हैं पूर्वकाल में
जहाँ धर्म हो अर्थ, काम के, फल वहाँ अवश्य मिलते

धर्म, अर्थ, काम की जैसे, तीनों की साधन है भार्या
रह अनुकूल धर्म पालती, पुत्रवती हो अर्थ साधिका

धर्म आदि चारों पुरुषार्थ, जिस कर्म में नहीं समाहित
नहीं करणीय है वह कर्म, धर्म विरुद्ध कर्म है निन्दित

महाराज हमारे पिता, गुरु हैं, राजा और अति माननीय
क्रोध, हर्ष, या काम से प्रेरित, हर आज्ञा उनकी पालनीय

क्रूर नहीं जो आचरण में, कौन पुत्र होगा ऐसा
बात पिता की जो न माने, धर्म आचरण करने वाला

पालन करूंगा आज्ञा उनकी, नहीं मोड़ सकता हूँ मुख मैं
हम दोनों उनकी आज्ञा में, पति, गति, धर्म हैं वे माँ के

जीवित अभी हैं धर्म प्रवर्तक, धर्ममार्ग पर स्थित हैं वे
माँ कैसे साथ चल सकती, मेरे साथ यहाँ से वन में

आज्ञा दो मुझे जाने की, स्वस्ति वाचन भी कराओ
अवधि पूर्ण होने पर मुझको, निज सम्मुख फिर से पाओ

धर्महीन राज्य के हेतु, नहीं त्याग सकता धर्म को
जीवन अल्पकाल ही रहता, कैसे अपनाऊं अधर्म को

इस प्रकार नर श्रेष्ठ राम ने, माता को प्रसन्न किया
भाई को धर्म समझाकर, मन ही मन संकल्प लिया


 इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में इक्कीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.