Tuesday, March 12, 2024

अनसूया द्वारा सीता का सत्कार

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


सप्तदशाधिकशततम: सर्ग:


श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूया द्वारा सीता का सत्कार 


रामचंद्र की बात सुनी जब, यशस्विनी मिथिलेश कुमारी 

गयीं निकट मुनि पत्नी के, जो थीं धर्म को जानने वालीं 


वृद्धावस्था के कारण वह, हो गयीं थीं अतीव ही शिथिल 

केश श्वेत हुए , झुर्रियाँ तन पर, अंगों में कंपन, हलचल 


शांत भाव से गयीं निकट, जाकर सीता ने नाम बताया 

महाभागा पतिव्रता जान, नत मस्तक हो शीश झुकाया 


हाथ जोड़ कुशल पूछा तब , संयमशीला तपस्विनी का 

धर्मशीला अनसूया माँ ने, फिर सीता से यह वचन कहा 


अति सौभाग्य की बात है,  धर्मपालन की  शुभ दृष्टि पायी 

बंधु बांधवों को त्याग कर, पति के संग जंगल में आयी 


स्वामी वन में हों या नगरी में, भले-बुरे जैसे भी हों  

अभ्युदय होता है उन्हीं का, जिन नारियों को नित्य प्रिय हों  


पति कठोर, धनहीन, मन्मुख हो,  पत्नी के हित है देवता

पति से बढ़ नहीं हितकारी, पत्नी के लिए कोई होता 


निज तपस्या के फल की भाँति, सर्वत्र वह सुख पहुँचाता 

इहलोक और परलोक में, उससे बढ़ हितैषी नहीं होता


जो पति पर शासन करती हैं, कामाधीन स्त्रियाँ असाध्वी

पति का अनुसरण नहीं करके, निज इच्छा से घूमा करतीं 

 

गुण-दोष का ज्ञान नहीं उन्हें, अनुचित कर्म किया करती हैं 

धर्म भ्रष्ट हो जया करतीं, अपयश को भी प्राप्त होती हैं 


किंतु तुम्हारे सम जो नारी, लोक-परलोक का ज्ञान जिसे  

उत्तम गुणों से युक्त हुई, उसे पुण्य कर्म से स्वर्ग मिले 


इसी प्रकार तुम पतिदेव की, सेवा में नित ही लगी रहो 

सतीधर्म का पालन करके, पति को मुख्य देवता समझो 


सदा अनुसरण करती उनका, तुम सच्ची सहधर्मिणी बनो 

सुयश व धर्म मिलेंगे दोनों, सीता, मेरी यह सीख सुनो 





इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, February 28, 2024

श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


सप्तदशाधिकशततम: सर्ग:


श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूया द्वारा सीता का सत्कार 


ऋषियों ने प्रस्थान किया जब, किया राम ने गहरा चिंतन  

उचित नहीं उनका यहाँ रहना, सम्मुख आये कई कारण

 

मन ही मन विचार किया यह, यहीं मिला था भाई भरत से 

स्मृति सभी की नित्य निरन्तर, व्यथित किया करती है शोक से   


इसी आश्रम की धरित्री पर, सेना का पड़ाव होने से  

 अपवित्र हो गई है भूमि यह, हाथी-घोड़ों की लीद से 


हम भी कहीं और ही जायें, निकल पड़े वे यह निर्णय ले

 सीता और लक्ष्मण को ले, अत्रिमुनि के आश्रम पहुँचे थे   


पुत्र की भाँति स्नेह दिखाया, सीता का भी सत्कार किया  

अत्रि मुनि ने आगे बढ़कर, लक्ष्मण को स्वयं संतुष्ट किया 


सबके हित में लगे हुए जो, धर्मज्ञ मुनिश्रेष्ठ अत्रि ने 

धर्म परायणा तापसी पत्नी, अनसूया से शब्द कहे 


दे दुलार कंठ लगाओ, विदेह राज नंदिनी सीता को

  परिचय देते हुए कहा तब, अनसूया का रामचंद्र को


एक समय था दस वर्षों तक, वृष्टि नहीं हुई, जग तपा  था

उग्र तपस्या के प्रभाव से,  उत्पन्न किया फल-मूल यहाँ 


मंदाकिनी की धारा लायीं, दस हज़ार वर्ष तप करके 

वही अनसूया देवी हैं, विघ्न हरे थे सभी ऋषियों के 


देवों के कार्य हेतु इन्होंने, दस रात्रि सम एक रात्रि की 

माता की भाँति पूज्या हैं, राम ! तुम्हारे लिए यह देवी 


वंदनीया तपस्विनी हैं यह, सब प्राणियों हेतु जगत के

विदेहनंदिनी देवी सीता, जाकर उनके आशीष लें 


‘अच्छा’ कहकर सीता से तब, श्रीराम ने वचन कहे तभी 

 प्रयास करो निज कल्याण का, तुमने मुनि की बात है सुनी

 

अपने सत्कर्मों के बल पर, अनसूया जो कहलाती हैं 

शीघ्र निकट उनके जाओ, आश्रय लो तुम इस योग्य हैं



Tuesday, January 2, 2024

वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षोडशाधिकशततम: सर्ग:


वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना 

 

पापजनक अपवित्र द्रव्य से, तपस्वियों का स्पर्श कराके 

ऋषियों को घनी पीड़ा  देते, आश्रमों में रहते छिप के 


असावधान तपस्वियों का फिर, कर विनाश वहाँ बस जाते 

यज्ञ सामग्री बिखरा देते, घट फोड़, अग्नि बुझा देते  


दुरात्मा उन राक्षसों के भय से, त्याग आश्रमों को ऋषिगण 

अन्य स्थान में जाना चाहें, करूँ में इनका पथ प्रदर्शन 


 शारीरिक हानि पहुँचायें, इससे पूर्व ही हम जाएँगे 

अश्व मुनि का आश्रम निकट है, उसी में हम निवास करेंगे 


खर करेगा अनुचित बर्ताव, आपके प्रति भी हे श्री राम 

उससे पूर्व आप यदि चाहें, साथ हमारे करें प्रस्थान 


यद्यपि आप सदा सावधान, राक्षसों के दमन में समर्थ 

किंतु सीता सहित यहाँ रहना, संदेह जनक व दुख दायक 


थे अन्यत्र जाने को उत्सुक, रोक नहीं सके राम उन्हें 

अभिनंदन करके उन्होंने,  किया प्रस्थान साथ समूह के 


पीछे जाकर विदा दी उनको, प्रणाम किया कुलपति को भी

 सुन उपदेश लौट आये आश्रम, राम अनुमति लेकर उनकी


ऋषियों से जो रिक्त हुआ था, उस आश्रम को नहीं त्यागा 

ऋषि समान जीवन था राम का, रक्षा का सामर्थ्य भरा था 


 दृढ़ विश्वास जिन्हें ऐसा था, उन ऋषियों ने किया अनुसरण 

जिन्हें भरोसा था राम पर , नहीं गये वे दूसरे आश्रम 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ.