Tuesday, April 29, 2014

उमा देवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना

 श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षट्त्रिंशः सर्गः

देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत करना तथा उमा देवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना 

तब उनके ऐसा कहने पर, बोले थे शिव से यह देव
पृथ्वीदेवी करेंगी धारण, क्षुब्ध हुआ जो गिरेगा तेज

देवों का जब सुना कथन यह, महादेव ने छोड़ा तेज
वन, पर्वत संग सारी धरती, हुई व्याप्त हो गयी सतेज

‘वायु के सहयोग से इसको’, अग्निदेव से बोले देव
धारण कर लो भीतर अपने, शिव का है यह महातेज

अग्नि से जब व्याप्त हुआ, परिणत हुआ श्वेत पर्वत में
सरकंडों का दिव्य वन भी, प्रकट हुआ उस प्रदेश में

सूर्य और अग्नि सम हुआ, तब कार्तिकेय का प्रादुर्भाव
ऋषियों सहित सभी देवों में, बढ़ी प्रसन्नता, भक्तिभाव

पूजन किया उमा-शिव का, पर भरी क्रोध में गिरिजानन्दिनी
रोषपूर्वक शाप दिया तब, देवताओं व पृथ्वी को भी

पुत्र-प्राप्ति की इच्छा थी, रोक दिया देवों तुमने
होंगी पुत्रहीन पत्नियाँ, रहो अयोग्य पुत्र पाने में

पृथ्वी को भी शाप दिया तब, बहुतों की भार्या होगी
नहीं रहेगा एक सा रूप, भूमे ! तेरी खोटी बुद्धि

मेरे क्रोध से कलुषित होकर, तू भी वह सुख न पायेगी
पुत्र जनित जो सुख है सुंदर, अनुभव न उसका जानेगी

देवों को जब देखा पीड़ित, उमादेवी के शाप से शिव ने
पश्चिम दिशा की ओर बढ़ गये, हिमालय के उत्तर भाग में

हुए तपस्या में रत दोनों, उस पर्वत के एक शिखर पर
यह विस्तृत वृतांत कहा, अब सुनो कथा गंगा की रघुवर

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छत्तीसवां सर्ग पूरा हुआ.


Thursday, April 10, 2014

देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षट्त्रिंशः सर्गः

देवताओं का शिव-पार्वती को सुरतक्रीडा से निवृत करना तथा उमा देवी का देवताओं और पृथ्वी को शाप देना

मुनि की बात समाप्त हुई जब, किया प्रेम से अभिनन्दन
धर्मयुक्त कथा उत्तम यह, बोले दोनों राम, लक्ष्मण

 हे विस्तृत वृतांत के ज्ञाता, अब विस्तार से हमें सुनाएँ
गिरिराज हिमवान की पुत्री, गंगा की महिमा बतलाएं

दिव्यलोक था माँ गंगा का, मानव लोक में कैसे आयीं
तीन मार्ग में हुईं प्रवाहित, ‘त्रिपथगा’ कैसे कहलायीं

हे धर्मज्ञ ! तीन धाराएँ, तीन लोक में क्या करतीं
रामचन्द्र ने जब पूछा यह, मुनि ने तब यह कथा कही

उमा गयीं नव वधू रूप में, नीलकंठ भगवान निकट जब  
क्रीडा-विहार किया आरम्भ, बीत गये सौ दिव्य वर्ष तब

महादेव को देवी के गर्भ से, पुत्र न कोई प्राप्त हुआ पर
प्रयत्न किया रुक जाये क्रीडा, ब्रह्मा आदि देवों ने तब

इतना काल बीत जाने पर, रूद्र तेज से जो जन्मेगा
होगा वह निश्चित ही वीर, कौन तेज को सहन करेगा

यह विचार सब देव गये तब, शिव को कर प्रणाम बोले
कृपा करें आप देवों पर, लोक के हित में तत्पर रहते

क्रीडा से हो निवृत आप, करें तपस्या संग उमा के
सहन नहीं कर पाएंगे ये, तेज आपका लोक यहाँ के

निज तेज को सबके हित में, स्वयं में ही धारण अब कर लें
लोकों की होगी रक्षा तब, न इनका विनाश कर डालें  

स्वीकार किया उनका अनुरोध, देवों की यह बात सुनी जब
उमासहित तेज धारूंगा, पृथ्वी आदि हों शांत अब

किन्तु यदि हो जाये स्खलित, हो क्षुब्ध मेरा यह तेज
कौन उसे धारेगा, कहें, देवों से पूछते महादेव





Wednesday, April 2, 2014

विश्वामित्रजी का उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

पंचत्रिंशः सर्गः

शोणभद्र पार करके विश्वामित्र आदि का गंगाजी के तट पर पहुंचकर वहाँ रात्रिवास करना तथा राम जी के पूछने पर विश्वामित्रजी का उन्हें गंगाजी की उत्पत्ति की कथा सुनाना 

देवकार्य की सिद्धि हेतु, गंगा को माँगा देवों ने
आगे चलकर हुईं अवतीर्ण, त्रिपथगा नदी रूप में

त्रिभुवन के हित की इच्छा से, गिरिराज हिमवान ने
लोकपावनी निज पुत्री को, धर्मपूर्वक दिया उन्हें

हुए कृतार्थ उन्हें पाकर वे, गंगा जी को लिए गये
गिरिराज की दूजी कन्या,  हुईं तल्लीन तपस्या में

उग्र तप में हुईं संलग्न, विश्व वंदिता उमा उत्तम
ब्याही गयीं भगवान रूद्र से, अति समर्थ जो हैं अनुपम

रघुनन्दन ! इस प्रकार ये, कन्याएं हैं हिमालय की
सारा जग झुकता चरणों में, उमा व गंगा दोनों के ही

तुम इसका भी राज सुनो, त्रिपथगामिनी कैसे हुईं वे
पहले गईं आकाश मार्ग फिर, स्वर्ग से हो धरा पर ये

देव नदी के रूप में गंगा, देव लोक में हुईं आरूढ़
जल रूप में हुईं प्रवाहित, गयीं रसातल कर पाप दूर

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में पैंतीसवां सर्ग पूरा हुआ.