Friday, March 29, 2019

शत्रुघ्न का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


अष्ट सप्ततितमः सर्गः

शत्रुघ्न का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी  के कहने से उसे मूर्छित अवस्था में छोड़ देना

तेरहवें दिन कार्य पूर्ण कर, भरत शोक से उबर न पाए
निकट राम के जाने का जब, मन में वह विचार थे लाये

लक्ष्मण के छोटे भाई ने, आकर वचन कहे ये उनसे
स्वजन हों या अन्य कोई भी, राम सदा सबके दुःख हरते

सत्वगुण से सम्पन्न हैं जो, आश्रय जिनका सब लेते थे
एक स्त्री के द्वारा वे, कैसे जंगल में भेज दिए गये

बल, पराक्रम से सम्पन्न जो, लक्ष्मण नामक शूरवीर हैं
वे भी कुछ नहीं कर पाए, इसका अति ही दुःख मुझको है

कैद पिता को कर उन्होंने, इस संकट से क्यों न बचाया
राजा नारी के वश में थे, उन्हें मार्ग पर क्यों न लाया

शत्रुघ्न जब भरे रोष में, ऐसे वचन भरत से कहते
पूर्व द्वार पर खड़ी हो गयी, कुब्जा सजी हुई रत्नों से

उत्तम चन्दन का लेप लगा, रानियों से वस्त्र पहनी थी
भांति-भांति के आभूषण धर, बँधी वानरी सम लगती थी

वही बुराई की जड़ भी थी, मूल कारण थी वनवास का
दृष्टि पड़ी तो द्वारपाल ने, निर्दयता से उसे घसीटा

दे शत्रुघ्न के हाथ में  कहा, क्रूर कर्म की कर्त्ता यह है
जिसके कारण राम गये वन, पिता आपके देह त्याग गये

जैसा आप समझते उचित, बर्ताव करें वैसा ही इससे
द्वारपाल की बात सुनी तो, दुःख और बढ़ा उनके मन में

कर्त्तव्य का निश्चय करके, कहा सुना कर सभी लोगों से
पिता और भाइयों को मेरे, दुःख पहुँचा इस पापिनी से 

बल पूर्वक पकड़ के कहा, इस क्रूर कर्म का फल यह भोगे
गूंज उठा महल वह सारा, चीखी जब वह भय के मारे 

फिर तो उसकी सारी सखियाँ, संतप्त हो लगी भागने
वहीं रहेंगे हम सुरक्षित, कौशल्या की शरण में चलें


Friday, March 15, 2019

भरत का पिता के श्राद्ध में ब्राह्मणों को बहुत धन-रत्न आदि का दान देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्



सप्तसप्ततितमः सर्गः

भरत का पिता के श्राद्ध में ब्राह्मणों को बहुत धन-रत्न आदि का दान देना, तेहरवें दिन अस्थि संचय का शेष कार्य पूर्ण करने के लिए पिता की चिता भूमि पर जाकर भरत और शत्रुघ्न का विलाप करना और वसिष्ठ तथा सुमन्त्र का उन्हें समझाना

दस दिन जब व्यतीत हो गये, किया ग्यारहवें दिन का श्राद्ध
आत्मशुद्धि हित अगले दिन भी, मासिक व सपिण्डीकरण श्राद्ध

धन, रत्न, अन्न, वस्त्रों संग, कई पशुओं का भी दान किया
ब्राह्मणों को विनीत भाव से, स्वर्ण-चाँदी भी प्रदान किया

पारलौकिक हित के हेतु, दास-दासियों संग दी सवारी
बड़े-बड़े घर भी दे डाले, विधिपूर्वक हर रीति पूर्ण की

प्रातःकाल तेहरवें दिन पर, भरत विलाप लगे थे करने
अस्थिसंचय हेतु जब आये, दुःख से भरे गले से कहने

सौंप दिया था पिता आपने, बड़े भाई के हाथ मुझे
कोई नहीं आश्रय अब मेरा, चले गये जब वे वन में 

जो अनाथ हुई हैं देवी, जिनका राम गया उन्हें तज के
उन कौसल्या माँ को दे पीड़ा, आप कहाँ पर चले गये

चितास्थल वह पिता का उनके, भरा हुआ था चिता भस्म से
बिखरी हुई जली हड्डियाँ, देख वहाँ डूबे अति दुःख में

दीनभाव से रोकर उस क्षण, गिरे भूमि पर होकर व्याकुल
इंद्र ध्वज खिसके ज्यों नीचे, ऊपर रखने की जिसे कोशिश 

सभी मंत्री निकट आ गये, पावन व्रत धारी भरत के 
ज्यों ययाति के निकट गये अष्टक, जब स्वर्ग से वे गिरे थे

देख भरत को शोक से व्याकुल, शत्रुघ्न भी हुए अचेत
स्मरण करके पिता स्नेह को, सुध-बुध खोकर हुए निस्तेज

किया मंथरा ने प्राकटय, कैकेयी सम ग्राह है जिसमें
डूब रहे हैं हम बेबस हो, वरदानमय शोक समुद्र में  

Tuesday, March 5, 2019

राजा दशरथ का अंत्येष्टि संस्कार



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


षट्सप्ततितमः सर्गः

राजा दशरथ का अंत्येष्टि संस्कार 

राजा की अग्निशाला से, जो अग्नियाँ लायी गयी थीं
ऋत्विजों और याजकों द्वारा, विधिवत हवन हुआ उनसे ही

तत्पश्चात राजा के शव को, श्मशान ले गये परिचारक
अश्रुओं से गला रुंधा था,  वे अति पीड़ित  थे मन ही मन

राजकीय पुरुष आगे चलते,चाँदी, स्वर्ण, वस्त्र लुटाते
की चिता की तैयारी फिर, चन्दन लाकर रखा किसी ने

गुगुल, सरल, पद्मक, देवदारु, ला लाकर डालते चिता में
राजा के शव को रखा, सुगन्धित पदार्थ भी तरह-तरह के

अग्नि में आहुतियां देकर, वेदोक्त मन्त्रों का जाप किया
सामगान करने वालों ने, विधि अनुसार तब गान किया

कौसल्या आदि सभी रानियाँ, शिविकाओं, रथों पर आयीं
परिक्रमा की चिता की सबने, ऋत्विजों ने भी रीति निभायी

करूण क्रन्दन रानियों का वह, चीत्कार सम लगता था
बेबस उन रोती हुईं का, काफिला सरयू  तट पर उतरा

भरत, रानियों, पुरोहितों ने, राजा हित दी जलांजलि तब
दुःख से नगर में समय बिताया,  भू पर सोये दस दिन तक  

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छिहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


Friday, March 1, 2019

राजा दशरथ का अंत्येष्टि संस्कार



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


षट्सप्ततितमः सर्गः
राजा दशरथ का अंत्येष्टि संस्कार

शोक से जो संतप्त हुए थे, कैकेयीकुमार भरत से
बोले वचन ये वशिष्ठ मुनि ने, वक्ताओं में जो श्रेष्ठ थे

हो कल्याण सदा तुम्हारा, व्यर्थ शोक को अब तुम त्यागो
हो दाह संस्कार शीघ्र राजा का, कर्त्तव्य पर अब ध्यान दो

साष्टांग प्रणाम किया तब, राजपुत्र ने भूमि पर गिरके
किया प्रबंध प्रेत कर्म का, तब मंत्रियों आदि से कह के

तेल भरे कड़ाहे से तब, शव राजा का बाहर निकाला
जैसे भूमि पर शयन कर रहे, पीला मुख देख लगता था

धो-पोंछ कर देह राजा की, उत्तम शय्या पर लिटाया
पुत्र भरत ने देख पिता को, करुण स्वरो में शोक मनाया

नहीं पहुंच पाया आप तक, क्योंकि मैं परदेश में ही था
वन भेजकर श्रीराम को , कैसे स्वर्गलोग को गमन किया

भ्राता राम सदा करते जो, अनायास ही कर्म महान
नहीं दिखाई देते हैं अब, किया आपने भी प्रस्थान

गमन स्वर्ग का किया आपने, वन की राह राम ने पकड़ी
निश्चिन्त हो कौन करेगा,  देखभाल आपकी प्रजा की 

बिना आपके विधवा हुई है,  भूमि यह शोभित न होती
चन्द्र हीन रात्रि की भांति, यह श्रीहीन सी प्रतीत हो रही

दीन भाव से आकुल होकर, जब भरत विलाप करते थे
शांति पूर्ण संस्कार अब करो, पुनः वसिष्ठ मुनि यही बोले

‘अच्छा’ कहकर शिरोधार्य की, तब मुनिवर की बात भरत ने
आचार्य, पुरोहित, ऋत्विक आदि, सब को समोचित आदेश दिए