Monday, October 31, 2011

अन्नमय कोष


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

अन्नमय कोष

अन्न से ही जो उत्पन्न होता, अन्न से जीता अन्नमय है
त्वचा, चर्म आदि से बना जो, शुद्ध आत्मा यह नहीं है

जन्म पूर्व व बाद मृत्यु के, अन्न मय कोष नहीं रहता
क्षणिक, अस्थिर, जड़ तन यह, भाव, विकारों का है ज्ञाता

अंग-भंग होने पर भी, जीवित पुरुष रहा करता है
शासित है जो स्वयं देह यह, शासक कैसे हो सकता है

वह आत्मा पृथक है इससे, देह के धर्म, कर्म जो जाने
जड़ ही स्वयं को देह मानते, विवेकी सत्य खुद को माने

असत् देह में भ्रम से उत्पन्न, अहंता को जो न त्यागे
मोक्ष का वह नहीं अधिकारी, जो नर ब्रह्म में ना जागे

छाया, स्वप्न, मन में उपजी, देह को जैसे असत् जानते
ज्ञानी जन इस जीवित देह को, उसी प्रकार न सत् मानते

प्राणमय कोष

कर्मेंद्रियों से युक्त प्राण जो, स्थूल देह में विचरण करता
श्वास रूप में आये-जाये, वही प्राणमय कोष कहलाता

इसे नहीं प्रतीति कोई, इष्ट-अनिष्ट यह नहीं जानता
आत्म तत्व इससे पृथक है, ज्ञानी ऐसा ही मानता

मनोमय कोष
अन्नमय व प्राण मय को, व्याप्त किये ही जो रहता है
ज्ञानेन्द्रियाँ व मन मिलकर, मनोमय कोष कहाता है

मै, मेरा इसमें ही होते, है बलवान यह मोहित करता
विषयों में संलिप्त करे यह, इच्छाओं को उत्पन्न करता
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Thursday, October 27, 2011

आत्म-अनात्म विवेक


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


आत्म-अनात्म विवेक

परम पिता की शुद्ध कृपा का, जब साधक पर नीर बहेगा
बंधन घोर अविद्या का, विवेक खड्ग से तभी कटेगा

कोटि कर्म करके भी साधक, इस बंधन को काट न सकता 
व्यर्थ अस्त्र-शस्त्र हैं सारे, ज्ञान खड्ग से ही यह कटता

सुने हुए में निश्चय करता, स्वधर्म में हो प्रतिष्ठित
चित्त शुद्ध होता है उसका, परमात्मा में होता स्थित

 जल से ही उत्पन्न होती है, ज्यों तालाब पे छाई काई
जल को ही ढक लेती है, जिससे जल न पड़े दिखाई

ऐसे ही यह सत् आत्मा, स्वयं ही अहं को उत्पन्न करता
अज्ञान से ढका हुआ यह, स्वयं को ही नजर न आता

काई को यदि कोई हटा दे, शुद्ध नीर पी प्यास बुझाये
पंच कोष के पार जा सके, आत्मा का वह दर्शन पाए

बंधन यदि काटना चाहे, आत्म-अनात्म का करे विवेक
स्वयं को सत् चिद् आनंद जाने, रहे प्रसन्न वह मानव नेक

मूँज से जैसे सींक पृथक कर, उपयोगी हम उसे बनाते
द्रष्टा से दृश्य पृथक कर, आत्म भाव में मुक्त कहाते 

Sunday, October 23, 2011

देह अध्यास



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


देह अध्यास

अनात्म में जो आत्म देखता, जन्म मरण क्लेशों को पाता
असत् देह को सत् मानकर, रक्षण, पोषण आदि करता

तमोगुण अज्ञान का कारण, कुछ का कुछ है दिखलाता
यही है बंधन घोर सदा जो, रस्सी को है सर्प बताता

नित्य, अखंड आत्मतत्व को, तमोमय अज्ञान ढक लेता
जैसे परम सूर्य को नभ में, राहू है आच्छादित करता

निर्मल अति तेज युक्त जो, आत्म तत्व जब ढक जाता
देह को ही मैं मानकर, काम, क्रोध आदि से बंधता

भ्रमित हुआ सा तब यह जीव, भव सागर में गोते खाता
महामोह ग्राह के द्वारा भी, निज बुद्धि से भी ठगा जाता

सूर्य तेज से उत्पन्न होती, बदली ज्यों सूरज को ढकती
प्रकट आत्म से अहंकार भी, आत्मा को आवृत करता

नभ पर जब घनघोर घटा हो, शीत पवन तन को चुभती है
बुद्धि पर जब तमस घना हो, नाना यह दुःख उपजाती है

आवरण व विक्षेप ही जग में, बंधन जीव के हैं भारी
इनसे ही मोहित हो मानें, देह को आत्मा सब नर-नारी

यह संसार इक वृक्ष है यदि, अज्ञान ही बीज है इसका
देह अध्यास है अंकुर सम, पत्र राग, कर्म जल जिसका

विषय पुष्प हैं इसके मोहक, शाखा प्राण, उपशाख इन्द्रियाँ
नाना कर्मों से जो उपजा, दुःख वह फल, जीव भोक्ता

है अनादि और अनंत, बंधन जो अज्ञान से उपजा
उत्पन्न करता यही प्रवाह, जन्म, मरण, जरा, मृत्यु का

Wednesday, October 19, 2011

सत्व गुण


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

सत्व गुण

जल सम निर्मल सत्व गुण है, रज, तम से मिल प्रेरित करता
प्रतिबिम्बित हो इसमें आत्मा, जड़ पदार्थ प्रकाशित करता

यम, नियम के प्रति हो श्रद्धा, भक्ति व मोक्ष अभिलाषा
त्याग असत् का, दैवी सम्पति, धर्म यही है सत गुण का

रहे अमानी, सदा प्रसन्न, तृप्त, शांत, परम में स्थित
सतो गुणी को यही शोभते, नित्य रहे आनंद समाहित

कारण शरीर

तीनों गुणों से युक्त हुआ जो, कारण देह यही कहलाता
बुद्धि जब विलीन हो जाती, सुषुप्ति में अभिव्यक्ति पाता

अनात्मा

देह, इन्द्रिय, मन व प्राण, अहं, विषय, भूत, अव्यक्त
हैं असत् ये सभी कार्य, अनात्म कह कर करते व्यक्त

आत्मा

परम का स्वरूप है सुंदर, जिसे जानकर मोक्ष है मिलता
नित्य पदार्थ, आधार अहं का, पंचकोश से पार जो मिलता

जाग्रत, स्वप्न, सुषुप्ति का, जो मन, बुद्धि का साक्षी
अहं भाव से स्थित रहता, पल-पल जो देखे वृत्ति

जो स्वयं सबको देख रहा है, किन्तु जिसे न कोई देखे
बुद्धि को प्रकाशित करता, बुद्धि न पर उसको देखे

जिसने सारे विश्व को व्यापा, जिसे न कोई व्याप्त कर सके
आभास रूप यह जगत अखिल, जिसके भासने पर ही दिखे

जिसके होने मात्र से ही, देह, इन्द्रियाँ, मन वर्तते
नित्य ज्ञान स्वरूप जो सत्ता, जिससे विषय जाने जाते

एक रूप है, बोध मात्र भी, आनंद रूप, नित्य अखंड
अंतर आत्मा, पुराण पुरुष भी, प्राण, इन्द्रियों का वाहक

बुद्धि रूप गुफा में स्थित, इक अव्यक्त आकाश के भीतर
सूर्य समान तेज से अपने, प्रकाशित है परम सुखकर

मन व अहंकार का ज्ञाता, अनात्म को वही जानता
अविकारी, अकर्ता है वह, उनसा बन भी भिन्न ही रहता

न जन्मता, न ही मरता, बढ़ता नहीं है कभी न घटता
नित्य तत्व है इस घट में, घटाकाश सा लीन न होता

पर प्रकृति से, ज्ञान स्वरूप, निर्विशेष परम आत्मा
सत्-असत् का ज्ञान कराए, साक्षी है वह, वही है द्रष्टा

संयत चित्त हुआ जो साधक, प्रसन्न चित्त से उसको जाने
भव सागर को तर जायेगा, ब्रह्म रूप में उसको माने

 

 


Monday, October 17, 2011

माया



श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

माया

अव्यक्त है जिसकी संज्ञा, त्रिगुणात्मक अविद्या, माया
है अनादि परा शक्ति यह, जगत बना है जिससे काया  

न सत् है यह न ही असत् है, न ही यह उभय रूप है
भिन्न अभिन्न न भिन्नाभिन है, अंग सहित न अंग रहित है

अनिर्वचनीय, अद्भुत है यह, ब्रह्म ज्ञान से ही मिट पाती
तीन गुणों से जग को बांधे, शक्ति वह माया कहलाती

रजो गुण

क्रिया धर्म है रजो गुण का, राग-द्वेष उससे होते हैं
सुख-दुःख आदि मनो विकार, राजस गुण से होते हैं

काम, क्रोध, लोभ व दम्भ, असूया, ईर्ष्या व अभिमान
मत्सर भी रजोगुणी है, जीव को हो बन्धन महान

तमो गुण

होता कुछ, दिखाता कुछ है, तमो गुण की यही है चाल
जग का आदि कारण यही है, सत्य ढके आवरण डाल

चाहे हो विद्वान, चतुर भी, भ्रम उसका नहीं जाता
तमोगुण से ग्रस्त हुआ जो, सत्य नहीं समझ पाता

ब्रह्म नहीं है यह मानता, मैं देह हूँ ऐसा निश्चय
संदेहों से घिरा रहे वह, प्रपंच बना लेता आश्रय

जड़ बुद्धि अज्ञानी रहता, निद्रा, आलस उसे घेरता
तमो गुण से युक्त हुआ जो, बन प्रमादी दुःख झेलता

Friday, October 14, 2011

विवेक चूड़ामणि



सूक्ष्म शरीर (शेष भाग)

स्वप्न में यह कर्ता है बनता, स्वयं ही भिन्न रूप यह धरता
जाग्रत में जो अनुभव होते, सूक्ष्म देह ही उन्हें दिखाता

साक्षी किन्तु रहे असँग, कर्मों से वह लिप्त न होता
सूक्ष्म देह है साधन उसका, स्वयं सदा ही मुक्त ही रहता

नेत्र, श्रवण यदि रोगी हैं, दोष उन्हीं के माने जाते
आत्मा के वे धर्म नहीं हैं, उसको ये छू भी न पाते

प्राण

श्वास-प्रश्वास, जम्हाई, छींक, कम्पन तन का या हिलना
ये सारे प्राणों से संभव, भूख-प्यास भी धर्म प्राण का

अहंकार

देह भीतर, इन्द्रियों में, चिदाभास के तेज से व्याप्त
मैं हूँ अंतः करण में स्थित, अहंकार होता है ज्ञात

कर्ता यही भोक्ता भी है, तीन गुणों से युक्त हो रहता
सुख-दुःख धर्म अहंकार के, सदा अलिप्त आत्मा रहता

आत्मा है प्रेम का कारण

विषय सुखद न होते स्वयं में, उन्हें आत्मा प्रिय बनाता
एक आत्मा के होने से, सारा खेल रचा जाता

सदासुख स्वरूप आत्मा, दुःख से सदा दूर ही रहता
नींद में कोई विषय नहीं है, फिर भी आनंद अनुभव होता

श्रुति यही कहती आयी है, प्रत्यक्ष भी कर लें ज्ञान
वेद-पुराण यही कहते हैं, मौजूद अनुमान-प्रमाण
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Wednesday, October 12, 2011

सूक्ष्म शरीर




श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि

देहासक्ति

है अनादि अविद्या का बंधन, कर्त्तव्य है मुक्ति इससे
देह मात्र का पोषण करता, स्वयं का हो विनाश ही उससे

जो शरीर पोषण में रत है, आत्म तत्व देखना चाहे
ग्राह पकड़ कर मूढ़ बुद्धि वह, नदी पार करना चाहे

मोह पर विजय हुई है जिसकी, वही मोक्ष पद का अधिकारी
मोह महामृत्यु जो जाने, वही परम पद पाए भारी

देह कर्मों से मिला हुआ है, आत्मा का स्थूल भोगायतन
जाग्रत में होती अनुभूति, स्थूल पदार्थ का होता अनुभव

स्थूल से स्थूल को भोगें, जाग्रत में इसकी प्रधानता
इसके कारण जगत दीखता, जैसे गृहस्थी का घर होता

जन्म, जरा, मरण होते हैं, बचपन और जवानी इसमें
वर्णाश्रम भी यही पालता, मान-अपमान भी होते इसमें

सूक्ष्म शरीर

पांच ज्ञान इन्द्रियाँ तन में, पांच ही हैं कर्म इन्द्रियाँ
 मन, बुद्धि, चित्त और अहं, अंतः करण चार से बनता

मन संकल्प-विकल्प का कर्ता, निश्चय बुद्धि है करती
 चिंतन से चित्त कहलाता,  मैं, मैं कहता अहंकार ही

पांच प्राण भी जिसमें होते, सूक्ष्म शरीर उसे कहते
सूक्ष्म इन्द्रियां, कर्म, काम भी, अविद्या भी इसमें होते

कर्म फलों का ज्ञान कराए, सूक्ष्म शरीर अपन्ची कृत
दस इन्द्रियाँ, अंत करण मिल, पंच भूत सँग यही पुर्यष्टक
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Monday, October 10, 2011

स्थूल देह


श्री मद् आदि शंकराचार्य द्वारा रचित
विवेक – चूड़ामणि


प्रश्न किया जो तूने साधक, सूक्ष्म और गम्भीर अति
भव बंधन से तरना चाहे, सावधान हो, दूँ यह मति

प्रथम हेतु वैराग्य मोक्ष का, आसक्ति का त्याग है दूजा
श्रवण, मनन, ध्यान करे फिर, द्वार खुलेगा फिर मुक्ति का

आत्म-अनात्म विवेक कह रहा, भली-भांति तू इसे विचार
मन में धारण कर ले इसको, यदि चाहे निज का उद्धार

स्थूल देह

मज्जा, अस्थि, मेद, मांस, रक्त, चर्म और त्वचा
सप्त धातुओं से निर्मित हैं, चरण, पीठ, मस्तक व भुजा

कोई ‘मैं’ इस देह को मानता, कोई ‘मेरा’ है कहता
मोह आश्रय तन मानव का, स्थूल शरीर कहा जाता

क्षिति, जल पावक, गगन, समीर, पंच भूत जब मिल जाते
स्थूल देह के कारण होते, पांच विषय इनसे बन जाते

इन विषयों में बंधे हुए जन, कर्म दूत से प्रेरित होते
उच्च-निम्न अनेक योनियाँ, कर्मों के बल पर पाते

पांच विषय

मीन, पतंग, गज, सारंग, भ्रमर मृत्यु को हैं पाते
एक-एक विषय से बंध कर, व्यर्थ में वे मारे जाते

पांचों से जो बंधा हुआ है, मानव कैसे बच सकता है
विष सम घातक विषय हैं जो, क्यों न उनमें फँस सकता है

वही मोक्ष का भागी होगा, जो इस बन्धन से छूटे
दर्शन छहों पढ़ें हो चाहे, विषयी न मुक्ति पाए

क्षणिक हुआ वैराग्य जिसका, आशा ग्राह डूबा देगा
दृढ़ वैराग्य से जो मारे, वही पार भव सागर होगा

पग-पग पर मृत्यु ने घेरा, जो विष रूपी विषय न त्यागे
जो सन्मार्ग पर चल पड़ता है, इक न इक दिन वह जागे

यदि तुझे मुक्ति की इच्छा, विष रूपी विषयों को तज दे
शम, दम, दया और सरलता, संतोष, क्षमा का पी अमृत ले