Tuesday, April 28, 2015

राजा दशरथ के अनुरोध से वसिष्ठ का सूर्यवंश का परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मण के लिए सीता और उर्मिला को वरण करना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 


सप्ततितम सर्गः
राजा जनक का अपने भाई कुशध्वज को सांकाश्या नगरी से बुलवाना, राजा दशरथ के अनुरोध से वसिष्ठ का सूर्यवंश का परिचय देते हुए श्रीराम और लक्ष्मण के लिए सीता और उर्मिला को वरण करना

तत्पश्चात जब हुआ सवेरा, यज्ञ कार्य कर लिया जनक ने
वाक्य पटु राजा ने कहे तब, वचन पुरोहित शतानंद से

ब्रहमण ! मेरे महातेजस्वी, धर्मात्मा भाई कुशध्वज
सांकाश्या नगरी में रहते, इक्षुमती नदी के तट पर

सुंदर बहुत स्वर्गलोक सम, है विस्तृत नगरी उनकी
परकोटों की रक्षा हेतु, यंत्र लगे हैं विशाल अति

भाई को देखना चाहता, शुभ अवसर पर वे भी आयें
इस यज्ञ के संरक्षक वे, समारोह का सुख उठायें

राजा के ऐसा कहने पर, धीर दूत वहाँ आये कुछ
 चले बुलाने कुशध्वज को, द्रुतगामी अश्वों पर चढ़

मिथिला का समाचार दे, अभिप्राय राजा का कहा
कुशध्वज ने वचन सुने, तत्क्षण ही प्रस्थान किया

मिथिला में आ मिले जनक से, किया पुरोहित को नमन
दिव्य सिंहासन पर आ बैठे, बुलवाया मंत्री सुदामन

कहा मंत्री से राजा ने, जाएँ नृप दशरथ के पास
पुत्रों व मंत्रियों सहित, उन्हें बुला कर लायें आप

मंत्री का निमन्त्रण पाकर, दशरथ जनक के पास गये
परिचय दिया वसिष्ठ मुनि का, पूज्य इक्ष्वाकु कुल के

मुनि वसिष्ठ बोले जनक से, स्वयंभू ब्रह्मा अविनाशी
उनसे उत्पन्न हुए मरीचि, कश्यप जिनके हैं पुत्र ही

कश्यप से विवस्वान हुए, उनसे वैवस्वत मनु जन्मे
मनु पहले प्रजापति थे, जिनसे इक्ष्वाकु जन्मे

वही प्रथम राजा अवध के, कुक्षि नामक पुत्र हुआ
कुक्षी से विकुक्षि नामक, कान्तिमान पुत्र जन्मा

उनके पुत्र हुए बाण जो, महातेजस्वी थे प्रतापी
जिनके पुत्र हुए अनरण्य, जिनसे पृथु महातेजस्वी

पृथु से जन्मे थे त्रिशंकु, धुन्धुमार थे जिनके पुत्र
युवनाश्व का जन्म हुआ तब, मान्धाता थे जिनके पुत्र

सुसन्धि नामक इक पुत्र, मान्धाता से तब जन्मे थे
दो पुत्रों के पिता बने जो, ध्रुवसंधि व प्रसेनजित थे

ध्रुवसन्धि से भरत हुए थे, महातेजस्वी असित भरत से
हैहय, ताल्जन्घ, शशबिन्दु, शत्रु बने असित राजा के

किया सामना शत्रुओं का तब, हुए प्रवासी असित नरेश
दो रानियों के संग राजा, रहने लगे हिमालय प्रदेश

प्राप्त हुए वहीं मृत्यु को, गर्भवती थीं दो रानियाँ
गर्भ नष्ट हो जाये उसका, इक ने दूजी को विष दिया

उसी समय उसी पर्वत पर, मुनि च्यवन तपस्या करते
वहीं श्रेष्ठ आश्रम था उनका, भृगुकुल में जो जन्मे थे

दिया गया था जिसे जहर, कालिंदी नाम रानी का
उत्तम पुत्र की थी अभिलाषा, मुनि को जा प्रणाम किया

कहा मुनि ने उस रानी से, कान्तिमान बालक गर्भ में  
गर सहित उत्पन्न वह होगा, मुक्त रहो तुम हर चिंता से

सगर नाम हुआ बालक का, जिसका पुत्र हुआ असमंज
असमंज का अंशुमान था, जिसका पुत्र हुआ दिलीप

हुए भगीरथ नृप दिलीप से, जिससे ककुत्स्थ जन्मे थे
उनसे रघु, रघु से प्रवृद्ध, शाप से जो राक्षस हुए थे

कल्माषपाद नाम भी उनका, शंखन जिनके पुत्र का नाम
उनके पुत्र हुए सुदर्शन, अग्निवर्ण जिनकी सन्तान

उनसे शीघ्रग, मरु उनके थे, प्रशुश्रुक जिनसे उत्पन्न
अम्बरीष उनके पुत्र थे, जिनसे हुए राजा नहुष

हुए ययाति तब नहुष से, जिनके घर नाभाग हुए
नाभाग से अज जन्मे थे, दशरथ उपजे हैं अज से

इन्हीं नरेश दशरथ से दोनों, राम, लक्ष्मण ये जन्मे हैं
आदिकाल से शुद्ध रहा है, परम वीर महान वंश ये

इनके हित वरण करता हूँ, आपकी दो कन्याओं का मैं
ये दोनों योग्य हैं उनके, आप कन्याओं का दान करें  


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Friday, April 24, 2015

दल-बल सहित राजा दशरथ की मिथिला-यात्रा और वहाँ राजा जनक के द्वारा उनका स्वागत-सत्कार

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

एकोनसप्ततितमः सर्गः

दल-बल सहित राजा दशरथ की मिथिला-यात्रा और वहाँ राजा जनक के द्वारा उनका स्वागत-सत्कार

हुई व्यतीत रात्रि जब वह, बन्धु-बांधवों सहित नरेश
हर्षित होकर उपाध्याय संग, सुमन्त्र को देते आदेश  

नाना रत्नों से हो सम्पन्न, धन लेकर धनाध्यक्ष अब
आगे चलें सुरक्षित होकर, हो व्यवस्था अति शीघ्र सब

कूच करे चतुरंगिणी सेना, ले सुंदर वाहन व पालकी
वसिष्ठ, वामदेव व कश्यप, चलें मार्कण्डेय, जाबालि

ब्रह्मर्षि कात्यायन भी चलें, रथ मेरा भी हो तैयार
राजा जनक के दूत कह रहे, शीघ्र ही हो यह सब व्यवहार

राजा की आज्ञानुसार ही, तब तैयार हुई थी सेना
ऋषियों संग राजा के पीछे, हो सज्जित प्रस्थान किया  

चार दिवस की कर यात्रा, पहुंचे वे विदेह देश में
समाचार सुन आने का तब, स्वागत किया जनक राजा ने

हर्षित हुए बहुत मिल दोनों, धन्य मान कहा जनक ने
प्राप्त करें प्रेम पुत्रों का, अति पराक्रम शाली हैं वे

वसिष्ठ मुनि भी यहाँ पधारे, देवों में ज्यों इंद्र शोभते
हुईं पराजित बाधाएँ सब, मेरे अति सौभाग्य बढ़े

बल से सम्पन्न और पराक्रमी, रघुकुल के हैं महापुरुष सब
मेरे कुल का मान बढ़ गया, रघुकुल से सम्बन्ध बना जब

कल प्रातः ही यज्ञ समाप्ति पर, आकर इन ऋषियों के साथ
सम्पन्न करें विवाह राम का, हे नर श्रेष्ठ ! दशरथ महाराज

राजा जनक की बात सुनी जब, कुशल वक्ता दशरथ यह बोले
प्रतिग्रह दाता के अधीन है, वही करेंगे, आप जो कहें

धर्मानुकुल, यशोवर्धक यह, जब राजा का यह वचन सुना
विस्मय हुआ मिथिला नरेश को, अंतर में अति हर्ष हुआ

सुख से रात बितायी सबने, इकदूजे से मिल थे हर्षित
विश्वामित्र को आगे करके, राम-लक्ष्मण गये पिता हित  

चरणों का स्पर्श किया जब, हुए प्रसन्न कुशल देखकर
मंगलाचार का हुआ सम्पादन, धर्मानुसार यज्ञ कार्य कर


इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में उनहत्तरवाँ सर्ग पूरा हुआ.