Thursday, February 24, 2022

वसिष्ठ जी को प्रणाम करके श्रीराम आदि का सबके साथ बैठना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


चतुरधिकशततम: सर्ग:


वसिष्ठ जी के साथ आती हुई कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के द्वारा माताओं की चरण वंदना तथा वसिष्ठ जी को प्रणाम करके श्रीराम आदि का सबके साथ बैठना 


सत्यप्रतिज्ञ नरश्रेष्ठ राम, देख उन्हें तब खड़े हो गये 

स्पर्श किया कमल चरणों का, बारी-बारी से उन सबके 


विशालनेत्र माएँ स्नेह वश, कोमल थीं जिनकी अंगुलियाँ 

धूल पोंछने लगी पीठ से, सुखद स्पर्श सुंदर हाथों का 


लक्ष्मण भी अति दुखी हो गये, देख दर्द उन माताओं का 

स्नेहपूर्वक धीरे-धीरे फिर, उन चरणों में प्रणाम किया 


श्रीराम के साथ किया जैसा, वैसा ही स्नेह दर्शाया 

माताओं ने उनकी पीठ पर, कोमल हाथों को फिराया 


अश्रुओं भरे नेत्रों वाली, सीता ने फिर प्रणाम किया 

कौसल्या ने हृदय लगाया, जैसे बेटी को कोई माँ 


विदेहराज जनक की पुत्री,  पुत्रवधू राजा दशरथ की

श्री राम की पत्नी सीता,  माता पूछें, क्यों दुःख भोगती 


मुख तुम्हारा लग रहा ऐसा, धूप से तपा हआ कमल ज्यों 

कुचला उत्पल, धुसरित स्वर्ण या ढका बदलियों से चाँद हो  


जैसे काष्ठ को अग्नि जलाती, सीता! लख तुम्हारे  मुख को 

आपद अरणि से उत्पन्न दुःख,जला रहा है मेरे मन को

 

शोकाकुल माँ विलाप करें, राम ने पकड़ा गुरु चरणों को 

जैसे स्वर्ग के राजा इंद्र,  स्पर्श करें बृहस्पति चरण को 


अग्नि  समान तेज था जिनका, गुरु वशिष्ठ के चरण थाम कर 

आदर, प्रेम से भरे हुए, राम बैठ गये वहीं भूमि पर 


उसके बाद भरत भी बैठे, बड़े भाई के पीछे आकर 

मंत्री, सैनिक, पुरवासी व, धर्मज्ञ पुरुषों के साथ तब 


दिव्य दीप्ति से प्रकाशित थे राम, निकट बैठे हुए भरत ने 

उनके प्रति हाथ जोड़े तब,  ब्रह्मा जी को इंद्र ज्यों जोड़ें 


वहाँ बैठे श्रेष्ठ पुरुषों के, हृदय में तब जगा कौतूहल 

क्या कहते हैं भरत राम को, आदर से प्रणाम करके अब 


सत्यप्रतिज्ञ राम, श्रेष्ठ लक्ष्मण, धर्मात्मा भरत तीनों वे 

त्रिविध अग्नियों सी शोभा पाते थे, सुहृदयों से घिरे हुए



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ चारवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, February 16, 2022

कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार,

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


चतुरधिकशततम: सर्ग:


वसिष्ठ जी के साथ आती हुई कौसल्या का मंदाकिनी के तट पर सुमित्रा आदि के सम्मुख दुःखपूर्ण उद्गार, श्रीराम, लक्ष्मण और सीता के द्वार माताओं की चरण वंदना तथा वसिष्ठ जी को प्रणाम करके श्रीराम आदि का सबके साथ बैठना 


राम दर्शन की ले अभिलाषा,  रानियों को करके आगे

मुनि वसिष्ठ  चल पड़े  उस ओर, जहाँ राम निवास करते थे 


मंद गति से चलती हुईं वे, मंदाकिनी घाट पर पहुँचीं 

देख जिसे कौसल्या के मुख पर, धार अश्रुओं की बहती 


शुष्क और उदास मुख से तब, कहे वचन सुमित्रा व सबसे 

आलस्य रहित पुत्र लक्ष्मण, राम हेतु जल लेते यहाँ से 


राज्य से निकाले गये जो, उन अनाथों का है तीर्थ यही  

  प्रिय बालक हैं जो मेरे,  दुःख अन्यों को देते कभी नहीं


लघु सेवा कार्य स्वीकार किया, किंतु नहीं निंदित हैं लक्ष्मण

गुणवान बड़े भाई के कार्य, नहीं करें वे ही हैं अक्षम 


किंतु नहीं है योग्य दुखों के, सहन उसे करने पड़ते हैं 

लौट चलें अब यदि श्रीराम, दुःख दायक कर्म सभी त्यागें 


आगे जा विशाल लोचना,  कौसल्या ने  देखा राम को

वसुंधरा  पर बिछे कुशों पर , इंगुदि का पिंड रखते जो


दुखी राम के द्वारा पिता हित, पिंड दिए जाने को देख 

 कहा कौसल्या ने, “देखो बहनों, विधिपूर्वक किया है श्राद्ध” 


देव समान तेजस्वी राजा, उत्तम भोगों को भोग चुके  

उनके लिए उचित नहीं यह,  कैसे इसे वह ग्रहण करेंगे 


इससे बढ़कर क्या दुख होगा, समृद्धिशाली होकर भी राम 

इंगुदी के पिसे फल का पिंड, दान पिता हित करते आज 


लौकिक श्रुति यह सत्य लग रही, हृदय विदीर्ण हुआ है  दुःख से

 जो अन्न स्वयं खाता मानव, वही खाते देवता उसके  


शोक से व्याकुल कौसल्या को, समझाकर ले गयीं रानियाँ 

आश्रम में श्रीराम को देखा,  गिरे स्वर्ग से ज्यों देवता 


त्याग सभी भोग का करके, तपस्वी जीवन वे जीते थे 

दुःख से कातर हुईं माताएँ, रोने लगीं आर्त भाव से 




Thursday, February 10, 2022

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

त्र्यधिकशततम: सर्ग: 


श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन 


कुछ ही समय तो अभी हुआ था, श्री राम को उनसे बिछड़े 

किंतु सभी को लगा यही था, देखा नहीं है जाने कब से 


जल्दी देखें मिलन भाइयों का,  उत्सुकता सबके मन में 

नाना तरह की सवारियों पर, बड़ी उतावली से निकले 


रथ के पहियों से आक्रांत, भूमि भयंकर शब्द कर रही 

ज्यों मेघों की घटा घिरने से, गड़गड़ाहट होने लगती 


तुमुलनाद से होकर भयभीत, हाथी, हथिनियों से घिरकर 

मद की गंध सुवासित करते, गये दूसरे वन में चलकर 


वराह, भेड़िए, सिंह, भैंसे, सृमर, व्याघ्र, गोकरण व गवय 

हरिण, हंस, जल कुक्कुट, कारंडव, नर कोकिल व क्रौंच भागे  


हुए संत्रस्त, होश हवास खो, विभिन्न दिशा में चले गये    

डरे हुए उस शब्द से पक्षी, छा गये सम्पूर्ण गगन में 


भू पर मानव, नभ में पंछी, दोनों  की शोभा होती थी 

यशस्वी, पापरहित पुरुष से, मिलने की आशा मन में थी 


सहसा उनके पास गये सब, वेदी पर श्री राम बैठे थे 

अश्रु बहने लगे मुखों पर, कैकेयी की निंदा करते थे 


 श्रीराम ने देखा सबको, बड़े प्रेम से गले लगाया 

 यथा योग्य सम्मान किया , कुछ ने चरणों में प्रणाम किया 


रोते हुए प्रजाजनों का, रुदन मृदंग की ध्वनि समान था 

 गगन, गुफा, दिशाओं में गूंजे, सभी ओर व्याप्त रहा था  



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ तीनवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, February 2, 2022

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

त्र्यधिकशततम: सर्ग: 

श्रीराम आदि का विलाप, पिता के लिए जलांजलि दान, पिंड दान और रोदन 


पुष्पित कानन से सुशोभित, जो शीघ्र गति से बहने वाली 

तीर्थ भूत जलों से युक्त, सदा रमणीय नदी मंदाकिनी 


गतिमय, उत्तम घाट हैं जिसके, पंक रहित सुंदर नदी पर  

जल प्रदान किया राजा को, दक्षिण दिशा में अंजलि भरकर 


आपके हित उपस्थित नीर, मिले आपको अक्षय रूप से

पूज्य पिताजी राज शिरोमणि, दुखी हुए तब कहा राम ने 


तत्पश्चात् किनारे पर आकर, तेजस्वी श्री रघुनाथ ने 

पिंड दान किया पिता हित, मिलकर संग तीनों भाइयों के 


बेर मिलाकर इंगुदि गूदे में,  बिछे हुए कुशों पर रखा 

अत्यंत दुःख से कातर होकर, वचन उन्होंने यही कहा 


आनंद से स्वीकारें इसको, आजकल आहार हमारा 

मानव जो अन्न खाता है, वही ग्रहण करते हैं देवता 


उस मार्ग से तब ऊपर आकर, चित्रकूट पर्वत पर चढ़े 

पर्णकुटी द्वार पर आकर, पकड़ भाइयों को रोने लगे 


सीता व चारों भाइयों के, रुदन शब्द से हुई प्रतिध्वनि 

मानो पर्वत पर गर्जना करते, सिंहों की दहाड़ की ध्वनि 


रोदन का सुन तुमुल नाद यह, सैनिक भी भयभीत हो गये 

भरत भाई से जा मिले हैं, फिर उसे पहचान कर बोले 


सवारियों को वहीं छोड़कर, ध्वनि की दिशा में दौड़ पड़े 

कुछ अश्वों से, कुछ हाथियों से, कुछ पैदल ही निकल पड़े