Monday, November 17, 2014

राजा त्रिशंकु का अपना यज्ञ करने के लिए पहले वसिष्ठजी से प्रार्थना करना और उनके इंकार कर देने पर उन्हीं के पुत्रों की शरण में जाना

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तःपञ्चाशः सर्ग

विश्वामित्र की तपस्या, राजा त्रिशंकु का अपना यज्ञ करने के लिए पहले वसिष्ठजी से प्रार्थना करना और उनके इंकार कर देने पर उन्हीं के पुत्रों की शरण में जाना

विश्वामित्र जब हुए पराजित, मन में हुए संतप्त अति
बैर बांधकर महातपस्वी, साँस खींचते थे लम्बी

करने लगे तब घोर तपस्या, गये राजा दक्षिण दिशा में
साथ गयीं थी रानी उनकी, मन-इन्द्रियां की थीं वश में

फल-मूल आहार था उनका, उत्तम तप में रत रहते थे
सत्य, धर्म में जो तत्पर थे, चार पुत्र वहीं पाए थे

पूरे हुए हजार वर्ष जब, ब्रह्माजी के पाए दर्शन
तप से राजर्षि हुए तुम, बोले उनसे मधुर वचन

ऐसा कह लोकों के स्वामी, ब्रह्मलोक गये देवों संग
 मुख लज्जा से झुका था उनका, विश्वामित्र व्यथित हुए सुन

इतना भारी तप कर डाला, फिर भी देव राजर्षि ही मानें
पुनः तपस्या में लग गये वे,  मुनि सोचकर अपने मन में

इक्ष्वाकु कुल की कीर्ति बढ़ाएं, उस समय त्रिशंकु थे राजा
देह सहित स्वर्ग जा पहुँचूँ, मन में यह विचार किया

कहा मुनि वसिष्ठ ने सुनकर, ‘सम्भव नहीं है ऐसा होना’
कोरा उत्तर पाकर मुनि से, गये नरेश तब दक्षिण दिशा

दीर्घकाल से जहाँ तपस्या, करते थे मुनि के पुत्र सब
त्रिशंकु ने जाकर देखा, सौ वसिष्ठ कुमारों का तप

क्रमशः उन्हें प्रणाम किया, लज्जा से मुख नत कर बोले
शरणागत वत्सल आप हैं, आया हूँ मैं आज शरण में

यज्ञ करने का इच्छुक हूँ, मुनि वसिष्ठ ने मना किया  
आज्ञा दें आप उसकी अब, करें पूर्ण मेरी यह इच्छा

देह सहित में देवलोक में, जाने की कामना रखता
गुरूपुत्रों के सिवा इस जग में, दूजी कोई गति न देखता

इक्ष्वाकुवंशी राजाओं की, परमगति वसिष्ठ मुनि हैं
उनके बाद पुत्र उनके, आप ही मेरे परम देव हैं

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्तावनवाँ सर्ग पूरा हुआ.