Thursday, April 30, 2020

भरत का स्वयं वल्कल वस्त्र और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्


अष्टाशीतितम: सर्ग: 

श्रीराम की कुश शैया देखकर भरत का शोकपूर्ण उद्गार तथा स्वयं भी वल्कल वस्त्र और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना 


यह है शय्या श्रीराम की, बदलीं होंगी यहीं करवटें
दबा हुआ तृण पड़ा यहां पर, इस कठोर वेदी पर सोये 

ऐसा लगता शुभ लक्षणा, सीता पहन आभूषण सोयीं
यत्र-तत्र बिखरे स्वर्ण कण, सटे हुए धागे भी रेशमी 

पति की शय्या कैसी भी हो, सुखदायिनी साध्वी को है 
सुकुमारी बाला सीता को, दुःख का लेशमात्र नहीं है 

व्यर्थ हुआ है जीवन मेरा, अति कठोर हूँ बड़ा अभागा 
जिसके कारण ही श्रीराम को, सीता संग वनवास मिला 

चक्रवर्ती सम्राट के कुल में, जन्म हुआ है श्रीराम का 
सुख देते, सबका हित करते, प्रिय लगता है दर्शन जिनका 

नीलकमल समान तन श्यामल, नयन लाल, अधिकारी सुख के 
वे रघुनाथ भू पर सोते, परित्याग निज राज्य का करके 

उत्तम लक्षण वाले लक्ष्मण, धन्य और बड़भागी अति हैं 
संकटकाल में निकट राम के, उनकी नित सेवा करते हैं 

हुईं कृतार्थ विदेहनन्दिनी, किया अनुसरण अपने पति का
संशय में तो हम सब ही हैं, छूट गया संग श्रीराम का 

महाराज चले गए स्वर्ग को, हो गए श्रीराम वनवासी 
बिन नाविक की नौका जैसी, सूनी सी लगती यह धरती 

वन में वास करें वह चाहे, यह वसुधा उनसे ही सुरक्षित 
कोई शत्रु जिसे मन से भी, लेना नहीं चाहे है रक्षित 

इस समय अयोध्या नगरी की, चारदीवारी खुली हुई है 
हाथी, घोड़े बंधे नहीं, नगरद्वार भी बन्द नहीं है 

पूर्ण अरक्षित राजधानी है, सेना में उत्साह नहीं है 
है आवरण रहित यह नगरी, अति संकट में पड़ी हुई है 

शत्रु ग्रहण नहीं करते लेकिन, विष मिश्रित भोजन की भांति
श्रीराम के बाहुबल से ही, इसकी रक्षा होती रहती 

भूमि पर मैं भी सोऊँगा, आज से वल्कल ही धारूँगा
फल-मूल का भोजन करके, जटा ही धारण किये रहूँगा 

मैं ही वहां निवास करूँगा, जितने दिन वनवास के बाकी
श्रीरामचन्द्र  की प्रतिज्ञा भी, नहीं असत्य सिद्ध तब होगी 

शत्रुघ्न मेरे साथ रहंगे, राम अयोध्या लौटेंगे
ब्राह्मण गण अभिषेक करेंगे, क्या दैव यह सफल करेंगे 

उनके चरणों पर सिर रखकर, मनाने का प्रयत्न करूंगा 
लौटने को यदि हुए न राजी, मैं भी वहीँ निवास करूँगा


  इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अठ्ठासीवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Tuesday, April 21, 2020

श्रीराम की कुश शैया देखकर भरत का शोकपूर्ण उद्गार



 श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम् अयोध्याकाण्डम्


अष्टाशीतितम: सर्ग: 

श्रीराम की कुश शैया देखकर भरत का शोकपूर्ण उद्गार तथा स्वयं भी वल्कल वस्त्र और जटाधारण करके वन में रहने का विचार प्रकट करना
सुनीं ध्यान से भरत ने सारी, निषादराज की बातें उस क्षण
मंत्रियों सहित निकट आये फिर, इंगुदी वृक्ष का किया निरीक्षण 

 कहा उहोंने माताओं से, राम ने रात्रि बितायी यहीं पर 
हुआ विमर्दित उनके अंगों से, यही कुश समूह सोये जिस पर  

महाराजों के कुल में उत्पन्न, राजा दशरथ के पुत्र यह 
धरती पर शयन करने के, नहीं योग्य हैं किसी तरह वह 

पुरुषसिंह श्रीराम सदा ही, उस पलंग पर सोते आए 
कोमल मृगचर्म की चादर, सुंदर बिछौनों से जो सजाये  

कैसे सोते होंगे भू पर, सदा रहे हैं महलों में ही  
स्वर्ण, रजत के फर्श हैं जिनके, पुष्पों से शोभा है जिनकी 

श्रेष्ठ भवन व अट्टालिकाएं, श्वेत बादलों सी जो उज्ज्वल 
चन्दन, अगुरु से सुगंधित, शुक समूहों का होता कलरव

शीतल कपूर की सुवास से, स्वर्ण सुशोभित दीवारों पर
सोते होंगे कैसे श्रीराम, वन में कुश की शैया पर 

गीतों और वाद्य ध्वनियों से, जो सदा जगाये जाते थे
आभूषण की झंकार सहित, मृदङ्ग के उत्तम शब्दों से 

समय-समय पर कई वंदीजन जिनकी, स्तुति किया करते थे 
सूत और मागध भी जिनकी, वन्दना  कर जिन्हें जगाते थे 

कैसे सोते होंगे भूमि पर, शत्रुहन्ता श्रीराम वह
यह विश्वास के योग्य नहीं है, सच नहीं मुझको लगता यह 

हुआ अवश्य मोहित मन मेरा, जैसे यह कोई स्वप्न है
काल समान नहीं कोई देव, जिसके कारण यह सम्भव है 

काल के प्रभाव के कारण, विदेहराज की परम् सुंदरी 
सीता भी भू पर सोतीं, पुत्रवधू महाराज दशरथ की