Friday, April 14, 2023

भरत का भरद्वाज से मिलते हुए अयोध्या को लौट जाना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्



त्रयोदशाधिकशततम: सर्ग:

भरत का भरद्वाज से मिलते हुए अयोध्या को लौट जाना 


इसके बाद श्रीरामचंद्र की, पादुकाओं को सिर पर रख 

भाई सहित भरत बैठ गए, रथ में अति प्रसन्नता पूर्वक 


वसिष्ठ, वामदेव, जाबालि आदि, मंत्री गण चले तब आगे 

चित्रकूट की कर परिक्रमा, मंदाकिनी से पूर्व को चले 


चित्रकूट से कुछ दूरी पर, भरद्वाज का आश्रम देखा 

रथ से उतर पड़े भरत तब, मुनि के चरणों में प्रणाम किया 


हर्षित होकर पूछा मुनि ने, मिलना हुआ क्या श्रीराम से 

बुद्धिमान मुनि भरद्वाज को, उत्तर दिया था यह भरत ने 


मैंने व गुरुजी ने भी राम से, कई बार अनुरोध किया 

किंतु राम ने कहा गुरु से, पूर्ण करूँगा वचन पिता का 


मर्मज्ञ ज्ञानी वशिष्ठ ने, श्रीरघुनाथ से वचन कहे ये 

प्रतिनिधि के रूप में दीजिए, भरत को अपनी पादुकाएँ 


राज्य के संचालन हेतु, राम ने अपनी पादुकाएँ सौंपीं 

भरत का वचन सुना मुनि ने, उन्हें मंगलमय यह बात कही 


सिंह समान हो तुम मनुजों में, शील, सदाचार के ज्ञाता 

सारे गुण आ तुममें  मिलते,  जल जैसे सरवर में आता


पिता तुम्हारे  उऋण हुए हैं, तुम जैसा उन्हें सुपुत्र मिला 

भरत हुए नतमस्तक मुनि के, माँग ली जाने की आज्ञा 


भरद्वाज की कर परिक्रमा, मंत्री  सहित चले वे आगे 

रथों, हाथियों, छकड़ों संग, चली वह सेना साथ भरत के


दिव्य नदी यमुना को पार कर,  सुसलिला गंगा तट पहुँचे 

बंधु-बांधवों संग पार किया,  शृंगवेरपुर  जा पहुँचे


कर अयोध्यापुरी के दर्शन, जो विहीन  पिता, भाई से 

 दुख से हो संतप्त भरत ने, कहे वचन सारथि से ऐसे


 शोभा इसकी नष्ट हुई है, पूर्व की भाँति नहीं सुसज्जित 

सुघड़ रूप, आनंद खो गया, दीन और  लगती है नीरव


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ तेरहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, March 15, 2023

श्रीराम का अपनी चरण पादुका देकर सबको विदा करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्



द्वादशाधिकशततम: सर्ग:


ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना, भरत का पुनः श्रीराम के चरणों में गिरकर चलने की प्रार्थना करना, श्रीराम का उन्हें समझाकर अपनी चरण पादुका देकर उन सबको विदा करना 


मदमत्त हंस के समान तब, मधुर स्वरों में बात यह कही 
स्वाभाविक विनयी  प्रज्ञा  से, रक्षा कर सकते हो भू की 

अमात्यों, मंत्रियों, सुहृदों से, बुद्धिमानों से लो सलाह 
सहज सभी कर सकते हो, हो कार्य चाहे कितना भी बड़ा

चँद्रमा से विलग हो चाँदनी, सागर चाहे लाँघे सीमा
हिम का त्याग करे हिमालय, पिता का वचन न झूठा  होगा 

लोभ वश या कामना वश हो,  कर्म किया जो कैकेयी ने
उसके लिए दोष मत देकर,  देना माँ का सम्मान उन्हें 

द्वितीय के चंद्र सम सुंदर, जो सूर्य समान तेजस्वी हैं 
दर्शन से मिले  आह्लाद, उन श्री राम से कहा भरत ने

स्वर्णाभूषित दो पादुकाएँ, चरणों में आपके अर्पित 
योगक्षेम निर्वाह करेंगी, चरण रखें अपने इन पर

तब महातेजस्वी श्रीराम ने, पग रखकर फिर अलग किए  
सौंप दिया फिर उन्हें भरत को, करके प्रणाम भरत ने कहा 

धर जटा-चीर , फल-मूल खा, मैं भी चौदह वर्ष रहूँगा 
रहकर नगर से बाहर ही मैं, आपकी प्रतीक्षा करूँगा 

चौदह वर्ष पूर्ण होने पर, प्रथम दिन यदि आप न आए 
मैं कर जाऊँगा तब प्रवेश, प्रज्ज्वलित  होती ज्वाला में 

देकर स्वीकृति इस बात को, राम ने उनको गले लगाया 
शत्रुघ्न को भी लगा हृदय से, सुंदर वचन प्रेम से कहा 

अपनी व सीता की शपथ दे, तुमसे यह बात मैं कहता 
सदा कैकेयी की रक्षा करना, उनके प्रति क्रोध न करना 

इतना कहते-कहते उनकी, आँखों में आँसू भर आए 
व्यथित हृदय से भाइयों को तब, विदा किया था श्रीराम ने 

परम उज्ज्वल पादुकाओं को, लेकर फिर धर्मज्ञ भरत ने 
श्रीराम की की थी परिक्रमा, रखा मस्तक पर गजराज के 

धर्म में हिमालय की भाँति, स्थिर रहता था हृदय राम का  
जनसमुदाय, गुरु, मंत्री, प्रजा, माता व भाई को विदा किया 

कौसल्या आदि माताओं का, गला रुंध गया अश्रुओं से 
  कह न सकीं कुछ वे राम से, कर प्रणाम गये राम कुटी में

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 
एक सौ बारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Wednesday, January 4, 2023

ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

द्वादशाधिकशततम: सर्ग:


ऋषियों का भरत को श्रीराम की आज्ञा के अनुसार लौट जाने की सलाह देना, भरत का पुनः श्रीराम के चरणों में गिरकर चलने की प्रार्थना करना, श्रीराम का उन्हें समझाकर अपनी चरण पादुका देकर उन सबको विदा करना 


उन अनुपम वीर भाइयों का, रोमांच युक्त देख समागम 

विस्मय से भर गये महर्षि, जिनका हुआ था वहाँ आगमन 


अदृश्य भाव से अंतरिक्ष में, प्रत्यक्ष भी जो मुनिजन थे 

ककुत्स्थ वंशी उन बंधु गण की, करने लगे प्रशंसा ऐसे 


दोनों राजकुमार श्रेष्ठ हैं, धर्म मार्ग पर चलने वाले 

बार-बार इनको सुनने की,  इच्छा होती है अंतर में 


दशग्रीव रावण के वध की, अभिलाषा थी जिनके मन में 

ऋषियों ने मिलकर आपस में, तभी  कही यह बात भरत से 


महाप्राज्ञ ! तुम उत्तम कुल वंशी, आचरण भी अति महान 

यदि तुम पिता का भला  चाहते, मान लो श्रीराम की बात 


पिता के ऋण से मुक्त हों राम, हम ऐसा देखना चाहें 

कैकेयी का ऋण चुकाकर, पहुँचे हैं महाराज  स्वर्ग में 


इतना कहकर वहाँ जो आए, गंधर्व, महर्षि व राजर्षि 

लौट गए निज स्थानों को, परम पूज्य वहाँ उपस्थित महर्षि  


जगत का कल्याण हैं करते, दर्शन केवल  दे जो अपने 

श्री राम हुए थे अति प्रसन्न, ऋषियों के वचनों को सुन के 


हर्षित हुए  खिला मुख उनका, अति शोभित हुए थे श्रीराम 

की महर्षियों की अति  प्रशंसा, किंतु भरत का काँपा गात 


लड़खड़ाती हुई वाणी में, कर जोड़ वह राम से बोले 

ककुत्स्थकुल भूषण हे भाई !, बड़े पुत्र होने के नाते 


राज्य ग्रहण पर अधिकार आपका, इस धर्म पर दृष्टि डालें

मैं, मेरी माता करती हैं, याचना हमारी सफल करें  


इस विशाल राज्य की रक्षा, मैं अकेले नहीं कर सकता 

पुरवासी जिन्हें प्रेम आपसे, उन्हें प्रसन्न नहीं रख सकता 


बाट जोहते हैं किसान ज्यों, उसी प्रकार सभी जनवासी 

योद्धा, मित्र, सुहृद, बांधव सब, बाट जोहते हैं आपकी 


राज्य को स्वीकार आप करें, फिर अन्य किसी को दे देवें 

वही पुरुष समर्थ हो सकता, ऐसा कहा, गिरे चरणों पे 


अति मीठे वचनों में भाई से, की प्रार्थना पुनः भरत ने 

श्यामवर्ण भाई को राम ने, बिठा लिया था तब गोद में


Friday, December 23, 2022

श्रीराम का भरत को समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकादशाधिकशतम: सर्ग:


वशिष्ठ जी के समझाने पर भी श्रीराम को पिता की आज्ञा के पालन से विरक्त न होते देख भरत का धरना देने को  तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें  समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना 


सभासद व मंत्रियों से कहा, सुनें सभी, मैंने न माँगा 

कभी पिता से अवध का शासन,  माता से भी नहीं कहा 


साथ ही नहीं है सम्मति मेरी, वनवास में श्री राम के 


फिर भी यदि आवश्यक इनको, पिता की आज्ञा का पालन 

इनके बदले मैं ही करूँगा, चौदह वर्ष वन में चारण 


भाई भरत की इस बात से, अति विस्मय हुआ श्री राम को 

कहे वचन तब देख उन्होंने, पुरवासी व अन्य  सभी को 


पिताजी ने निज जीवन में, कोई वस्तु बेची या ख़रीदी 

उसे बदल नहीं अब सकते, अथवा धरोहर भी हो रखी


नहीं बनाना प्रतिनिधि किसी को, मुझे इस वनवास के लिए 

सामर्थ्य वान हेतु निन्दित है,  काम लेना भी प्रतिनिधि से


कैकेयी की माँग उचित थी, पुण्य किया पिता ने उसे दे


भरत बड़े ही क्षमाशील हैं, गुरुजन का आदर करते हैं 

सत्य प्रतिज्ञ इन महात्मा में, कल्याण कारी सब गुण  हैं  


चौदह वर्षों की अवधि पूर्ण कर, जब मैं वन से लौटूँगा 

धर्मशील प्रिय भरत  के साथ, भूमंडल का राज करूँगा 


कैकेयी ने वर माँगा, मैंने उसका किया है पालन 

अब तुम मानो मेरा कहना, वर को साधो, कर के शासन  


महाराज दशरथ को अपने, असत्य बंधन से मुक्त करो 


 इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ ग्यारहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

 


Tuesday, December 20, 2022

भरत का धरना देने को तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

एकादशाधिकशतम: सर्ग:


वशिष्ठ जी के समझाने पर भी श्रीराम को पिता की आज्ञा के पालन से विरक्त न होते देख भरत का धरना देने को  तैयार होना तथा श्रीराम का उन्हें  समझाकर अयोध्या लौटने की आज्ञा देना 


​​तब राज पुरोहित मुनि वसिष्ठ ने, श्रीराम से पुनः यह कहा 

तीन गुरू  होते हैं पुरुष के, आचार्य, माता और  पिता 


पिता तन को उत्पन्न करता, इसीलिए उसे गुरु कहा है 

ज्ञान प्रदान करता आचार्य, अतः गुरु का पद उसे मिला है 


हे रघुवीर ! मैं हूँ आचार्य,  तुम्हारा व तुम्हारे पिता का

सत्पथ त्यागी नहीं बनोगे, पालन करो मेरी आज्ञा  


सभासद, बंधु, सामंत राव, अभी पधारे हुए यहाँ हैं 

धर्मानुकूल बर्ताव इन प्रति, सन्मार्ग का पालन ही है 


धर्मपरायणा वृद्ध माँ की, नहीं टालने योग्य फ़रियाद 

उनकी आज्ञा के पालन से, धर्म उल्लंघन की क्या बात 


सत्य, धर्म, शौर्य सम्पन्न , भरत तुम्हारे आत्मस्वरूप हैं 

उनकी बात मान लेने से, हानि धर्म की नहीं कोई है 


सुमधुर वचनों को सुन मुनि के, श्री राघवेंद्र ने वचन कहे 

बदला कभी चुका न सकते, उपकारों का माता-पिता के


स्नेहपूर्ण व्यवहार वे करते, शक्ति भर पदार्थ देते हैं 

सुखद बिछौने पर सुलाते, उबटन आदि नित्य लगाते हैं


अतः जन्मदाता पिता ने, जो आज्ञा मुझे सौंपी है 

मिथ्या कभी नहीं हो सकती, उनकी वाणी मुझे प्रिय है 


ऐसा कहने पर भाई के, भरत का मन उदास हो गया 

निकट ही बैठे सूत सुमंत्र से, वचन दुखी हो यही कहा 


जैसा साहूकार द्वारा, निर्धन हुआ ब्राह्मण करता है 

बिना खाए कुछ उसके दर पर, मुँह ढककर पड़ा रहता है 


इस वेदी पर कुशा बिछवाँ दें, यहीं पर मैं धरना दूँगा 

जब तक राम प्रसन्न नहीं होते, मुख ढक मैं यहीं रहूँगा 


यह सब सुनकर सुमंत्र दुखी हो, मुँह ताकने लगे राम का 

स्वयं ही ले चटाई कुश की, भरत ने वहाँ डेरा डाला 


​​महायशस्वी राम ने कहा, क्या बुराई की है मैंने 

अन्यायी तुम्हें लगता हूँ, धरना दोगे मेरे सामने


ब्राह्मण को अधिकार रोक सके, अन्याय को देकर धरना

राजतिलक धारी क्षत्रियों को, विधान नहीं है धरने का 


परित्याग कर इस व्रत का, शीघ्र अयोध्या पुरी को जाओ 

जनपद जन से भरत ने कहा, आप ही राम को समझाओ


Saturday, November 5, 2022

वसिष्ठजी का श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

दशाधिकततम: सर्ग:


वसिष्ठजी  का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की
परंपरा बताकर ज्येष्ठ के ही राज्याभिषेक का औचित्य
सिद्द्ध करना और श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना 


सुना गया है राजा असित की, दो पत्नियाँ गर्भवती थीं 

उत्तम पुत्र हेतु रानी ने, च्यवन मुनि की अभ्यर्थना की


अन्य रानी ने गरल दिया, गर्भ नष्ट करने को सौत का

किन्तु उसे वरदान प्राप्त था, भृगुवंशी महा च्यवन मुनि का 

  

महामनस्वी, लोक विख्यात, प्राप्त तुम्हें महान सुत होगा 

अति धर्मात्मा, कुलवर्धक वह, शत्रु का संहारक होगा 


कालांतर में रानी ने फिर, एक पुत्र को जन्म दिया था 

नेत्र कमलदल सम सुंदर थे, शरीर भी अति कांतिवान था        


नष्ट करने उसे गर्भ में, गर दिया था सौतेली माँ ने

उसके सहित ही वह जन्मा था, सगर कहलाया इसीलिए  


राजा सगर वह जिन्होंने, प्रजाओं को अति भयभीत किया 

पर्व के दिन ले यज्ञ दीक्षा, पुत्रों से  सिंधु  खुदवाया 


 पुत्र सगर का था असमञ्जस, पापकर्म में जो प्रवृत्त था 

पिता ने जीते जी ही जिसको, शासन से निकाल दिया था 

 

असमञ्जस के सुत अंशुमान थे, अंशुमान के थे दिलीप 

भागीरथ हुए दिलीप के पुत्र, ककुत्स्थ के पिता भगीरथ 


ककुसत्थ के घर रघु जन्मे, जिनसे वंश कहलाये राघव 

रघु के सुत कल्माषपाद थे, शाप वश जो बने थे राक्षस       


उनके सुत हुए थे शंखण, सेना सहित जो नष्ट हुए थे 

शंखण के श्रीमान सुदर्शन, अग्निवर्ण पुत्र सुदर्शन के 


अग्निनवर्ण के यहाँ शीघ्रग, उनके मरू,  प्रशुश्रुव मरु  के

प्रशुश्रुव के सुत रूप  में,  महाबुद्धिमान अम्बरीष हुए  


अम्बरीष के पुत्र नहुष थे,  नाभाग हुए पुत्र नहुष के 

नाभाग के अज तथा  सुव्रत,  दशरथ थे सुत राजा अज के 


दशरथ के  तुम बड़े पुत्र हो, श्रीराम नाम से जो प्रसिद्ध 

अयोध्या का राज्य है तुम्हारा, अधिकार पूर्व  करो ग्रहण 


बड़ा पुत्र ही राजा बनता, इक्ष्वाकुवंश की  रीत यही 

होते हुए ज्येष्ठ पुत्र के, वारिस कभी  छोटा पुत्र नहीं 


रघुवंशियों का कुलधर्म है, नष्ट नहीं करो उसको आज 

रत्नराशि से संपन्न भू पर , पिता समान करो तुम राज 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के

अयोध्याकाण्ड में एक सौ दसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

                                                    

 

Wednesday, July 20, 2022

वसिष्ठजी का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की परंपरा बताना



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

 दशाधिकततम: सर्ग:

वसिष्ठजी  का सृष्टि परंपरा के साथ इक्ष्वाकु कुल की परंपरा बताकर ज्येष्ठ के हाई राज्याभिषेक का औचित्य सिद्द्ध करना और श्रीराम जी से राज्य ग्रहण करने के लिए कहना 


श्री रामचंद्र को रुष्ट जान, यह कहा महर्षि वसिष्ठ ने 

अस्तित्त्व है परलोक का, ब्राह्मण जाबालि भी यह जानते      


तुमको लौटाने की ख़ातिर, ऐसी बात कही उन्होंने 

इस लोक की उत्पत्ति का, अब यह वृत्तांत सुनो तुम मुझसे 


सभी जलमय था आरम्भ में, जल से भू का निर्माण हुआ 

ब्रह्मा प्रकटे देवों के सँग, बन विष्णु वराहावतार लिया      


जल के भीतर से पृथ्वी को, इसी रूप में बाहर निकाला 

कृतात्मा पुत्रों के संग मिल, ब्रह्मा ने जग निर्माण किया 


परब्रह्म  परमात्मा से, प्रादुर्भाव हुआ ब्रह्मा का 

नित्य,सनातन, अविनाशी जो, फिर मरीचि, जिनसे कश्यप का 


कश्यप से हुए विवस्वान फिर, प्रजापति वैवस्त मनु थे 

मनु के पुत्र हुए इक्ष्वाकु, राजा जिन्हें बनाया मनु ने     


प्रथम नरेश अयोध्या के थे वे, उनसे कुक्षि, फिर विकुक्षि

महाप्रतापी बाण हुए फिर, अनरण्य थे जिनके पुत्र श्री 


सत्पुरुषों में श्रेष्ठ राजा थे, नहीं अकाल, सूखा देखा 

कोई चोर नहीं था राज्य में,  उनके पुत्र थे पृथु राजा


महातेजस्वी त्रिशंकु की, उत्पत्ति हुई राजा पृथु से    

विश्वामित्र के सत् प्रभाव से, स्वर्ग सदेह वे चले गए  


महायशस्वी धुँधुमार फिर, राजा त्रिशंकु के पुत्र हुए 

धुँधुमार के युवनाश्व थे,  जिनके पुत्र श्री मांधाता थे


सुसंधि पुत्र मांधाता के, ध्रुवसंधि व प्रसेनजित उनके 

ध्रुवसंधि के पुत्र भरत थे, असित का जन्म हुआ था जिन से   


तालजाँघ व शशबिंदु से मिल, शत्रु हैहय ने उन्हें हराया  

शैल शिखर पर मुनिभाव से, चिंतन करते परमात्मा का