Thursday, July 11, 2024

सीता का अनसूया को अपने स्वयंवर की कथा सुनाना

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


अष्टादशाधिकशततम: सर्ग: 


सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना तथा

अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना 


धर्मज्ञ और वीर क्षत्रिय, मिथिला जनपद के नरेश जनक 

सदा पृथ्वी का पालन करते,  रह तत्पर अति न्यायपूर्वक 


एक समय भू यज्ञ योग्य, हल लिए हाथ में जोत रहे थे 

इसी समय मैं प्रकट हुई थी, पुत्री माना मुझे उन्होंने 


औषधियों को लेकर मुट्ठी में, उस क्षेत्र में बो रहे थे 

धूल भरी मैं पड़ी दिखायी, अचरज हुआ देखकर उन्हें


उनके कोई संतान नहीं थी, स्नेहवश मुझे गोद  उठा 

‘यह मेरी पुत्री है’ कहकर, दुलार ह्रदय का उँडेल दिया    


तभी हुई आकाशवाणी, यह धर्मत: तुम्हारी ही पुत्री  

पाकर मुझे बहुत हर्षित थे, मानो महान समृद्धि पा ली 


पुण्य कर्मणा बड़ी रानी को, सौंप डाला मुझे उन्होंने 

लालन-पालन किया भाव से, मातृ स्नेहमय उचित ढंग से 


हुई विवाह के योग्य अवस्था, चिंता में पड़ गये राजा 

जैसे धन के खो जाने से, निर्धन को अतीव दुख होता 


चाहे भू पर हो इंद्र समान, कन्या के पिता को जग में

अनादर सहना ही पड़ता, अक्सर वरपक्ष के लोगों से 


अपमान सहन करने का काल, निकट आ गया है जान कर 

चिंता के सागर में डूबे, नहीं जा सके उसे पार कर 


मुझे अयोनिजा कन्या समझकर, योग्य और सुंदर पति का 

किया करते वह नित्य विचार, निश्चय दृढ़ पर नहीं हुआ था 


इसी तरह चिंता में रत रह, किया निश्चय उन्होंने आख़िर 

पुत्री का स्वयंवर करूँगा, निर्णय लिया था कुछ सोचकर 


उन्हीं दिनों महात्मा वरुण ने, दिव्य धनुष इक भेंट किया था 

अक्षय बाणों से भरा हुआ, साथ ही तरकस भी युक्त था 



Thursday, June 13, 2024

अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


अष्टादशाधिकशततम: सर्ग: 


सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना तथा अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना 


सीता के ये वचन सुने जब, अनसूया को अति हर्ष हुआ 

बड़े स्नेह से सूंघ कर मस्तक, मिथलेशकुमारी से कहा 


उत्तम व्रत पालने वाली !, शक्ति मैंने तप से संचित की 

उस तपोबल का ले आश्रय, वर माँगने को तुमसे कहती 


 युक्ति-युक्त बात कही तुमने, सुनकर अति संतोष हुआ है

क्या प्रिय अब मैं करूँ तुम्हारा ?, तुमने उत्तम वचन कहा है 


सुन कर कथन यह अनसूया का, सीता को हुआ अति विस्मय 

मंद स्मित लाकर अधरों पर, कहा, नहीं !  मुझे कुछ न चाहिए 


आपने निज  वचनों द्वारा ही, मेरा सारा प्रिय कर दिया 

सीता के निर्लोभी भाव से, हर्षित हुईं अति अनसूया 


लोभ हीनता के कारण ही, तुममें यह आनंद भरा है 

सफल करूँगी उसे अवश्य, मिलकर तुमसे सुहर्ष  हुआ है 


हार, वस्त्र, आभूषण, अंगराग, बहुमूल्य अनुलेपन दिये 

 शोभा नित बढ़ायेंगी तन की , तुम्हारे योग्य ये वस्तुएँ


सदा उपयोग में लाने पर भी,  निर्दोष व शुद्ध रहेंगी 

दिव्य अङ्गराग को अपना, तुम लक्ष्मी सी सुशोभित होगी 


अनसूया की आज्ञा से सीता ने, अति यशस्विनी थी जो 

प्रसन्नता का उपहार समझकर, ग्रहण किए वस्त्र आदि वो 


दोनों हाथ जोड़कर वहाँ वह, बैठी रहीं निकट उन्हीं के

 प्रिय कथा सुनने के हित,  प्रश्न यह पूछा अनसूया ने  


मैंने सुना है श्रीराम ने, स्वयंवर में तुम्हें प्राप्त किया 

कैसे हुआ घटना क्रम वह, सुनना चाहती विवरण सारा 


 धर्मचारिणी अनसूया को, उनके कहने पर सहर्ष ही

सुनिए, माता ! कह सीता ने, निज विवाह की कथा सुनायी


Friday, May 24, 2024

सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

अष्टादशाधिकशततम: सर्ग: 


सीता अनसूया संवाद, अनसूया का सीता को प्रेमोपहार देना तथा अनसूया के पूछने पर सीता का उन्हें अपने स्वयंवर की कथा सुनाना 


तपस्विनी अनसूया के इन, वचनों को सुनकर सीता ने 

भूरि-भूरि प्रशंसा करके, धीरे-धीरे यही वचन कहे 


 आप संसार में सर्वश्रेष्ठ हैं, स्त्रियों में सदा पूज्य हैं 

 नारी के लिए पति है गुरु सम, यह बात मुझे पूर्व विदित है 


यदि अनार्य या निर्धन होते, मेरे पतिदेव किसी कारण 

तब भी सेवा में रत रहती, दुविधा बिन कर पूर्ण समर्पण 


फिर जब वे हैं गुणों के सागर, पात्र सभी के आदर के 

तब क्या कहना इनकी सेवा का, परम दयालु हैं अति प्रिय वे 


माँ कौशल्या के प्रति जैसा, व्यवहार, बर्ताव वे करते 

अन्य रानियों के प्रति भी वे, माँ के सम ही वर्तन करते 


महाराज दशरथ ने जिनको, प्रेम से देखा एक बार भी 

पितृ वत्सल श्री राम ने, माँ को देखा उनके भीतर भी 


जब मैं तत्पर थी आने को, निर्जन वन में राम के साथ 

माँ कौशल्या का दिया उपदेश, ज्यों का त्यों मुझे है याद 


 पहले मेरे विवाह काल में, माँ ने सीख जो भी दी थी 

उपदेश कहे अन्य स्वजनों ने, उसके साथ स्मरण हैं सभी 


पति की सेवा के अलावा, नहीं स्त्री के लिए तप दूसरा   

सत्यवान की सेवा करके, जग में पूजित सावित्री सदा  


उन जैसे ही आपने भी तो, स्वर्ग में इक स्थान  बनाया 

पति की सेवा के प्रभाव से, जग में श्रेष्ठ स्थान भी पाया 


स्वर्ग की देवी रोहिणी भी, विलग कब होती चंद्रमा से 

पतिव्रत  हेतु  आदर  पातीं, कई साध्वियाँ देवलोक में 




Tuesday, March 12, 2024

अनसूया द्वारा सीता का सत्कार

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


सप्तदशाधिकशततम: सर्ग:


श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूया द्वारा सीता का सत्कार 


रामचंद्र की बात सुनी जब, यशस्विनी मिथिलेश कुमारी 

गयीं निकट मुनि पत्नी के, जो थीं धर्म को जानने वालीं 


वृद्धावस्था के कारण वह, हो गयीं थीं अतीव ही शिथिल 

केश श्वेत हुए , झुर्रियाँ तन पर, अंगों में कंपन, हलचल 


शांत भाव से गयीं निकट, जाकर सीता ने नाम बताया 

महाभागा पतिव्रता जान, नत मस्तक हो शीश झुकाया 


हाथ जोड़ कुशल पूछा तब , संयमशीला तपस्विनी का 

धर्मशीला अनसूया माँ ने, फिर सीता से यह वचन कहा 


अति सौभाग्य की बात है,  धर्मपालन की  शुभ दृष्टि पायी 

बंधु बांधवों को त्याग कर, पति के संग जंगल में आयी 


स्वामी वन में हों या नगरी में, भले-बुरे जैसे भी हों  

अभ्युदय होता है उन्हीं का, जिन नारियों को नित्य प्रिय हों  


पति कठोर, धनहीन, मन्मुख हो,  पत्नी के हित है देवता

पति से बढ़ नहीं हितकारी, पत्नी के लिए कोई होता 


निज तपस्या के फल की भाँति, सर्वत्र वह सुख पहुँचाता 

इहलोक और परलोक में, उससे बढ़ हितैषी नहीं होता


जो पति पर शासन करती हैं, कामाधीन स्त्रियाँ असाध्वी

पति का अनुसरण नहीं करके, निज इच्छा से घूमा करतीं 

 

गुण-दोष का ज्ञान नहीं उन्हें, अनुचित कर्म किया करती हैं 

धर्म भ्रष्ट हो जया करतीं, अपयश को भी प्राप्त होती हैं 


किंतु तुम्हारे सम जो नारी, लोक-परलोक का ज्ञान जिसे  

उत्तम गुणों से युक्त हुई, उसे पुण्य कर्म से स्वर्ग मिले 


इसी प्रकार तुम पतिदेव की, सेवा में नित ही लगी रहो 

सतीधर्म का पालन करके, पति को मुख्य देवता समझो 


सदा अनुसरण करती उनका, तुम सच्ची सहधर्मिणी बनो 

सुयश व धर्म मिलेंगे दोनों, सीता, मेरी यह सीख सुनो 





इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Wednesday, February 28, 2024

श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


सप्तदशाधिकशततम: सर्ग:


श्रीराम आदि का अत्रिमुनि के आश्रम पर जाकर उनके द्वारा सत्कृत होना तथा अनसूया द्वारा सीता का सत्कार 


ऋषियों ने प्रस्थान किया जब, किया राम ने गहरा चिंतन  

उचित नहीं उनका यहाँ रहना, सम्मुख आये कई कारण

 

मन ही मन विचार किया यह, यहीं मिला था भाई भरत से 

स्मृति सभी की नित्य निरन्तर, व्यथित किया करती है शोक से   


इसी आश्रम की धरित्री पर, सेना का पड़ाव होने से  

 अपवित्र हो गई है भूमि यह, हाथी-घोड़ों की लीद से 


हम भी कहीं और ही जायें, निकल पड़े वे यह निर्णय ले

 सीता और लक्ष्मण को ले, अत्रिमुनि के आश्रम पहुँचे थे   


पुत्र की भाँति स्नेह दिखाया, सीता का भी सत्कार किया  

अत्रि मुनि ने आगे बढ़कर, लक्ष्मण को स्वयं संतुष्ट किया 


सबके हित में लगे हुए जो, धर्मज्ञ मुनिश्रेष्ठ अत्रि ने 

धर्म परायणा तापसी पत्नी, अनसूया से शब्द कहे 


दे दुलार कंठ लगाओ, विदेह राज नंदिनी सीता को

  परिचय देते हुए कहा तब, अनसूया का रामचंद्र को


एक समय था दस वर्षों तक, वृष्टि नहीं हुई, जग तपा  था

उग्र तपस्या के प्रभाव से,  उत्पन्न किया फल-मूल यहाँ 


मंदाकिनी की धारा लायीं, दस हज़ार वर्ष तप करके 

वही अनसूया देवी हैं, विघ्न हरे थे सभी ऋषियों के 


देवों के कार्य हेतु इन्होंने, दस रात्रि सम एक रात्रि की 

माता की भाँति पूज्या हैं, राम ! तुम्हारे लिए यह देवी 


वंदनीया तपस्विनी हैं यह, सब प्राणियों हेतु जगत के

विदेहनंदिनी देवी सीता, जाकर उनके आशीष लें 


‘अच्छा’ कहकर सीता से तब, श्रीराम ने वचन कहे तभी 

 प्रयास करो निज कल्याण का, तुमने मुनि की बात है सुनी

 

अपने सत्कर्मों के बल पर, अनसूया जो कहलाती हैं 

शीघ्र निकट उनके जाओ, आश्रय लो तुम इस योग्य हैं



Tuesday, January 2, 2024

वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षोडशाधिकशततम: सर्ग:


वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना 

 

पापजनक अपवित्र द्रव्य से, तपस्वियों का स्पर्श कराके 

ऋषियों को घनी पीड़ा  देते, आश्रमों में रहते छिप के 


असावधान तपस्वियों का फिर, कर विनाश वहाँ बस जाते 

यज्ञ सामग्री बिखरा देते, घट फोड़, अग्नि बुझा देते  


दुरात्मा उन राक्षसों के भय से, त्याग आश्रमों को ऋषिगण 

अन्य स्थान में जाना चाहें, करूँ में इनका पथ प्रदर्शन 


 शारीरिक हानि पहुँचायें, इससे पूर्व ही हम जाएँगे 

अश्व मुनि का आश्रम निकट है, उसी में हम निवास करेंगे 


खर करेगा अनुचित बर्ताव, आपके प्रति भी हे श्री राम 

उससे पूर्व आप यदि चाहें, साथ हमारे करें प्रस्थान 


यद्यपि आप सदा सावधान, राक्षसों के दमन में समर्थ 

किंतु सीता सहित यहाँ रहना, संदेह जनक व दुख दायक 


थे अन्यत्र जाने को उत्सुक, रोक नहीं सके राम उन्हें 

अभिनंदन करके उन्होंने,  किया प्रस्थान साथ समूह के 


पीछे जाकर विदा दी उनको, प्रणाम किया कुलपति को भी

 सुन उपदेश लौट आये आश्रम, राम अनुमति लेकर उनकी


ऋषियों से जो रिक्त हुआ था, उस आश्रम को नहीं त्यागा 

ऋषि समान जीवन था राम का, रक्षा का सामर्थ्य भरा था 


 दृढ़ विश्वास जिन्हें ऐसा था, उन ऋषियों ने किया अनुसरण 

जिन्हें भरोसा था राम पर , नहीं गये वे दूसरे आश्रम 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ.



Monday, September 25, 2023

वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षोडशाधिकशततम: सर्ग:


वृद्ध कुलपतिसहित बहुत से ऋषियों का चित्रकूट छोड़कर दूसरे आश्रम में जाना 

 

लौट गये जब भरत अयोध्या, राम वहीं वन में बसते थे 

उन्हें एक दिन भान हुआ यह, तापस उद्वगिन से लगते थे 


श्रीराम का आश्रय लेकर, पूर्व में जो आनंद मग्न थे 

मानो वहाँ से जाना चाहें, ऐसे उत्कंठित लगते थे 

   

नेत्रों से, भौहें टेढ़ी कर,  राम की ओर  संकेत करें

मन ही मन शंकित हों जैसे, बातें करते मंद स्वरों में 


श्रीरघुपति ने मन में सोचा, उनसे कोई भूल हुई क्या 

हाथ जोड़ कुलपति से पूछा, क्या मुझसे कोई अपराध हुआ 


या मेरा बर्ताव था अनुचित, राजाओं के योग्य नहीं था 

अथवा कोई विकार दिख रहा, मुनि गण को जो अति खला था  


लक्ष्मण ने प्रमाद के कारण, कोई किया आचरण ऐसा  

योग्य नहीं है जो उसके भी, ऋषिगण ने जिसको देखा है


अर्ध्य-पाद्य के द्वारा, जो करती आयी ऋषियों की सेवा 

मेरी सेवा कारण क्या, की सीता ने नहीं समुचित सेवा 


श्रीराम के प्रश्न को सुन, वृद्ध महर्षि काँपते से बोले 

जो स्वभाव से कल्याणी  है, सीता से त्रुटि संभव कैसे 


राक्षसों द्वारा आपके कारण, भय उपस्थित होने वाला 

तभी उद्विग्न हुए तपस्वी, आपस में करते हैं चिंता 


रावण का छोटा भाई खर,  हता है यहीं वन प्रांत में

 तपस्वियों को उखाड़ फेंका,  जनस्थान में रहने वाले


अति क्रूर, घमंडी, ढीठ बहुत, नरभक्षी, विजयोन्मत्त है 

नहीं सहन कर पाता आपको, तापसों  पर रुष्ट हुआ है 


जब से आप यहाँ आये हैं, तब से वे अति कष्ट दे रहे 

हैं अनार्य राक्षस अति भीषण, खल, विकृत व दुखदायक भी वे