Monday, January 31, 2011

सखा सारे जग के

सखा सारे जग के

तुम अर्जुन के सखा थे
द्रौपदी के भी
सुदामा के बालसखा
ग्वाल-ग्वालिनों के भी,
साख्यभाव तुम्हीं से उपजा है
जैसे प्रेम, आनंद और ज्ञान !

उपवन में शीतल पवन की  छुवन सा
पथराई धरा पर जल की फुहार सा,
चन्दन का लेप ज्यों तप्त तन पर
अमराई की छांह अलसाते मन पर,

साख्यभाव जो आश्वस्त करता है
जोड़ता है हृदयों को
तुमने सिखाई जग को
सखा बनने की रीति,
दुःख-सुख में सँग रह
साथ निभाने की नीति,
मिलजुल कर हँसने-रोने
गाने-झूमने की प्रीति,

इस तरह कि तुम सखा के पर्याय बन गए हो
सखा सारे जग के, आत्मीय तुम हो कान्हा !

अनिता निहलानी
३१ जनवरी २०११

Saturday, January 29, 2011

न झाँका तो अपना मन !

न झाँका तो अपना मन !

तूने सब कुछ तो संवार दिया है, मेरे प्रभु !
तारों से आकाश
रंगों से प्रकाश
प्राणों से पवन
ऊष्मा से अगन

तूने सब कुछ तो लुटा दिया है, मेरे प्रभु !
रस छलकातीं नदियाँ
पर्वतों की घाटियाँ
सागरों की गहराइयाँ
मदमाती अमराइयाँ

   तूने सब कुछ तो सौंप दिया है, मेरे प्रभु !
अकारण स्नेह
महमाता मेह
करुणा का आंचल
विरह का जल

और तू छिप गया हमारे अंतर में !
हम निहारते रहे
सराहते, ढूंढते रहे
कभी धरा कभी गगन
न झाँका तो अपना मन !

अनिता निहालानी
३० जनवरी २०११  


  

Friday, January 28, 2011

चैतन्य

चैतन्य

जैसे सागर
नन्हीं-नन्हीं बूंदों को समेटे है,
सूर्य अनगिन रश्मियों को समोए है,
पवन बेहिसाब गन्धों को लिये डोल रही है,
वैसे वह चैतन्य
हमें सहेजता है !

उसके सानिध्य में
हम कितने सुरक्षित हैं,
जैसे बूंद सागर में,
किरण सूरज में,
गंध पवन में !

अनिता निहालानी
२८ जनवरी २०११    

Thursday, January 27, 2011

ज्ञान का सूरज बने तुम !

ज्ञान का सूरज बने तुम !

निरंतर एक प्रवाह
प्रेमरस में सिक्त ज्योति
जो मिटा दे तम हृदयों से
ज्ञान का सूरज बने तुम !

अनवरत एक धारा
मधुरस में सिक्त वाणी
जो मिटा दे कलुष सारा
नेह के निर्झर बने तुम !

बोलता है मौन
है अमिय में सिक्त स्मित
जो मिटा दे दुःख मनों से
 सुखों के सागर बने तुम !

अनिता निहालानी
२७ जनवरी २०११

Tuesday, January 25, 2011

सद-गुरु

सद-गुरु

मिटा दे खुद को खुदा मिलेगा
कटा दे सर को खुदा मिलेगा,
अहं का पर्दा जुदा कर रहा
गिरा दे इसको खुदा मिलेगा !

हमारी मैं बनी बेड़ी
अहं हमारी राह रोकता,
मेरी-तेरी की माया में
उलझा मानस नहीं सोचता !

सदगुरु चिंतन मनन सिखाते
ज्ञानमयी वर्षा में भिगाते,
तोड़ अविद्या के पहरों को
अपना आपा हमें दिखाते !

रूप, बल, धन, बुद्धि का
तज अभिमान गुरुदर आयें,
पावन प्रेम लिये अंतर में
पूज्य देव सम गुरु रिझाएँ !

छल-छल करुणा धार बहे
रस भीनी मधुर बयार बहे,
मातृवत गुरु हृदय में
जन-जन हेतु प्यार बहे !

अनिता निहालानी
२५ जनवरी २०११

Sunday, January 23, 2011

सद्-गुरु

सद्-गुरु


तुम ज्ञान के अथाह सागर हो,
और हम उसका एक मोती पाकर ही विमुग्ध हैं !

तुम प्रेम का बहता हुआ दरिया हो,
जिसका एक छींटा हमें भी भिगो गया है !

तुम आनंद के महा स्रोत हो,
और हम तुम्हारी आँखों की मस्ती में
डूबते-उतराते हैं !

अनिता निहालानी
२४ जनवरी २०११    

Friday, January 21, 2011

बैंग ऑन द डोर

बैंग ऑन द डोर

युगों से हम खड़े थे
दिल के दरवाजे पर
जो बंद ही रहा
हजार दस्तकों के बावजूद !

और.... तब तुम आये
सिखाया खटखटाना
भीतर जो उतरे
तुम्हें पाया
तुम्हीं तो थे पथप्रदर्शक
और तुम्हीं तो थे 
जहाँ हमें पहुंचना था !

अनिता निहालानी
२१ जनवरी २०११

Thursday, January 20, 2011

प्रेम की भाषा बोले कान्हा

प्रेम की भाषा बोले कान्हा

नन्द-यशोदा अपलक निरखें
नन्हें कान्हाजी का मुखड़ा,
धन्य हुई ब्रज की भूमि पा
नीलमणि सम चाँद का टुकड़ा !

मोर मुकुट पीतांबर धारे
घुंघराली लटें सुंदर अलकें,
ओज टपकता मुखमंडल से
नयनों से मधुघट छलकें !

नित ग्वालों सँग गोचारण
यमुनातट वंशीवट घूमें,
वंशी धुन सुन थिरकें ग्वाले
पशु, पक्षी, पादप झूमें !

कृष्ण, कन्हैया, माधव, केशव
मोहन, गिरधर, वनमाली,
अनगिन नाम अनेक लीलाएं
वृन्दावन में रच डालीं !

प्रेम की भाषा बोले कान्हा
प्रेम सुधा में भीगी राधा,
प्रेम का बंधन नेह का धागा
ब्रज के हर जन से बांधा !

अनिता निहालानी
२० जनवरी २०११   

Tuesday, January 18, 2011

आह्लादित अंतर हो उठता


आह्लादित अंतर हो उठता

छलका करते भाव ह्रदय में
नयनों में प्रेमाश्रु झलकते
उर उपवन में जब कान्हा के
सुंदर रूप संवरते सजते !

आतुर हो जब ह्रदय पुकारे
कम्पित तन मन विगलित होता
सुमिरन में जब गोविन्द आते
आह्लादित अंतर हो उठता !

नाम-रूप में भेद न कोई
लिया नाम तो सम्मुख आते
बाहर-भीतर, भीतर-बाहर
एक वही तो झलक दिखाते !

प्रेम का सौदा सच्चा सौदा
बिना मोल ही कान्हा बिकते
अर्पित मन के कुशल-क्षेम का
हँसते-हँसते भार उठाते !  

अनिता निहालानी
१९ जनवरी २०११

हैं उजियाले तट सभी

हैं उजियाले तट सभी

हुआ सोहम् नाद गुंजित भेद डाले पट सभी
अंतर ओज सतह पर आया हैं उजियाले तट सभी !

सुना श्रवण ने मन तक पहुँचा डोर श्वास की थामे
बुद्धि, चित्त अहं को तज मन आत्मतत्व को जाने !

पंचभूत से निर्मित काया जड़ प्रकृति की छाया
चेतन होती आत्म तत्व से, ढके अविद्या माया

स्थूल टिका है सूक्ष्म तत्व पर जो अमिट अविनाशी
सृष्टि के पीछे छिपा जो वह चैतन्य अधिशासी !

ज्ञानदीप हुआ प्रज्ज्वलित छंट गए भ्रम सभी
अंतर ओज सतह पर आया हैं उजियाले तट सभी !

अनिता निहालानी
१८ जनवरी २०११  

Sunday, January 16, 2011

ध्यान

ध्यान

चलो खुद से मिलें
सोहम् की पतवार थामे
मनसागर में दूर तक निकलें !

चलो अन्तर्पट खोलें
नयनों के द्वार बंद कर
निधियों के अम्बार से सच्चे मोती पालें !

चलो मन से बतियायें
मन जो धुला-धुला सा
निष्पाप, निर्दोष
उसे जानें
श्वासों की लय पर जो थिरका
कभी हँसा, उसे गा लें

अनिता निहालानी
१७ जनवरी २०११


Friday, January 14, 2011

मौन में सब कह जाते

मौन में सब कह जाते

नयनोँ में स्मित हास और अतल गहराई
वाणी जैसे ऋषि अन्तर को छू कर आयी !

छलकाते अपनत्व सदा सरल सहज उल्लास
मधुर प्रेम प्रसाद बाँट भरते उर में विश्वास !

दिव्य दृष्टि से मोहित कर लखते मुस्काते  
मौन मुखर हो उठता मौन में सब कह जाते

ज्ञान सिंधु, प्रेम निर्झर और शांति धाम
मंगलमूर्ति सौम्यता की सद् गुरु  अभिराम

अनिता निहलानी
१४ जनवरी २०११

 

Wednesday, January 12, 2011

अनंत

अनंत

बिन छुए ही
कैसा रोमांच  भर जाते हो
रेशे-रेशे में
श्वासों के साथ भीतर आ
प्रेम की अनुभूति कराने
हे परब्रह्म ! हे अनंत

देह, मन ,बुद्धि से परे मिले तुम
देह, मन ,बुद्धि को शोभित करते
स्वर्ण रश्मियाँ फूटें तन से
मन समता का वाहक बनता
बुद्धि स्थिर हो प्रज्ञामयी !

दर्पण में तुम्हारा ही रूप झलकता है
वह अनुपम दृष्टि भीतर तक बींध जाती
प्रेमिल मुस्कान चिर देती हृदय को !

बिना याद किये
तुम हर क्षण आते हो स्मृति में
तुम्हारा घर बन ग्या है अंतर्मन
स्फटिक सा स्वच्छ चमचमाता
छलकता घट जहाँ रस का
बिखरता अमिय प्रेम का !
हे अव्यक्त ! हे अनंत !

अनिता निहालानी
१२ जनवरी २०११  

Monday, January 10, 2011

अनुभूति

अनुभूति

जैसे कोई गागर में प्यार भरे
और उड़ेल दे
पोर-पोर सिहरे
डूब जाये मन अपने ही गह्वर में !

 जैसे कोई नयनों में मनुहार भरे
और तकता रहे
निर्निमेष
भीग जाये मन उस शीतल आग में !

या फिर कोई हाथ थामे
और ले चले
निज सँग
आनंद, शांति और प्रेम के गाँव में !

अनिता निहालानी
११ जनवरी २०११  

तुम

तुम

व्यथा धुला मन
शाश्वत मुख का दर्पण,
द्रवित हृदय में कम्पित सत्य,
हृदय गुफा में आनंद निर्झरों की गूंज,
यह सब तुमसे जुड़े रहने में है !

यह मधुमय क्षण
अमृत घूंट पिलाया तुमने,
अंतर नीड़ सजाया
दिया नूतन बोध,
भीतर पाया रस स्रोत
भेद आवरण देह, मन का
भासित हुए तुम !

अनिता निहालानी
१० जनवरी २०११