Friday, October 30, 2015

श्रीराम का राजपथ की शोभा देखते और सुहृदों की बातें सुनते हुए पिता के भवन में प्रवेश

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

सप्तदशः सर्गः

श्रीराम का राजपथ की शोभा देखते और सुहृदों की बातें सुनते हुए पिता के भवन में प्रवेश

राज मार्ग से इसी तरह, रथ पर बैठे राम गुजरते
आशीर्वचनों को सुनते व, सुहृदों को आनंद बांटते 

ध्वजा, पताकाओं से सज्जित, चारों और सुगंध छा रही
भव्य सुसज्जित राजमार्ग पर, भारी भीड़ दिखाई देती

चन्दन, अगुरु नामक धूप, ढेर रेशमी वस्त्रों के थे
अलसी, सन के रेशों से भी, बने वस्त्र वहाँ रखे थे

मोती थे अनबिंधे, स्फटिक, राजमार्ग शोभित रत्नों से
भरा हुआ नाना पुष्पों से, भांति-भांति के भोज्य द्रव्यों से

अक्षत, दही, हविष्य, लावा, धूप, अगर, चन्दन बाती   
उसके चौराहों की पूजा, थी गंध-द्रव्य से की जाती

इन्द्रराज ज्यों स्वर्गलोक में, रथारूढ़ श्रीरामचन्द्र थे
यथायोग्य करते सम्मान, अभिवादन कर वे जाते थे

कहते थे उनके हितैषी, पूर्वज चलते आये जिस पर
पालन करें हमारा भी, चलकर आप उसी मार्ग पर

पिता और पितामहों से, जैसे पालन हुआ हमारा
उससे भी बढ़कर होगा अब, राम बनेंगे जब राजा

राज्य पर प्रतिष्ठित होकर, जिस क्षण राम महल से निकलें
दर्शन उनका पाकर उस क्षण, मोक्ष, भोग हम कुछ न चाहें

इससे बढ़कर नहीं प्रिय कुछ, राज्यभिषेक हो शीघ्र राम का
सुंदर वचन यही सब सुनते, श्रीराम का रथ बढ़ता था

एक बार जो उन्हें देखता, तकता ही वह रह जाता था
निन्दित समझा जाता था वह, जिसको न दर्शन मिलता

चारों वर्णों के लोगों से, यथायोग्य राम मिलते थे
एक समान प्रेम था सब पर, इसीलिए ये सभी भक्त थे

चौराहों, चैत्य वृक्षों को, देवमार्गों, मन्दिरों को
दायीं और छोड़ते राम, चले जा रहे पितृ भवन को

मेघसमूहों सा सुंदर था, दशरथ भवन कैलाश समान
उज्ज्वल अट्टालिकायें जिसमें, रत्नों से ज्यों जटित विमान

आच्छादित श्वेत प्रकाश से, ऊँचे क्रीडा भवन बने थे
इंद्र सदन से सुंदर गृह में, किया प्रवेश राम के रथ ने

तीन ड्योढ़ियाँ पार हुई जब, रथ से उतर गये तब राम
दो को पार किया पैदल ही, अंतः पुर का आया द्वार

शेष सभी रहे बाहर ही, करते हुए प्रतीक्षा उनकी
जैसे सागर करता रहता, है प्रतीक्षा चंद्रोदय की


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सत्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Tuesday, October 27, 2015

श्रीराम का सीता से अनुमति ले लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठकर गाजेबाजे के साथ मार्ग में स्त्री-पुरुषों की बातें सुनते हुए जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षोडशः सर्गः
सुमन्त्र का श्रीराम के महल में पहुँचकर महाराज का संदेश सुनाना और श्रीराम का सीता से अनुमति ले लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठकर गाजेबाजे के साथ मार्ग में स्त्री-पुरुषों की बातें सुनते हुए जाना 

पूर्व दिशा में इंद्र देवता, दक्षिण में यमराज करें
रक्षा करें वरुण पश्चिम में, उत्तर में कुबेर करें

अनुमति सीता की लेकर तब, उत्सवकालिक कृत्य कर
श्रीराम निकले महल से, साथ सुमन्त्र सूत को लेकर

पर्वत गुफा से ज्यों सिंह निकले, वैसे ही बाहर आकर
लक्ष्मण को उपस्थित देखा, वहाँ खड़े थे हाथ जोड़कर

मध्यम कक्षा में मित्र थे, प्रार्थी भी मिलने आये थे
कर संतुष्ट सभी को तब वे, उत्तम रथ पर आरूढ़ हुए

मेघ समान गर्जना करता, विस्तृत, कांतिमय रथ वह
चकाचौंध पैदा कर देता, लोगों की आँखों में वह

उत्तम घोड़े जुड़े हुए थे, गज शावकों से पुष्ट थे
हरे रंग के अश्वों वाला, इंद्र का रथ है सुंदर जैसे

साथ लक्ष्मण भी बैठ गये, लिए विचित्र चंवर हाथ में
रक्षा करने लगे राम की, चंवर डुलाते वे पीछे से

फिर तो निकली भीड़ बड़ी, कोलाहल मचा भारी
पीछे-पीछे चलते अश्व, विशाल सैकड़ों हाथी भी

आगे शूरवीर चलते थे, चन्दन, अगरु से विभूषित
खड्ग, धनुष धारण किये, जो कवच से थे सज्जित

वाद्यों की ध्वनि, स्तुतिपाठ के, शब्द सुनाई देते थे  
गूंज रहे थे उस मार्ग में, सिंहनाद शूरवीरों के

ढेर के ढेर फूल बिखेरें, महलों से सुंदर वनिताएँ
भूतल पर खड़ी युवतियां, श्रेष्ठ वचन से स्तुति गाएं

माता को सुख देने वाले, होगी सफल यात्रा यह
राज्य लक्ष्मी प्राप्त करेंगे, पूर्ण हमें है यह निश्चय

सीता हैं सौभाग्यशालिनी, तप किया होगा भारी
श्रीराम को प्राप्त किया है, ज्यों चन्द्रमा संग रोहिणी

राजमार्ग में रथ पर बैठे, श्रीराम बातें सुनते थे
दूर-दूर से आये जन भी, वार्तालाप वहाँ करते थे

राम हमारे शासक होंगे, होगी पूर्ण कामना अपनी
चिरकाल तक बनें यह राजा, लाभ है जनता का भारी  

नहीं अप्रिय किसी का होगा, नहीं किसी को कोई दुःख
दशरथ की कृपा से राम, सम्पत्ति पाकर पायें सुख

हिनहिन करते अश्व, गज भी चिंघाड़ते थे मार्ग में
जय जय कार सुनाते वंदी, स्तुतिपाठ सूत करते थे

मागध विरुदावली बखानें, गुणगायक के तुमुल घोष थे
पूजित, वन्दित होते उनसे, कुबेर समान राम चलते थे

भरा हुआ था जो खचाखच, राजमार्ग देखा राम ने
हर चौराहे पर मार्ग के, जनसमूह कई एकत्र हो रहे

रत्नों से भरी दुकानें थीं, दोनों ओर पार्श्व भागों में
स्वच्छ अति उस राजमार्ग पर, विक्रय योग्य ढेर द्रव्यों के

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सोलहवाँ सर्ग पूरा हुआ.






Monday, October 26, 2015

सुमन्त्र का श्रीराम के महल में पहुँचकर महाराज का संदेश सुनाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

षोडशः सर्गः
सुमन्त्र का श्रीराम के महल में पहुँचकर महाराज का संदेश सुनाना और श्रीराम का सीता से अनुमति ले लक्ष्मण के साथ रथ पर बैठकर गाजेबाजे के साथ मार्ग में स्त्री-पुरुषों की बातें सुनते हुए जाना

ज्ञान जिन्हें पुराणों का था, सूत सुमन्त्र द्वार पार कर
जा पहुँचे एकांत कक्ष में, नहीं भीड़ थी जरा जहाँ पर

धनुष लिए कुछ युवक खड़े थे, कुंडल धारे स्वर्ण कर्ण में
वृद्ध पुरुष भी कुछ बैठे थे, स्त्रियों के जो संरक्षक थे

देखा जब सुमन्त्र को आते, उठकर सभी खड़े हो गये
कहा सूत ने कहो राम से, आए हैं वे मिलने उनसे

सीता सहित राम विराजते, जब संदेश मिला उनको
हों प्रसन्न पिता जिससे, वहीं बुलाया तब सुमन्त्र को

वस्त्राभूषण से अलंकृत, राम कुबेर समान सुशोभित
चन्दन लेप लगा अंगों में, स्वर्ण पलंग पर थे विराजित

निकट अति सीता के बैठे, चित्रा संग ज्यों हो चन्द्रमा
सीता बैठी चंवर हिलाएं, सूर्य समान था तेज टपकता

दर्शन करके श्रीराम का, हाथ जोड़कर कहा सूत ने
धन्य किया आपने माँ को, पिता आपसे मिलना चाहें

सर्वश्रेष्ठ सन्तान है जिनकी, कौशल्या माँ बनी हैं ऐसी
शीघ्र चलें अब निकट पिता के, जहाँ मिलेंगी माँ कैकेयी

कहा राम ने सुन सीता से, चर्चा मेरे विषय में होगी
निश्चय ही विचार करते, माता-पिता अभिषेक सम्बन्धी

राजा का अभिप्राय जानकर, उनका प्रिय चाहने वाली
परम उदार कैकेयी उनको, इस हित प्रेरित करती होंगी

अति प्रसन्न हुई वे होंगी, मेर भला चाहती हैं वे
सौभाग्य की बात अति है, महाराज भी संग हैं उनके

दर्शन करूँगा महाराज का, शीघ्र यहाँ से मैं जाकर
परिजनों के संग रहो तुम, आनंदित व सुखपूर्वक

मंगल-चिंतन सीता करतीं, गयीं द्वार तक, वचन कहे
युवराज पद देकर राजा, सम्राट पद दें बाद में

राजसूय यज्ञ में दीक्षित, व्रत पालन करने में श्रेष्ठ
मृगचर्म धारी आप हों, लिए हाथ में मृग का श्रृंग

इसी रूप में करूं मैं दर्शन, सेवा में संलग्न रहूँ
शुभकामना यही है मेरी, सभी दिशाएं रक्षक हों


Monday, October 19, 2015

सुमन्त्र का राजा की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिए उनके महल में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पंचदशः सर्गः

सुमन्त्र का राजा की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिए उनके महल में जाना 

सोने के फूलों के मध्य, ज्यों पिरोई गई हों मणियाँ
चन्दन व अगर की गंध थी, सुंदर सजी हुई मूर्तियाँ

कलरव करते सारस पक्षी, भव्य इंद्र के भवन समान
मेरु पर्वत का शिखर ज्यों, शोभित होता सुंदर धाम

जनपदवासी पहुंच गये थे, उत्सव हेतु थे उत्कण्ठित
दीवारों में रत्न जड़े थे, भीड़ से होता था सुसज्जित

रथ में बैठ सुमन्त्र वहाँ गये, हर्ष के कारण थे रोमांचित
लाँघ अनेकों ड्योढ़ियों को, अंतः पुर तक हुए उपस्थित

हर्ष भरी बातें करते थे, वहाँ खड़े जो सेवकगण थे
शत्रुन्जय विशाल गजराज, जैसा नाम वैसे गुण थे

राजा के जो परम प्रिय थे, मंत्री गण भी आये मिलने
किया प्रवेश सुमन्त्र ने भीतर, एक ओर करके उन्हें

जैसे जाये मगर सागर में, वैसे ही सुमन्त्र गये भीतर
पर्वत शिखर पर मेघ हो जैसे, महल अत्यधिक था सुंदर  



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में पन्द्रहवाँ सर्ग पूरा हुआ. 

Monday, October 5, 2015

सुमन्त्र का राजा की आज्ञा से श्रीराम को बुलाने के लिए उनके महल में जाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

पंचदशः सर्गः


वेदों के पारंगत ब्राह्मण, राजपुरोहित रात बिताकर
राजा की प्रेरणा से ही, प्रातः आये राजद्वार पर

मंत्री, सेना के अधिकारी, बड़े-बड़े साहूकार भी
श्रीराम के अभिषेक हित, एकत्र हुये थे ख़ुशी-ख़ुशी

सूर्योदय होने पर दिन में, हुआ योग पुष्य नक्षत्र का
कर्क लग्न हुआ उपस्थित, जब श्रीराम के जन्म का

रख दी थी सारी सामग्री, जल से भरे कलश सोने के
भद्रपीठ, रथ, संगम का जल, की एकत्र थीं सब वस्तुएं

पावन सरवर, कूप, व नदियाँ, पूर्व दिशा को जो बहती थीं
निर्मल जल जिनमें रहता है, उत्तर, दक्षिण जो जाती थीं

उन सबका जल भी लाये थे, दूध, दही, घी, लावा भी था
कुश, पुष्प, आठ कन्याएं, गजराज, थी कमल की शोभा

श्रीराम हित पीतवर्ण का, उत्तम चंवर कांति युक्त था
चन्द्र समान श्वेत छत्र भी, परम प्रकाश दे शोभा पाता

श्वेत वृषभ व श्वेत अश्व थे, वाद्य सभी भांति के थे
स्तुति पाठ करने वाले, वंदी व मागध जन थे

देख द्वार पर न राजा को, कहने लगे, कहाँ हैं राजा ?
हम सब आये हैं द्वार पर, कौन उन्हें सूचना देगा

बातें करते थे जब वे सब, कहा तभी सुमन्त्र ने आकर
जाता हूँ राम को बुलाने, महाराज की आज्ञा पाकर

आप सभी पूजनीय राजा के, कुशल पूछता उनकी ओर से
सुख से होंगे आप सभी, कह ऐसा सुमन्त्र पुनः लौटे

सद खुला था उनके हित वह, सुमन्त्र राजभवन में गये
स्तुति की फिर राजवंश की, जाकर निकट शयन गृह के

चन्द्र, सूर्य, शिव कुबेर, वरुण, इंद्र दें विजय आपको
आया दिवस, गयी रात्रि, जग जाएँ, करें प्राप्त कर्म को

ब्राह्मण, सेना के अधिकारी, बड़े-बड़े साहूकार भी
आये हैं द्वार पर सारे, अभिलाषा लेकर दर्शन की

 राजा ने तब कहे वचन ये, श्रीराम को क्यों न बुलाया  
जगा हूँ मैं, नहीं सोया, पालन शीघ्र हो आज्ञा का

राजा के सुन वचन सुमन्त्र, राजभवन से बाहर आए
ध्वजा-पताकाओं से सज्जित, राजमार्ग पर वे आए

हर्ष और उल्लास में भरकर, आगे बढ़ते ही जाते थे
श्रीराम के अभिषेक की, बातें सुनते सब के मुंह से

कैलाश पर्वत की भांति, सुंदर भवन था श्रीराम का
बंद था फटक विशाल, छोटा सा ही द्वार खुला था

मणि और मूंगे जड़े थे, थीं प्रतिमाएं अग्रभाग में
श्वेत कांति से युक्त भवन, था जगमग मुक्तामणियों से