Thursday, March 24, 2022

राम का पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

पंचाधिकशततम: सर्ग: 


भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना, श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना 


नाश हो रहा है आयु का, हित आत्मा का सदा धर्म से 

सब अपना कल्याण चाहते, करें साधना जान के इसे 


पिता हमारे धर्मात्मा थे, यज्ञ किए परम शुभ कारक 

दी पर्याप्त दक्षिणाएँ भी, स्वर्ग गये हैं पावन होकर 


परिजनों का पालन करते थे, प्रजाजनों का पोषण भी 

धर्म युक्त कर ही लेते थे, इस कारण पायी श्रेष्ठ गति 


यज्ञ पुरुष की कर आराधना, प्रचुर भोग प्राप्त किए थे 

सत्पुरुषों से हुए सम्मानित, उत्तम आयु भी मिली उन्हें 


शोक करने योग्य नहीं हैं, दैवी सम्पत्ति उन्हें  मिली है

ब्रह्मलोक में विचरण करते, दान-दक्षिणा अति बाँटी है 


शास्त्र ज्ञान से सम्पन्न हो तुम,  शोक न करो पिता के लिए

धीर व प्रज्ञावान पुरुष को, है उचित,सभी दुःख शोक तजे 


वक्ताओं में श्रेष्ठ हे भरत, त्यागो विलाप अब स्वस्थ बनो 

अयोध्यापुरी में लौट पुनः, पिता की आज्ञा को मानो 


पुण्य कर्मा उन महाराज ने, मुझे भी जो आज्ञा दी है 

पालन करूँगा वही आदेश, उसे तोड़ना उचित नहीं है


सर्वदा सम्मान के योग्य, वही हितैषी जन्मदाता थे 

वनवास के कर्म के द्वारा, करूँगा पालन वचन उनके  


जो परलोक पर विजय चाहता, वह नर धर्म के पथ जाए 

गुरुजनों का आज्ञापालक, आत्मा को उन्नत बनाए 


पूज्य पिता के शुभ कर्मों पर, कर दृष्टिपात प्रयास करो 

निज धार्मिक स्वभाव के द्वारा, स्वयं उद्धार का यत्न करो 


एक मुहूर्त राम भरत को, पिता की आज्ञा रहे बताते 

अर्थयुक्त वचन कई कहकर, श्रीरामचंद्र फिर मौन हुए 



इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ पाँचवाँ सर्ग पूरा हुआ.


Thursday, March 10, 2022

श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्


पंचाधिकशततम: सर्ग: 


भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना, श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना 


 सब संग्रहों का अंत विनाश, लौकिक उन्नति का अंत पतन 

मिलन का अंत वियोग ही होता, जीवन का है अंत मरण 


पके हुए फल ज्यों गिर जाते, पतन सिवा भय है उनको क्या

पैदा हुआ हर प्राणी मरे, मृत्यु सिवा उसको भी भय क्या 


जैसे सुदृढ़ स्तम्भ वाला घर, ढह जाता जर्जर होने पर

सब मानव भी नष्ट हो जाते, जरा और मृत्यु वश पड़कर 


रात्रि जो भी गुजर जाती है, नहीं लौटकर वापस आती 

जल से भरे समुद्र को गयी, यमुना वापस नहीं लौटती 


दिवस-रात गुजरते अविरत, आयु सभी की सदा ही घटती 

सूर्य रश्मियाँ ग्रीष्म ऋतु में, ज्यों नीर सदा सुखातीं रहतीं 


तुम स्वयं के लिए ही सोचो, क्यों करते हो शोक अन्य का 

आयु नर की सदा घटती, हो अन्यत्र या वासी यहाँ का 


मृत्यु सदा साथ ही चलती, संग बैठती सदा मानव के 

दूर यात्रा में संग जाकर, साथ लौटती सदा उसके 


तन पर पड़ीं झुर्रियाँ जिसके, सिर के केश सफ़ेद  हो गए 

जरावस्था से जीर्ण हुआ नर, मृत्यु से बचेगा कैसे 


नर सूर्योदय पर खुश होते, सूर्यास्त का स्वागत करते 

प्रतिदिन जीवन विनष्ट हो रहा, किन्तु न इतनी बात जानते 


किसी ऋतु का प्रारम्भ देखकर, लोग हर्ष से खिल उठते हैं 

पर न जानें ऋतु परिवर्तन से, क्षय होता प्राणों का उनके 


ज्यों सागर में बहते दो काठ, मिलकर बिछड़ कभी जाते हैं 

स्त्री, पुत्र, कुटुंम्ब, धन आदि, सदा साथ कब किसके रहते हैं 


इस जग का कोई भी प्राणी, जन्म-मरण से नहीं बच सकता 

स्वयं की मृत्यु को टाल न सके, मृत के लिए शोक जो करता 


ज्यों जाते यात्रियों को देख, मार्ग में खड़ा पथिक सुनाये 

मैं भी पीछे ही आता हूँ,  तदनुसार वह पीछे जाये 


वैसे ही पूर्वज हमारे, जिस मार्ग से गए हैं आगे 

जिस पर जाना अनिवार्य है, जिससे कोई बच नहीं पाए 


उस मार्ग पर खड़ा हुआ नर, औरों हित कैसे शोक मनाये 

जैसे नदियाँ नहीं लौटतीं, ढलती आयु नहीं फिर आये 


Thursday, March 3, 2022

भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना



श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

पंचाधिकशततम: सर्ग: 


भरत का श्रीराम को अयोध्या में चलकर राज्य ग्रहण करने के लिए कहना, श्रीराम का जीवन की अनित्यता बताते हुए पिता की मृत्यु के लिए शोक न करने का भरत को उपदेश देना और पिता की आज्ञा का पालन करने के लिए ही राज्य ग्रहण न करके वन में ही रहने का दृढ़ निश्चय बताना 


वह रात्रि शोक में ही बीती, सब भाई मिलकर बैठे थे

प्रातः काल मंदाकिनी तट गये, स्नान, होम, जप आदि किए  


पुनः आकर हो मौन बैठ गए, कोई कुछ नहीं बोल रहा 

सुहृदों के मध्य बैठे तब, भ्राता राम से भरत ने कहा 


पिताजी ने  देकर वरदान,  संतुष्ट किया मेरी माँ को

माँ ने राज्य मुझे सौंपा,  जो  सेवा में अर्पित आपको


आप करें अब पालन इसका,  मैं देता हूँ अपनी ओर से

वर्षा में भग्न पुल की भाँति,  अति कठिन है सम्भालना इसे


गधा अश्व की, विहग गरुड़ की,  चाल नहीं चल सकते जैसे

मुझमें भी सामर्थ्य नहीं यह , आप भाँति राज करूँ कैसे 


करे अन्यों का जीवन निर्वाह, उत्तम है उसी का  जीवन

जो अन्य के आश्रित रहता,  अति दुखकारी है उसका हर दिन  


जैसे फल की इच्छा रखकर, कोई एक पौधा लगाता 

पालपोसकर बड़ा भी किया, किंतु नहीं उससे फल पाता 


कैसे वह सुख पा सकता है, जिसने उसे लगाया था 

इस उपमा को आप समझ लें, क्या इसमें समझाया था 


श्रेष्ठ और समर्थ होकर, यदि आप राज्य का भार न लें 

आप पर ही लागू होगा,  जो  प्रसंग कहा है पहले


विभिन्न संघ व प्रधान पुरुष सब, शत्रु दमन राम को देखें 

तपते सूर्य की भाँति आप, जब राज्य सिंहासन पर बैठें 


लौट अयोध्या चलने पर, मतवाले गज गर्जना करें 

अंत:पुर की सारी स्त्रियाँ मिल, अभिनंदन हर्षित हो करें 


भरत की बात का अनुमोदन, विभिन्न नागरिकों ने किया 

तब धीर भगवान राम ने,  देते हुए सांत्वना यह कहा  


ईश्वर सम जीव नहीं स्वतंत्र, इच्छा से कुछ कर न सकता 

काल डोर में बँधा हुआ है, इधर-उधर खिंचा है करता