Thursday, August 11, 2016

नगरवासिनी स्त्रियों का विलाप करना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

अष्टचत्वारिंशः सर्गः

नगरवासिनी स्त्रियों का विलाप करना

थे विषाद ग्रस्त अति पीड़ित, प्राणत्याग की इच्छा रखते
साथ राम के जाकर भी जो, बिना लिवाये ही लौटे थे

उनकी दशा अति हीन थी, मानो प्राण न शेष रहे
पत्नी व पुत्रों से मिलकर, अश्रु बहाते वे बैठे थे

नहीं चिह्न हर्ष का कोई, मन भी उनका निरानंद था
वैश्यों ने दुकानें न खोलीं, बाजार भी खाली ही था

चूल्हे नहीं जले घरों में, उस दिन नहीं बनी रसोई
होता नहीं था हर्ष किसी को, खोई वस्तु पाकर भी

माता हर्षित नहीं हुई थी, प्रथम बार माँ बनने पर
स्वागत नहीं किया किसी ने, धन-राशि विपुल पाकर  

बिना राम देख पतियों को, रोने लगी स्त्रियाँ घर-घर
लगीं कोसने कटु वाणी से, दुःख से वे आतुर होकर

ज्यों अंकुशों से हाथी को, पीड़ित करें महावत वैसे
वचन बोलती थीं कठोर, नहीं प्रयोजन अब सुखों से

सत्पुरुष हैं एक लक्ष्मण, सेवा हित जो साथ गये  
जिनमें राम ने किया स्नान, पुण्यशाली नद, सरवर वे

सुंदर वृक्षों वाले वन वे, नदियाँ जिनके बड़े कछार
शिखरों से सम्पन्न पर्वत, शोभित होंगे पाकर राम

प्रिय अतिथि की भांति देख, वन, पर्वत उन्हें पूजेंगे
पुष्प, मंजरी धारण करके, भ्रमरों संग उन्हें मोहेंगे

असमय में भी वे वन पर्वत, फल और फूल भेंट करेंगे
विविध विचित्र झरनों द्वारा, निर्मल जल के स्रोत बहेंगे

लहलहाते वृक्ष शिखर पर, मनोरंजन करेंगे उनका
जहाँ राम हैं भय न कोई, न ही कभी पराभव होता

जब तक दूर निकल न जाते, इससे पहले उन्हें खोज लें
छाया उनकी सुखद अति है, रक्षक, गति आश्रय हैं वे

तुम रघुनाथ की सेवा करना, सीताजी की सेवा हम
इस प्रकार बोलीं स्त्रियाँ, पतियों से होकर व्याकुल

सिद्ध करेंगे योगक्षेम वे, सीता पालन करें हमारा
रहित प्रीति व प्रतीति से, भाता नहीं निवास यहाँ का

कैकेयी का शासन होगा, धर्म की न मर्यादा होगी
धन-पुत्रों से क्या प्रयोजन, नहीं कामना जीने की

जिसने राज्य-वैभव के हित, पुत्र-पति का त्याग किया
किसका त्याग नहीं करेगी, कौन भला सुख पा सकता

जब तक जीवित है कैकेयी, कैसे हम सब यहाँ रहेंगे
हुआ अनाथ राज्य यह सारा, महाराज भी कहाँ बचेंगे

पुण्य समाप्त हुए हमारे, यही समझ लो तुम यह अब
दुःख ही अति भोगना होगा, नहीं यहाँ सुरक्षित हम

या करें अनुसरण राम का, अथवा दूर चले जाएँ
बंधे हुए पशु की भांति, अब हम स्वयं को पायें

श्रीराम हैं अति बलशाली, सत्य वचन बोलने वाले
अति प्रिय है दर्शन उनका, पृथ्वी की शोभा बढ़ाते

रोने लगीं स्त्रियाँ यह कह, मानो मृत्यु के भय से
धीरे-धीरे रात्रि आ गयी, सूर्यदेव अस्ताचल गये

अग्निहोत्र भी नहीं हुआ, स्वाध्याय न कथावार्ता
अंधकार से पुती थी नगरी, आश्रय रहित हुई अयोध्या

चहल-पहल नहीं थी कोई, हँसी-ख़ुशी भी छिन गयी थी
तारों बिना ज्यों हो आकाश, श्रीहीन जान पड़ती थी  

ऐसे रोती थीं राम हित, नगरवासिनी वे स्त्रियाँ
सगे पुत्र या भाई को, मिला हो जैसे देशनिकाला

पुत्रों से बढ़कर थे राम, रोते-रोते हुईं अचेत वे
सुनसान लगती थी नगरी, उत्सव बंद हुए थे सारे


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अड़तालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.

Thursday, August 4, 2016

प्रातःकाल उठने पर पुरवासियों का विलाप करना और निराश होकर नगर को लौटना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

प्रातःकाल उठने पर पुरवासियों का विलाप करना और निराश होकर नगर को लौटना

बीती रात जानकर जब, सुबह अयोध्यावासी जागे
हुए अचेत, शोक से व्याकुल, श्रीराम को न पाकर वे

खिन्न हुए से लगे खोजने, किन्तु न कोई चिह्न पा सके
दीन हुए से अश्रु बहाते, विलग हुए जब श्रीराम से

करुणा भरे वचन बोलते, भर विषाद में वे स्वयं को
है धिक्कार नींद को, जिसमें खोकर, खोया महाबाहु को

कभी नहीं निष्फल होती है, जिनकी कोई भी क्रिया
तापसवेश धरे राम ने, क्यों भक्तों का त्याग किया

पिता की भांति पालन करते, रक्षा सदा हमारी की
क्यों छोड़कर चले गये हैं, रघुकुल श्रेष्ठ राम वे ही

जीवन हितकर नहीं राम बिन, अब हम यहीं प्राण त्यागें
या मरने का निश्चय करके, उत्तर दिशा की ओर चलें

अथवा सूखे काठ यहाँ हैं, चिता जला प्रवेश करेंगे
राम को वन छोड़ आए हैं, कैसे ऐसे वचन कहेंगे

श्रीराम के बिना देखकर, नगरी दीन हीन होगी
उनके साथ निवास करेंगे, यही हमारी इच्छा थी

अयोध्या को कैसे देखेंगे, अब उनसे हम विलग हुए
इसी तरह की बातें कहते, वे विलाप करने लगे

बछड़ों से जो बिछुड़ गयी हों, उन गौओं की भांति व्याकुल
रथ की लीक देख गये आगे, चिह्न न पाकर लौटे आकुल

क्या हुआ ? अब क्या करें ?, भाग्य ने लिख दिया मरण
कहते हुए वे पुरुष मनस्वी, रथ की लीक का करें अनुसरण   

अश्रु बहाते थे नेत्रों से, चित्त क्लांत हुआ था उनका
जिस मार्ग से गये थे वन को, लौट उसी से गये अयोध्या

जहाँ सभी अति व्यथित थे, उस नगरी को उन्होंने पाया
गरुड़ से नाग निकाल लिया हो, उस नदी की भांति सूना

शोभित नहीं थी अब वह नगरी, चन्द्रहीन आकाश की भांति
जलहीन सागर सी शून्य, देख अवस्था हुए दुखी

नष्ट हुआ था उनके उर का, हर्ष और सारा उल्लास  
दुःख से पीड़ित नहीं कर सके, निज-अन्य की वे पहचान


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में सैंतालीसवाँ सर्ग पूरा हुआ.