Wednesday, April 5, 2017

महाराज दशरथ की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम और लक्ष्मण के संदेश सुनाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

अष्टपञ्चाश: सर्गः
महाराज दशरथ की आज्ञा से सुमन्त्र का श्रीराम और लक्ष्मण के संदेश सुनाना

चेत हुआ मूर्च्छा जब टूटी, राजा ने बुलाया सुमन्त्र को
खड़े रह गये हाथ जोड़कर, देख अति उनके शोक को

जैसे तुरंत पकड़ कर लाया, हाथी लम्बी साँस खींचता
श्रीराम हित दीर्घ श्वास ले, अस्वस्थ से हुए थे राजा

देखा उन्होंने तब सुमन्त्र को, धूल भरा तन है उनका
दीन अति दिखाई देते, मुख पर बहती अश्रु धारा

अत्यंत आर्त होकर तब, राजा ने उनसे यह पूछा
वृक्ष की जड़ का ले आश्रय, राम निवास करेंगे कहाँ

सुख में जिनको मैंने पाला, वे लाडले क्या खायेंगे
दुःख भोग के योग्य नहीं जो, भूमि पर कैसे सोयेंगे

यात्रा काल में जिनके पीछे, पैदल, रथी, चलती थी सेना
अजगर, व्याघ्र जहाँ बसते, कैसे लेंगे आश्रय वन का

अश्विनीकुमार ज्यों मन्दराचल पर, जंगल के भीतर जाते
कृत-कृत्य हो तुमने देखा, मेरे पुत्रों को वन जाते

क्या संदेश दिया राम ने, सीता और लक्ष्मण ने भी
कैसे सोये, उठे-बैठे वे, कहो सभी बातें उनकी

जैसे स्वर्ग से गिरे ययाति, सत्संग पा हुए सुखी
सुखपूर्वक जी लूँगा मैं, वृतांत पुत्र का सुनकर ही

महाराज ने जब पूछा यह, गद्गद वाणी द्वारा बोले
धर्म का पालन करते दोनों, हाथ जोड़कर कहा राम ने

आत्मज्ञानी व परम वन्दनीय, मेरे महात्मा पिता के  
चरणों में कहना प्रणाम, मस्तक झुका मेरी ओर से

अंत:पुर में माताओं को, आरोग्य का देना संदेश
अग्निहोत्र का रखें ध्यान, कौसल्या से कहा विशेष

महाराज को मान देवता, चरणों की सेवा वे करें
अभिमान, व मान त्याग, सम व्यवहार सभी से करें

जिसमें राजा का अनुराग, उस कैकेयी का सत्कार करें
आदर पात्र जान भरत से, राजोचित व्यवहार करें

कुशल बता कुमार भरत से, मेरी ओर से इतना कहना
भैया, तुम सब माताओं से, न्यायोचित बर्ताव ही करना

युवराज जब बनें भरत, करें पिता की रक्षा, सेवा
बिना उतारे पिता को पद से, मान रखें उनकी आज्ञा का

अश्रु बहाते हुए नयन से, राम ने यह संदेश दिया
मेरी पुत्र वत्सला माँ को, निज माता समान समझना

इतना कहकर महाबाहु ने, बड़े वेग से अश्रु बहाये
दीर्घ श्वास लेकर लक्ष्मण ने, हो कुपित ये शब्द सुनाये

किस अपराध के कारण इनको, राजा ने वनवास दिया
कैकेयी का सुन आदेश, ‘करूं पूर्ण’, झट की प्रतिज्ञा

उचित या अनुचित हो कर्म यह, कष्ट हमें भोगना पड़ता
श्रीराम को देना वनवास, हर दृष्टि में पाप ही लगता

कैकेयी का लोभ है कारण, अथवा राजा का वरदान
या ईश्वर की प्रेरणा इसमें, मुझे न मिलता समाधान

उचित-अनुचित के बोध बिना, शास्त्र विरुद्द कार्य हुआ है
निंदा व दुःख का जनक है, क्रूरता पूर्ण यह कृत्य किया है

नहीं दिखाई देता मुझको, राजा में पिता का भाव
राम ही मेरे भाई, स्वामी, पिता और बन्धु बांधव

सर्वप्रिय राम को त्यागा, सब के हित में जो तत्पर थे
नहीं रहेगा अब अनुरक्त, संसार ऐसे राजा में  

मन रमता है प्रजा का जिनमें, उन राम को देश निकाला
लोकों का विरोध किया है, कैसे अब हो सकेंगे राजा

सीता तो निश्चेष्ट खड़ी थीं, मानों आवेशित हो गयी हों
भूली सी जान पडती थीं, सूखे मुख से देख पति को

पहले कभी न संकट देखा, कुछ भी कहा नहीं उन्होंने
अश्रु बहाती हुई खड़ी थीं, दुखी हो दुःख से पति के वे

लक्ष्मण की भुजाओं से रक्षित, राम खड़े थे अश्रु बहाते
 कभी देखतीं सीता मुझको, कभी आपका यह रथ देखें


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में अट्ठावनवाँ सर्ग पूरा हुआ.