Monday, August 6, 2018

भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः

श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्




चतुःसप्ततितमः सर्गः
भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना 


एक समय दृष्टि जब डाली, सुरभि ने अपने पुत्रों पर   
हुए अचेत से थक गये थे, मध्याह्न तक वे हल जोतकर

पुत्रों को इस दशा में देख, सुरभि लगी थी अश्रु बहाने
उसी समय इंद्र जाते थे, दो आँसूं उन पर भी गिर गये

इंद्र ने दृष्टि ऊपर डाली, देखा नभ में सुरभि खड़ी है 
सबका हित चाहने वाली, दीन भाव से स्वयं पीड़ित है

देवराज उद्व्गिन हो उठे, हाथ जोड़कर उससे बोले
 क्या हम पर कोई भय आया, किस कारण दुःख पाया तुमने

प्रश्न सुना जब इंद्र का उसने, उत्तर दिया धीर सुरभि ने
देवराज ! नहीं कोई भय है, दुखी देख पुत्रों को दुःख में

ये दोनों दुर्बल व दुखी हैं, सूर्य ताप से भी पीड़ित हैं
दुष्ट किसान इन्हें मारता, ये दोनों मुझे अति ही प्रिय हैं

सारा जगत भरा हुआ है, जिस कामधेनु के पुत्रों से
रोती देखकर उसे इंद्र ने, माना पुत्र अति प्रिय होते 

देवेश्वर ने अपनी देह पर, पावन अश्रुपात देख तब
सुरभि को अति श्रेष्ठ माना था, दो पुत्रों हित दुखी देखकर

हितकारी हैं समान रूप से, दान रूप शक्ति से सम्पन्न
सहस्त्र पुत्र धारण करती हैं, दो पुत्रों हित करती क्रन्दन

जिनका केवल एक पुत्र है, कितना दुख वह पाती होंगी
है विछोह राम का जिनसे, कैसे वह कौशल्या रहेंगी

इकलौते पुत्र वाली जो, सती-साध्वी कौसल्या को
दुख देकर तू सुखी न होगी, जब जाएगी परलोक को

मैं तो यह राज्य लौटाकर, पूजा करूँगा प्रिय राम की
अंत्येष्टि संस्कार करवा के,  पूजन होगा पिता का भी

तेरा दिया कलंक मिटाने, स्वयं मैं वन को जाऊंगा,
जो हमारे यश को बढ़ाएं, ऐसे ही मैं कर्म करूँगा

अश्रु बहाते अवरुद्ध कंठ, सब पुरवासी मुझको देखें
तेरे पाप का बोझ उठाऊँ, नहीं यह हो सकता मुझसे

जलती अग्नि में प्रवेश करे, अथवा स्वयं वन को चली जा
 बाँध गले में रज्जु प्राण दे,  नहीं गति दूजी इसके सिवा

सत्य पराक्रमी श्रीराम जब, आ जायेंगे  पुनः अयोध्या
तभी कलंक मिटेगा मेरा, कृत-कृत्य भी तभी होऊंगा

अंकुश द्वारा पीड़ित हाथी सम,  कह यह भू पर भरत गिरे
फुफकारते सर्प  की भांति, लम्बी श्वासें लगे खींचने 

उत्स्व के समाप्त होने पर, इंद्र ध्वजा गिरायी ज्यों जाती 
भरत गिरे, टूटे आभूषण,  रक्तिम नेत्र, बिखरे वस्त्र भी

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में चौहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.