श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
नवाधिकशततम: सर्ग:
श्रीराम के द्वारा ज़ाबालि के मत का खंडन करके आस्तिक मत का स्थापन
ज़ाबालि का वचन सुना जब, सत्यप्रतिज्ञ श्री रामचंद्र ने
श्रुति सम्मत उक्ति के द्वारा, हो संशय रहित ये वचन कहे
मेरा प्रिय करने की ख़ातिर, कर्तव्य की जो बात कही
ज्यों अपथ्य,पथ्य सम लगता, किसी भांति भी करने योग्य नहीं
धर्म, वेद की तज मर्यादा, जो नर पाप कर्म में लगता
भ्रष्ट हुआ आचार-विचार से, सत्पुरुषों में यश न पाता
आचार ही यह बतलाता, किस कुल में जन्म किया धारण
कौन वीर, कौन बकवादी, कौन पवित्र है कौन अपावन
आपने जो आचार बताया, अनार्य पुरुष उसे अपनाते
भीतर से अपवित्र रहे जो, शीलवान ऊपर से दिखते
चोला पहने हुए धर्म का, उपदेश आपका है अधर्म
माना जाऊँगा दुराचारी,त्याग दूँ यदि मैं शुभकर्म
जग में वर्णसंकरता बढ़े, कर्तव्य भान खो जाएगा
लोक कलंकित होगा इससे, कोई न श्रेष्ठ मान पाएगा
निज प्रतिज्ञा यदि कोई तोड़े, किस साधन से पाए स्वर्ग
यदि मैं नहीं कोई किसी का, किसका है फिर यह उपदेश
यदि चलूँ आपके मार्ग पर, स्वेच्छा चारी बन जाऊँगा
लोक भी वैसा ही करेगा, प्रजा भी वैसी जैसा राजा
सत्य का सदा पालन करना, राजाओं का दया धर्म है
सत्य स्वरूप राज्य होता है, सत्य में ही लोक टिका है
सत्य का आदर करते आए, सदा ऋषि गण और देवता
सत्यवादी पुरुष लोक में, अक्षय परम धाम को जाता
जैसे सर्प से भय लगता, असत्य वक्ता से सभी डरते
सत्य पराकाष्ठा धर्म की, वही सबका मूल कहा जाता
जगत में सत्य ईश्वर ही है, धर्म टिका है इसके बल पर
मूल सभी का सत्य है केवल, नहीं परम पद उससे बढ़कर
दान, यज्ञ, तप, वेद, होम का, एक सत्य ही सदा आधार
सत्यपरायण बनें सभी जन, इसका ही करें सब व्यवहार
कोई जगत का पालन करता, कोई कुल को करता पोषित
कोई यहाँ नर्क जाता है, कोई स्वर्गलोक में प्रमुदित
सत्य प्रतिज्ञ हूँ मैं यदि, पिता के सत्य को किया है धारण
ऐसी दशा में क्यों न करूँ, उनके इस आदेश का पालन
पहले कर प्रतिज्ञा इसकी,लोभ, मोह अज्ञान के कारण
हो विवेकशून्य क्यों अब, नहीं मर्यादा का करूँ पालन
सुना है जो भी भ्रष्ट हुआ नर, वचन तोड़ने का कारण से
उसके दिए हवय-कव्य को, देवता भी ग्रहण नहीं करते
सत्य रूपी धर्म का पालन, हितकर सबके लिए मानता
सत्पुरुषों ने किया है धारण, सब धर्मों में श्रेष्ठ जानता
वल्कल, जटा आदि धार कर, तापस धर्म का पालन करते
सत्पुरुषों ने मार्ग दिखाया, हम उसका अभिनंदन करते
लगे धर्म पर हो अधर्म उस, क्षात्र धर्म को नहीं मानता
नीच, क्रूर, लोभी जन चलते, उस मार्ग का त्याग करूँगा
देह से जो पाप करे नर, पहले मन से निश्चित करता
फिर जिव्हा से उसे बता कर, अन्य के सहयोग से करता
कायिक, वाचिक, मनसा आदि, तीन तरह का पातक होता
सत्यवादी पुरुष सदा ही, हर प्रकार के पाप से बचता
बहुत सुंदर प्रस्तुति।
ReplyDeleteस्वागत व आभार ज्योति जी !
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