Thursday, September 26, 2013

विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र-दान


श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

सप्तविंशः सर्गः
विश्वामित्र द्वारा श्रीराम को दिव्यास्त्र-दान

ताटका वन में रात्रि बिताकर, मधुर स्वर में मुनि बोले
महायशस्वी राजपुत्र हे !, हूँ संतुष्ट अति मैं तुमसे

चाहे कोई भी हो शत्रु, असुर, नाग, गन्धर्व, देव सा
विजय सदा पाओगे इनसे, अस्त्र तुम्हें जो मैं देता

 हो कल्याण तुम्हारा रघुवर, दिव्य, महान अस्त्र लेकर
दंड, धर्म, काल, व विष्णु, तथा भयंकर एन्द्र का चक्र

नरश्रेष्ठ हे ! वज्र इंद्र का, लो शिव का श्रेष्ठ त्रिशूल भी
ब्रह्माजी का ब्रह्मशिर नामक, एषीकास्त्र व ब्रह्मास्त्र भी

इनके सिवा गदाएँ भी दो, शिखरी और मोदकी सुंदर
काल पाश व पाश वरुण लो, राम तुम्हें मैं करता अर्पण

सुखी, गीली, दोनों अशनि, नारायण, पिनाक अस्त्र भी
अग्नि, वायव्यास्त्र भी ले लो, क्रौंच अस्त्र व हयशिरा भी

किंकणी और कपाल अस्त्र संग, मूसल व कंकाल अस्त्र  
ऐसी दो शक्तियाँ भी लो, राक्षस जिनसे हो सकते हत

विद्याधरों का नन्दन नामक, गन्धर्वों का सम्मोहन भी
प्रसवापन, प्रशमन, अस्त्र संग, उनका ही सौम्य अस्त्र भी

महायशस्वी पुरुष सिंह हे, वर्षन, शोषण सन्तापन भी
कामदेव का प्रिय मादन लो, गन्धर्वों का मानवास्त्र भी

मोहनास्त्र भी ग्रहण करो तुम, मौसल, दुर्जय तामस, सौमन
सूर्यदेव का तेज प्रभ जो, शत्रु तेज को लेता है हर

सोम देव का शिशिर अस्त्र, त्वष्टा का दारुण अस्त्र
महा भयंकर भग देव का, मनु का भी शीतेषु अस्त्र  

बल से सम्पन्न सभी अस्त्र हैं, इच्छा धारी परम उदार
करो ग्रहण शीघ्र इनको तुम, महाबली हे राज कुमार

ऐसा कहकर मुनि बैठ गये, मुख करके पूर्व दिशा को
अति हर्षित मुनिवर ने फिर, उन अस्त्रों को दिया राम को

जैसे ही आरम्भ किया जप, दिव्यास्त्र सब हुए उपस्थित
हाथ जोडकर कहा राम से, हम सब हैं आपके किंकर

जो सेवा लेना चाहेंगे, देने को तैयार हैं हम सब
अति प्रसन्न हुए राम अब, स्पर्श किया उन सबका तब

ग्रहण किया राम ने उनको, स्थान दिया मन में अपने   
 किया प्रणाम मुनि को झुक कर, हुई आरम्भ यात्रा आगे

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में सत्ताईसवां सर्ग पूरा हुआ.
  


Thursday, September 12, 2013

श्रीराम द्वारा ताटका वध -अंतिम भाग

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षड्विंशः सर्गः
श्रीराम द्वारा ताटका वध 

इच्छाधारी थी ही ताटका, रूप अनेकों धारण करती
राम-लखन को डाल मोह में, पल भर में अदृश्य हो गयी

विचरण करने लगी गगन में, पत्थर की वर्षा तब हुई
कहा मुनि ने श्री राम से, व्यर्थ तुम्हारी करुणा गयी  

दुराचारिणी है यह पापिनी, विघ्न सदा यज्ञों में डाले
सांयकाल में होकर दुर्जय, पुनः प्रबल हो न माया से

बात सुनी जब मुनिवर की तब, शब्दबेधी बाण चलाया
प्रस्तर की वर्षा करती हुई, यक्षिणी को अवरुद्ध किया

घिर गयी जब बाण समूह से, गर्जन करती लपकी उनपर
इंद्र वज्र सा देखा आते, आहत किया था बाण मारकर

गिरी भूमि पर मृत होकर जब, देवों ने की थी सराहना
सुंदर वचन कहे ये मुनि को, इंद्र सहित वहाँ आए देवता

 प्रकट करें राम पर स्नेह अब, देवों को किया संतुष्ट
अर्पित करें शस्त्रों को जो, प्रजापति कृशाश्व के पुत्र

ये सुपात्र हैं अस्त्र दान के, सेवा करते सदा आपकी
 सम्पन्न होगा कार्य महान, देवों का इनके द्वारा ही

ऐसा कह देव चले गये, संध्या की हुई फिर बेला  
विश्वामित्र ने मस्तक सूंघा, फिर राम से वचन कहा

आज रात यही ठहरेंगे, कल पुनः जायेंगे आश्रम
सुख से यहाँ बिताओ रात, शापमुक्त हो गया है वन

चैत्ररथ था जैसा मनहर, वैसा ही वन बना था सुन्दर
प्रातःकाल की. की प्रतीक्षा, रात्रि वहीं बिताई सुखकर  

इस प्रकार श्रीवाल्मीकिनिर्मित आर्षरामायण आदिकाव्य के बालकाण्ड में छबीसवां सर्ग पूरा हुआ.


Friday, September 6, 2013

श्रीराम द्वारा ताटका वध

श्री सीतारामाचन्द्राभ्या नमः
श्रीमद्वाल्मीकिरामायणम्
बालकाण्डम् 

षड्विंशः सर्गः

श्रीराम द्वारा ताटका वध 

जोश भरे ये वचन मुनि के, सुन बोले उत्तम व्रती राम
पिता की यह आज्ञा है मुझको, वचन आपके सदा प्रमाण

हो निशंक मैं माँनू उनको, जो आदेश आपका होगा
पिता का वह उपदेश स्मरण कर, मैं ताटका वध करूंगा

गौ, ब्राह्मण, तथा देश का, हित करने का मैं इच्छुक
अनुपम मुनिवर ! आप कहें जो, कार्य पूर्ण करने को उत्सुक

 धनुष संभाला मध्य भाग से, ऐसा कहकर वीर राम ने
प्रत्यंचा पर दी टंकार, गूँज उठीं सम्पूर्ण दिशायें

उस शब्द को सुनकर काँपे, प्राणी सभी ताटका वन के
पहले हुई अधीर ताटका, फिर दौड़ी वह क्रोध में भरके

अति विशाल काया थी उसकी, मुखाकृति भी विकृत सी
अति क्रोध में भरी हुई थी, जब श्रीराम ने दी दृष्टि

 कैसा दारुण और भयंकर, इस निशाचरी का है तन
कहा लक्ष्मण से राम ने, दर्शन से भयभीत हों जन

मायाबल से दुर्जय है यह, इसे पराजित करूंगा मैं
स्त्री होने से रक्षित है, नष्ट करूं गति को इसकी मैं

श्रीराम ने कहा ही था, जब आयी वहीं ताटका भीषण
एक हाथ उठाकर दौड़ी, की गर्जना उसने दारुण

मुनि ने तब हुंकार भरी, विजय कामना की राम की
धूल उड़ाना शुरू किया तब, दोनों पर ताटका ने भी

 पल भर लख धूल के बादल, मोह में पड़े थे दोनों भाई
आश्रय ले माया का उसने, तब पत्थर की वर्षा बरसाई

बाणों की वर्षा के द्वारा, रोक दिया शिलाओं को जब
आती हुई उस निशाचरी के, काट दिए दो हाथ थे तब

दोनों भुज कट जाने से, थकी ताटका करती गर्जन
नाक-कान भी काट लिए तब, कुपित हुए सुमित्रा नन्दन