श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
शततम: सर्ग:
श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना
निरपराध होने पर भी जिन्हें, मिथ्या दोष लगा दें दंड
उन मनुष्यों के आँसू गिरकर, शासक का कर देते अंत
क्या तुम वृद्ध पुरुषों, बालकों, प्रधान-प्रधान वैद्यों का भी
मधुर वचन, अनुराग, धन आदि से, करते हो सम्मान कभी
गुरुजनों, तपस्वियों, देवों, अतिथि गण, चैत्यों, मंदिरों को
नमस्कार करते हो न तुम, वृद्धजनोंऔर ब्राह्मणों को
तुम अर्थ के द्वारा धर्म को, धर्म के द्वारा अर्थ क्षेत्र में
हानि तो नहीं पहुँचाते हो, आसक्ति तथा लोभ से उनमें
विजयी वीरों में श्रेष्ठ हो, ज्ञाता समयोचित कर्त्तव्य के
समय का करके विभाग तुम, सेवन करते न सही समय में
शास्त्रों के ज्ञाता ब्राह्मण, पुरवासी, जनपदवासी मानव
कल्याण कामना तो करते हैं, हित तुम्हारे सभी मिलकर
नास्तिकता, असत वचन, आलस्य, क्रोध, प्रमाद, दीर्घसूत्रता
ज्ञानी का संग न करना, सदा इन्द्रियों के वश में होना
राजकार्यों के बारे में, एकांत में चिंतन प्रवाह
प्रयोजन को जो नहीं समझते, अयोग्य मंत्रियों की सलाह,
एक साथ ही सब शत्रुओं पर, राजा का आक्रमण करना
न करना मांगलिक अनुष्ठान, गुप्त मन्त्रणा प्रकट कर देना
ये राजा के दोष हैं चौदह, तुमने तो इन्हें नहीं धरा
नीतिशास्त्र की आज्ञा से तुम, सबसे करते हो मशवरा
काम से उत्पन्न हों जो दोष, दशवर्ग का त्याग किया है
त्याज्य हैं वे राजा के लिए, पंचवर्ग पर ध्यान दिया है
साम, दान, दंड, भेद चतुर्वर्ग, सबल तुम्हारा सप्त वर्ग
आठ दोष तो त्याग दिए हैं, क्रोध से जो होते उत्पन्न
राजा के जो योग्य कर्म हैं, अष्ट कर्म तो वे करते हो
कृषि, व्यापार, पुल, दुर्ग बना,खानों पर अधिकार करते हो
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