श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
शततम: सर्ग:
श्रीरामका भरतको कुशल-प्रश्न के बहाने राजनीति का उपदेश करना
वन से हाथी मंगवाना, कर लेना अधीन राज्यों से
निर्जन स्थानों को बसाना, अष्ट धर्म हैं यही राजा के
धर्म, अर्थ व काम पुरुषार्थ, इस त्रिवर्ग पर ध्यान दिया है
दण्डनीति, त्रिवेद, वार्ता, इन विद्याओं को अपनाया है
इन्द्रियों पर विजय पायी है, क्या तुमने अपनी मेधा से
सन्धि, विग्रह, यान, आदि इन, परिचित तो हो इन छह गुणों से
दैवी और मानुषी बाधाओं, नीतिपूर्ण कृत्य राजा के
विशन्ति वर्ग के राजाओं को, प्रकृति मंडल को राज्य के
शत्रु पर आक्रमण , व्यूह रचना, सन्धि, विग्रह से परिचित हो
त्याज्य को त्याग इनमें से, ग्रहणशील ही धारण करते हो
नीतिशास्त्र की आज्ञानुसार, मंत्रियों से सलाह करते
वेदयुक्त सब कार्य ही करते, निज क्रिया सदा सफल करते
विनय आदि गुणों का दायक, शास्त्रज्ञान क्या सफल हुआ है
जो कहा है तुमसे मैंने, निश्चय यही तुम्हारा भी है
पिता और प्रपितामह ने, जिस आचरण का किया है पालन
जो मूल है कल्याण का, सत्कर्मों का करते हो पालन
ग्रहण तो नहीं करते हो तुम, स्वादिष्ट अन्न कभी अकेले
मित्रों को भी देते हो, जो उसकी आशा रखने वाले
धर्मानुसार दण्ड जो धारे, प्रजापालक विद्वान् नरेश
पृथ्वी को अधिकार में लेता, स्वर्ग जाता त्याग कर देह
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
सौवाँ सर्ग पूरा हुआ.
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