श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
एकाधिकशततम: सर्ग:
श्रीराम का भरत से वन में आगमन का प्रयोजन पूछना, भरत का उनसे राज्य ग्रहण करने के लिए कहना और श्रीराम का उसे अस्वीकार कर देना
भली प्रकार समझाकर भरत को, श्रीराम ने तब यह पूछा
किस कारण तुम वन में आए, चाहता हूँ मैं तुमसे सुनना
राज्य छोड़, वल्कल धारे तुम, जो इस वन प्रदेश आए हो
स्पष्ट कहो हर इक बात को, कृष्ण मृगचर्म, जटा धारे हो
बलपूर्वक दबा कर उरशोक, हाथ जोड़कर कहा भरत ने
पिता महाराज कर दुष्कर कर्म, स्वर्ग लोक को चले गए
निज भार्या व मेरी माँ के, कहने से कर्म किया कठोर
माँ ने भी यश खोने वाला, कर्म कर डाला यह अति घोर
राज्य रूपी फल न पाकर वह, विधवा होकर शोकाकुल है
महाघोर नरक की भागी, बनेगी माता यह निश्चित है
दास स्वरूप मुझ भरत पर अब, कृपया कीजिए, हूँ अभिलाषी
राज्य ग्रहण आज ही करके, अभिषेक कराएं इन्द्र की भांति
प्रजा और विधवा माताएं, आयी हैं सब निकट आपके
कृपा करें व राज्य संभालें, ज्येष्ट पुत्र होने के नाते
शिष्य, दास, मैं भाई आपका, कृपा करें मुझपर रघुराय
कुल परंपरा से चले आ रहे, मन्त्रिसमुह का यह निर्णय
ये सब सचिव थे पिता काल में, सदा इनका सम्मान किया
इनकी प्रार्थना न ठुकराएं, यह कह भरत ने प्रणाम किया
नेत्रों से उन्हें अश्रु बहाते, दीर्घ श्वास गज सम लेते
राम ने भाई को उठाया, तब लगा हृदय से यह बोले
भाई , तुम्हीं बताओ कुलवान, सत्वगुणी, तेजस्वी, व्रती
राज्य हित कैसे कर सकता, पिता की आज्ञा का हनन भी
तुम्हें पूर्ण निर्दोष मानता, दोष न देखो तुम माता में
अभीष्ट स्त्रियों, प्रिय पुत्रों पर, है गुरू का अधिकार सदा से
है अधिकार दें कैसी आज्ञा, हम पिता के शिष्य समान
यही रीति हमारे कुल की, तुम भी नहीं इससे अनजान
वल्कल वस्त्र, मृगचर्म पहनाकर, वन में भेजें या राज्य दें
थे समर्थ वे दोनों के हित, कैसे न मानूँ वचन उनके
है जितनी गौरव बुद्धि पिता में, हो उतनी ही माता में
माँ-पिता दोनों की आज्ञा, क्यों विपरीत चलूं मैं उनके
समस्त जगत हित राज्य संभालो, तुम अयोध्या में रहकर
दण्डकारण्य में रहना उचित, मुझे वल्कल वस्त्र पहन कर
बहुत से लोगों के सम्मुख, देकर हमें पृथक दो आज्ञा
स्वर्ग सिधारे हैं महाराज, मानो तुम उनकी ही आज्ञा
चौदह वर्षों तक जंगल में रह, राज्य का उपभोग करूँगा
इस को हितकारी मैं मानता, ब्रह्मा पद भी नहीं लूँगा
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में
एक सौ एकवाँ सर्ग पूरा हुआ.
बहुत अच्छा...गहन लेखन अनीता जी।
ReplyDeleteस्वागत व आभार , बाल्मीकि रामायण की प्रस्तुति है
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