श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
सप्तसप्ततितमः सर्गः
भरत का पिता के श्राद्ध में ब्राह्मणों को बहुत धन-रत्न आदि
का दान देना, तेहरवें दिन अस्थि संचय का शेष कार्य पूर्ण करने के लिए पिता की चिता
भूमि पर जाकर भरत और शत्रुघ्न का विलाप करना और वसिष्ठ तथा सुमन्त्र का उन्हें
समझाना
दस दिन जब व्यतीत हो गये, किया ग्यारहवें दिन का श्राद्ध
आत्मशुद्धि हित अगले दिन भी, मासिक व सपिण्डीकरण श्राद्ध
धन, रत्न, अन्न, वस्त्रों संग, कई पशुओं का भी दान किया
ब्राह्मणों को विनीत भाव से, स्वर्ण-चाँदी भी प्रदान किया
पारलौकिक हित के हेतु, दास-दासियों संग दी सवारी
बड़े-बड़े घर भी दे डाले, विधिपूर्वक हर रीति पूर्ण की
प्रातःकाल तेहरवें दिन पर, भरत विलाप लगे थे करने
अस्थिसंचय हेतु जब आये, दुःख से भरे गले से कहने
सौंप दिया था पिता आपने, बड़े भाई के हाथ मुझे
कोई नहीं आश्रय अब मेरा, चले गये जब वे वन में
जो अनाथ हुई हैं देवी, जिनका राम गया उन्हें तज के
उन कौसल्या माँ को दे पीड़ा, आप कहाँ पर चले गये
चितास्थल वह पिता का उनके, भरा हुआ था चिता भस्म से
बिखरी हुई जली हड्डियाँ, देख वहाँ डूबे अति दुःख में
दीनभाव से रोकर उस क्षण, गिरे भूमि पर होकर व्याकुल
इंद्र ध्वज खिसके ज्यों नीचे, ऊपर रखने की जिसे कोशिश
सभी मंत्री निकट आ गये, पावन व्रत धारी भरत के
ज्यों ययाति के निकट गये अष्टक, जब स्वर्ग से वे गिरे थे
देख भरत को शोक से व्याकुल, शत्रुघ्न भी हुए अचेत
स्मरण करके पिता स्नेह को, सुध-बुध खोकर हुए निस्तेज
किया मंथरा ने प्राकटय, कैकेयी सम ग्राह है जिसमें
डूब रहे हैं हम बेबस हो, वरदानमय शोक समुद्र में
very nice lines
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