श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
अष्ट सप्ततितमः सर्गः
शत्रुघ्न का रोष, उनका कुब्जा को घसीटना और भरतजी के कहने से उसे मूर्छित अवस्था में छोड़ देना
तेरहवें दिन कार्य पूर्ण कर, भरत शोक से उबर न पाए
निकट राम के जाने का जब, मन में वह विचार थे लाये
लक्ष्मण के छोटे भाई ने, आकर वचन कहे ये उनसे
स्वजन हों या अन्य कोई भी, राम सदा सबके दुःख हरते
सत्वगुण से सम्पन्न हैं जो, आश्रय जिनका सब लेते थे
एक स्त्री के द्वारा वे, कैसे जंगल में भेज दिए गये
बल, पराक्रम
से सम्पन्न जो, लक्ष्मण नामक शूरवीर हैं
वे भी कुछ नहीं कर पाए, इसका अति ही दुःख मुझको है
कैद पिता को कर उन्होंने, इस संकट से क्यों न बचाया
राजा नारी के वश में थे, उन्हें मार्ग पर क्यों न लाया
शत्रुघ्न जब भरे रोष में, ऐसे वचन भरत से कहते
पूर्व द्वार पर खड़ी हो गयी, कुब्जा सजी हुई रत्नों से
उत्तम चन्दन का लेप लगा, रानियों से वस्त्र पहनी थी
भांति-भांति के आभूषण धर, बँधी वानरी सम लगती थी
वही बुराई की जड़ भी थी, मूल कारण थी वनवास का
दृष्टि पड़ी तो द्वारपाल ने, निर्दयता से उसे घसीटा
दे शत्रुघ्न के हाथ में कहा, क्रूर कर्म की कर्त्ता
यह है
जिसके कारण राम गये वन, पिता आपके देह त्याग गये
जैसा आप समझते उचित, बर्ताव करें वैसा ही इससे
द्वारपाल की बात सुनी तो, दुःख और बढ़ा उनके मन में
कर्त्तव्य का निश्चय करके, कहा सुना कर सभी लोगों से
पिता और भाइयों को मेरे, दुःख पहुँचा इस पापिनी से
बल पूर्वक पकड़ के कहा, इस क्रूर कर्म का फल यह भोगे
गूंज उठा महल वह सारा, चीखी जब वह भय के मारे
फिर तो उसकी सारी सखियाँ, संतप्त हो लगी भागने
वहीं रहेंगे हम सुरक्षित, कौशल्या की शरण में चलें
ReplyDeleteजय मां हाटेशवरी.......
आप को बताते हुए हर्ष हो रहा है......
आप की इस रचना का लिंक भी......
31/03/2019 को......
पांच लिंकों का आनंद ब्लौग पर.....
शामिल किया गया है.....
आप भी इस हलचल में......
सादर आमंत्रित है......
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धन्यवाद
अनीता जी, एक मार्मिक प्रसंग का बहुत सुन्दर काव्यानुवाद !
ReplyDeleteअप्रतिम रचना..
ReplyDeleteवाह
ReplyDeleteआप सभी का स्वागत व आभार !
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