श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
चतुः सप्ततितमः सर्गः
भरत का कैकेयी को कड़ी फटकार देना
इस प्रकार कर निंदा माँ की, रोषावेश में भरत भर गये
माँ नहीं तू शत्रु है मेरी, फिर कठोर वाणी में बोले
क्रूर हृदया हो भ्रष्ट राज्य से, धर्म ने त्याग किया तेरा
रोना नहीं अब मृत राजा हित, मरा जान मुझे अब रोना
राजा तथा राम ने आखिर, क्या तेरा अनुपकार किया था
एक साथ ही उन दोनों को, पड़ा मृत्यु व वनवास भोगना
कारण बनी कुल विनाश का, भ्रूण हत्या का पाप लगेगा
इसीलिए नरक में जा तू, लोक पिता का नहीं मिलेगा
वन भेजकर प्रिय राम को, जो ऐसा बड़ा पाप किया है
तेरे उस घोर कर्म ने, मेरे हित भी भय खड़ा किया है
तेरे कारण पिता मरे हैं, वन का आश्रय लिया राम ने
अपयश का भागी बनाया, मुझे भी तूने जीव जगत में
मुझसे बात नहीं अब करना, दुराचारिणी, पतिघातिनी
राज्य के लोभ में पड़कर, अति क्रूर कर्म को करने वाली
कौसल्या, सुमित्रा आदि को, दुःख महान दिया है तूने
अश्वपति की नहीं तू कन्या,
उत्पन्न है राक्षसी कुल में
तेरा पाप मुझमें आया है, हो गया हूँ पिता हीन मैं
अप्रिय बना समस्त जगती का, बिछुड़ गया दो भाइयों से
किस लोक में जाएगी अब तू, राम पिता तुल्य हैं मेरे
जितेन्द्रिय, सभी के बन्धु, रूप यह उनका क्या तू ना जाने
माँ के अंग-प्रत्यंग, हृदय से, पुत्र जन्म हुआ करता है
अन्य बंधु प्रिय होते हैं, सर्वाधिक प्रिय पुत्र होता है
भरत में माँ के भाव लिखे हैं आपने पर शायद ये तो नियति का लिखा था ...
ReplyDeleteहावपूर्ण लिखा है आपने ...
स्वागत व आभार दिगम्बर जी !
Deleteभावपूर्ण
ReplyDeleteबहुत खूब
स्वागत व आभार ज्योति जी !
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