Friday, April 27, 2018

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना


श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्

 त्रिसप्ततितमः सर्गः

भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट करना 

राम यदि तुझे माँ न मानते, झट तेरा त्याग किया होता 
कलुषित बुद्धि सदा निंदित है, तूने उसे कहाँ से पाया 

बड़ा पुत्र राज्याधिकारी, अन्य सभी सेवक ही होते 
राजधर्म तू नहीं जानती, कानून सदा एक से होते 

इक्ष्वाकु वंश में इसी का, सदा ही पालन होता आया 
केकय के राज में जन्मी तू, बुद्धिमोह कहाँ से पाया 

पापपूर्ण विचार है तेरा, कदापि नहीं पूर्ण करूंगा 
नींव डाल दी उस विपदा की, प्राण भी ले सकती जो मेरा

ले, अप्रिय करूंगा तेरा, वन से राम को लौटाकर 
स्वजनों के प्रिय श्रीराम का, सदा रहूँगा सेवक बनकर 

ऐसा कह भरत ने दुखी हो, कैकयी को फिर फटकारा 
मन्दराचल की गुफा में बैठ, सिंह ज्यों कोई गरज रहा 

इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग 
पूरा हुआ.


4 comments:

  1. ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जज साहब के बुरे हाल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !

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    1. बहुत बहुत आभार शिवम जी !

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  2. राम राज्य में भी मोह माया का वर्चस्व था अनीता जी
    इसबात को नकार तो नहीं सकते अपन.

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    1. सही कहा है आपने, भरत के प्रति कैकेयी का मोह ही था जो उसने राम को वनवास भेजा, काम, क्रोध, मोह, लोभ तो मानव मन में सदा से हैं, कोई राम बनकर ही इनके पार जा सकता है

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