श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
त्रिसप्ततितमः
सर्गः
भरत का कैकेयी को धिक्कारना और उसके प्रति महान रोष प्रकट
करना
राम यदि तुझे माँ न
मानते, झट तेरा त्याग किया होता
कलुषित बुद्धि सदा
निंदित है, तूने उसे कहाँ से पाया
बड़ा पुत्र
राज्याधिकारी, अन्य सभी सेवक ही होते
राजधर्म तू नहीं
जानती, कानून सदा एक से होते
इक्ष्वाकु वंश में
इसी का, सदा ही पालन होता आया
केकय के राज में
जन्मी तू, बुद्धिमोह कहाँ से पाया
पापपूर्ण विचार है
तेरा, कदापि नहीं पूर्ण करूंगा
नींव डाल दी उस
विपदा की, प्राण भी ले सकती जो मेरा
ले, अप्रिय करूंगा तेरा, वन से राम को लौटाकर
स्वजनों के प्रिय
श्रीराम का, सदा रहूँगा सेवक बनकर
ऐसा कह भरत ने दुखी
हो, कैकयी को फिर फटकारा
मन्दराचल की गुफा
में बैठ, सिंह ज्यों कोई गरज रहा
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि
निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में तिहत्तरवाँ सर्ग
पूरा हुआ.
ब्लॉग बुलेटिन की आज की बुलेटिन, जज साहब के बुरे हाल “ , मे आप की पोस्ट को भी शामिल किया गया है ... सादर आभार !
ReplyDeleteबहुत बहुत आभार शिवम जी !
Deleteराम राज्य में भी मोह माया का वर्चस्व था अनीता जी
ReplyDeleteइसबात को नकार तो नहीं सकते अपन.
सही कहा है आपने, भरत के प्रति कैकेयी का मोह ही था जो उसने राम को वनवास भेजा, काम, क्रोध, मोह, लोभ तो मानव मन में सदा से हैं, कोई राम बनकर ही इनके पार जा सकता है
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