श्रीसीतारामचंद्राभ्यां
नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
पंचसप्ततितमः सर्गः
कौसल्या के सामने भरत का शपथ खाना
बहुत देर हुई होश में आकर, जब पराक्रमी भरत उठे
अश्रु भरे नयनों से बैठी, दीन हुई माँ को लख बोले
मंत्रीवर ! नहीं राज्य की इच्छा, ना ही कहा कभी इस हित
राजा ने जो लिया था निर्णय, नहीं ज्ञात उसके भी हित
शत्रुघ्न के साथ दूर था, नहीं मुझे कुछ ज्ञान था इसका
हुआ भाई का निर्वासन कब, सब कुछ मुझको अज्ञात था
माता को जब कोस रहे थे, कौसल्या ने आवाज सुनी
कैकेयी के पुत्र आ गये, मैं आज मिलना हूँ
चाहती
कह सुमित्रा से तब ऐसा, दुर्बल व सूखे मुख वाली
जहाँ भरत थे उसी स्थान पर, कौसल्या तब चलीं कांपती
उसी समय आ भरत रहे थे, कौसल्या के भवन की ओर
मार्ग में गिर पड़ीं कौसल्या, दौड़े आये भरत वहाँ पर
दोनों रोने लगे गले मिल, कौसल्या ने कहा भरत से
राज्य चाहते थे तुम केवल, प्राप्त हुआ निष्कंटक राज्य ये
किन्तु खेद इसका है सबको, क्रूर कर्म से इसको पाया
अति शीघ्रता थी कैकेयी को, जाने लाभ कौन सा भाया
चीर वस्त्र पहनाये राम को, वन-वन भटक रहे वे कहाँ
अब मुझको भी वहीं भेज दे, हैं महा यशस्वी राम जहाँ
या फिर साथ सुमित्रा को ले, अग्निहोत्र को आगे कर के
सुखपूर्वक मैं वहीँ चलूँगी, जहाँ राम निवास हैं करते
अथवा तुम अपनी इच्छा से, मुझे राम के निकट भेज दो
धन-धान्य सम्पन्न यह राज्य, कैकेयी से मिला है तुमको
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ReplyDeleteआभार !
ReplyDeleteसरल सुबोध भाषा में रामायण के का ये अंश हृदयग्राही है आदरणीय अनीता जी | सादर नमन |
ReplyDeleteस्वागत व आभार रेणु जी !
DeleteVery nice post...
ReplyDeleteWelcome to my blog for new post.