Wednesday, April 13, 2022

भरत की पुनः श्रीराम से अयोध्या लौटने और राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

षडधिकशततम: सर्ग:


भरत की पुनः श्रीराम से अयोध्या लौटने और राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना 


रहें पिता की योग्य संतान, मत करें समर्थन अनुचित का 

जो भी किया उन्होंने उसकी, धीर पुरुष सदा करें निंदा 


कैकेयी, पिताजी, मेरी व, बंधु-बांधवों, पुरवासी की 

रक्षा हेतु स्वीकार करें, हे  भ्राता ! प्रार्थना यह  मेरी 


कहाँ क्षत्रिय धर्मों का पालन, कहाँ वनवासी का जीवन 

नहीं करें विरोधी कर्म ये, जटा धारण कहाँ जन पालन 


क्षत्रिय का यह प्रथम धर्म है, राज्यभिषेक हो, बने राजा 

अनिश्चित धर्म के लिए तजे, नर भला कौन ऐसा होगा 


क्लेश साध्य धर्म यदि चाहते,  वर्णाश्रम धर्म अपनाएँ 

गृहस्थ आश्रम सर्वोत्तम है, उसे आप क्यों तजना चाहें 


शास्त्र ज्ञान। आयु दोनों में, बालक हूँ आपकी अपेक्षा 

भला आपके रहते मैं कैसे, भूमि पर शासन करूँगा 


बुद्धि-गुण दोनों से हीन हूँ, राज्य आप द्वारा हो रक्षित 

राज्य चलाना बात दूर की, बिना आपके रहूँ न जीवित 


श्रेष्ठ और निष्कंटक राज्य, स्वधर्म जान करें पालन इसका 

मंत्री, सेनापति, प्रजा संग, उपस्थित मुनि मंत्रों के ज्ञाता 


यहीं आपका राजतिलक हो, इंद्र की भाँति आप विजित हों 

चुका, देव,ऋषि, पितरों के ऋण, अब पुनः अयोध्या लौट चलें 


दमन करें शत्रुओं का आप, निज मित्रों को संतृप्त करें 

सुहृद सभी प्रसन्न हो जाएँ, धर्म की शिक्षा मुझे सदा दें 


धो डालें माँ के कलंक को, पिता को निंदा से बचाएँ 

मस्तक टेक करूँ प्रार्थना, महादेव सम कृपा, दया करें 


यदि आप ठुकरा देते हैं, आज यहाँ मेरी विनती को 

मैं भी संग चलूँगा आपके, सुनें आप मेरे निश्चय को 


ग्लानि युक्त हृदय से भरत ने, मस्तक झुका किया निवेदन 

किंतु सत्वगुण सम्पन्न राम ने, निषेध किया दृढ़ता पूर्वक


देख राम की अद्भुत दृढ़ता, दुखी-सुखी हुए एक साथ सब 

दुःख अयोध्या न जाने का, सुख उनकी यह दृढ़ता देख कर 


ऋत्विज, पुरवासी, माताएँ, भरत की सबने की प्रशंसा 

हो विनीत उन सबने भी फिर, की राम से थी वही याचना 


इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में 

एक सौ छवाँ सर्ग पूरा हुआ.


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