भरत की पुनः श्रीराम से अयोध्या लौटने और राज्य ग्रहण करने की प्रार्थना
अर्थयुक्त वचन यह कहकर, श्रीरामचंद्र मौन हो गए
मंदाकिनी तट पर भरत ने, ये अनोखे फिर वचन कहे
नहीं आप सा दूसरा जगत में, परे आप हर सुख-दुःख से
वृद्ध जनों से आदर पाते, फिर भी उनसे प्रश्न पूछते
मृत जीव की भाँति देह से, नहीं संबंध जीवित रहते भी
राग-द्वेष से मुक्त सदा जो, उसको फिर पीड़ा क्यों होगी
आत्म-अनात्म का ज्ञान जिसे है, संकट में भी शांत रहेगा
आप सत्वगुण से संपन्न, सत्य प्रतिज्ञ, सर्वज्ञ, महात्मा
ऐसे उत्तम गुणों से युक्त, जन्म-मरण के भेद को जानें
असह्य दुःख कैसे आ सकता, बुद्धिमान, साक्षी, सयाने
जब राज्य से बाहर गया था, तुच्छ विचार किया माता ने
मुझे नहीं अभीष्ट पाप वह, हों प्रसन्न क्षमा उसे करके
धर्म के बंधन में बँधा हूँ, माँ को दंड नहीं दे सकता
कुल-धर्म दोनों ही शुभ हैं, मैं मातृ वध कैसे कर सकता
महाराज पिता, गुरू,व राजा, चले गए हैं परलोक को
इसलिए इस भरी सभा में, निंदित नहीं कर सकता उनको
भला कौन होगा नर ऐसा, पूर्ण धर्म का ज्ञान जिसे हो
स्त्री प्रिय करने की ख़ातिर, कुत्सित कर्म जो कर सकता हो
लोक में यह किवदंती प्रचलित, अंतकाल में मति खो जाती
किया कठोर कृत्य राजा ने, सिद्द सत्यता इसकी कर दी
क्रोध, मोह, साहस के कारण, किया धर्म का जो उल्लंघन
निर्णय वही पलट दें आज, आप करें उसका संशोधन
है उत्तम संतान वही जो, निज पिता की भूल सुधारे
नहीं करे समर्थन उसका, जो बाहर धर्म की सीमा से
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