श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः
श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्
अयोध्याकाण्डम्
षण्णवतितम: सर्ग:
वन जंतुओं के भागने का कारण जानने के लिए श्रीराम की आज्ञा से लक्ष्मण का शाल वृक्ष पर चढ़ कर भरत की सेना को देखना और उनके प्रति अपने रोषपूर्ण उद्गार प्रकट करना
मंदाकिनी का दर्शन करा, मिथिलेशकुमारी सीता को
बैठ गए समतल स्थान पर, तत्पर हुए उनके लालन को
तापस जन प्रयोग करें जिनका, ऐसे फल व मूल खिलाते
यह फल स्वादिष्ट है खाओ, कह मानसिक आनंद बढ़ाते
रघुनन्दन जब यह कहते थे, भली प्रकार यह कंद है सिका
भरत की सेना के कारण, धूल व कोलाहल तब प्रकटा
गज समूह भी लगे भागने, सुनकर वह महान कोलाहल
देखी धूल, सुना शोर राम ने, लक्ष्मण से यह कहे वचन
तुमसे ही माता सुमित्रा, श्रेष्ठ पुत्र वाली कहलाती
देखो तो सही शोर है कैसा, कैसी यह गर्जना आती
यह पता लगाओ क्यों भागते, हाथी, भैंस, मृग आदि पशु
सिंह से तो भयभीत नहीं या, शिकार खेलता राजा ही
अपरिचित पक्षियों का आना, इस पर्वत पर अति कठिन है
हिंसक पशु का आक्रमण फिर, होना आखिर कैसे संभव है
श्रीराम की आज्ञा पाकर, चढ़े लक्ष्मण शाल वृक्ष पर
सभी दिशाओं को देखकर, पूर्व दिशा में गई थी नजर
तत्पश्चात उत्तर दिशा में, सेना एक दिखाई दे गई
हाथी, घोड़ों, रथों से पूर्ण, पैदल सैनिकों से सज्जित थी
श्रीराम को दी सूचना इसकी, लक्ष्मण ने यह बात कही
अग्नि बुझा, कवच पहन लें, गुफा में बैठें सीता देवी
यह सुनकर श्रीराम ने कहा, भली प्रकार तुम वहाँ देखो
तुम्हारी समझ में किसकी सेना, हो सकती है यही कहो
क्रोधित हुए रोष से लक्ष्मण, सेना की तरफ लगे देखने
मानो उसे भस्म ही कर दें, अति क्रोध में भरकर बोले
निश्चय ही कैकेयी पुत्र है, हमें मारने यहाँ आया
अयोध्या का राज पा चाहे, निष्कंटक राज्य हो उसका
सम्मुख जो विशाल पादप है, उसके निकट ही रथ खड़ा है
उज्ज्वल तने से युक्त जिस पर, कोविदार से चिह्नित ध्वज है
घुड़सवार भी इधर आ रहे, हाथी पर भी चढ़े सवार
हम दोनों को धनुष बाण ले, युद्ध हेतु है रहना तैयार
कोविदार चिह्नित ध्वजा के, रथ पर हम अधिकार करेंगे
आज भरत से होगा सामना, उसी कारण हम हैं वन में
वंचित किया आपको उसने, सनातन राज्य के अधिकार से
संकट में सभी को डाला, शत्रु हमारा यही भरत है
वध के योग्य, अपकारी भी, उसे नहीं जीवित छोड़ेंगे
इसमें कोई नहीं अधर्म, आप ही फिर शासक बनेंगे
कैकेयी का बांधवों सहित मैं, वध करने को हूँ तत्पर
कैकेयी के महा पाप से, आज यह पृथ्वी होगी मुक्त
रोके हुए अपमान, क्रोध को, आज सेना पर छोड़ूँगा
आग लगा दी जाए जैसे, सूखा घास-फूँस है जलता
टुकड़े-टुकड़े कर शत्रु के, आज अपने तीखे बाणों से
चित्रकूट के वन प्रांतर को, सींचूँगा उनके रक्त से
बाणों से हत हाथी-घोड़े, तथा मनुष्य भी जो मृत हों
गीदड़ आदि माँसभक्षी पशु, इधर-उधर घसीटें उनको
सेना सहित भरत का वध कर, शस्त्र ऋण से उऋण होऊँगा
इसमें संशय नहीं मुझे, हर अपमान का बदला लूँगा
इस प्रकार श्रीवाल्मीकि निर्मित आर्ष रामायण आदिकाव्य के अयोध्याकाण्ड में छियानबेवाँ सर्ग पूरा हुआ.
आनन्द आ गया । सुन्दर सृजन हेतु साधुवाद ।
ReplyDeleteजी नमस्ते ,
ReplyDeleteआपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (२७-०२-२०२१) को 'नर हो न निराश करो मन को' (चर्चा अंक- ३९९०) पर भी होगी।
आप भी सादर आमंत्रित है।
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अनीता सैनी
जय श्री राम
ReplyDeleteसराहनीय प्रयास ।
ReplyDeleteबहुत सुंदर
ReplyDeleteजय श्री राम !
ReplyDeleteबहुत सुंदर सृजन
ReplyDeleteआप सभी का स्वागत व आभार !
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