Friday, February 5, 2021

श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना

श्रीसीतारामचंद्राभ्यां नमः


श्रीमद्वाल्मीकीयरामायणम्

अयोध्याकाण्डम्

चतुर्नवतितम: सर्ग:


श्रीराम का सीता को चित्रकूट की शोभा दिखाना 


चित्रकूट श्रीराम को प्रिय था, दीर्घकाल से वहाँ रह रहे 

उसकी शोभा को दिखाने, इक दिन सीता से यह बोले 


यद्यपि राज्य से भ्रष्ट हुआ मैं, विलग सुहृदों से रहता हूँ 

व्यथित नहीं कर पाता कुछ भी, जब इस पर्वत को निहारूँ 


भिन्न-भिन्न आकार के पक्षी, देखो कैसे कलरव करते

नाना धातुओं से सुमण्डित, ऊँचे शिखर गगन बेधते 


कोई चमक रहे चांदी से, रक्तिम आभा कुछ बिखेरें 

किन्हीं प्रदेशों के रंग पीले, मणियों सम उद्भासित होते 


कोई पुखराज, स्फटिक कोई, है कोई केवड़े पुष्प सा

नक्षत्रों से चमक रहे कुछ, पारद सम प्रकाश किसी का 


मृग, व्याघ्र, चीते, रीछों से, भरा हुआ यह सुंदर पर्वत 

परित्याग कर दुष्ट स्वभाव का, रहते सब प्राणी मिलकर 


आम, प्रियल, आसन, कटहल, बीजक, जामुन, बेल, वर्ण, महुआ, 

बेर, आंवला, कदम्ब, आदि से, अनुपम शोभा से व्याप्त हुआ 


इन रमणीय शैल शिखरों पर, उन प्रदेशों को भी देखो 

मिलन भावना को उद्दीप्त कर, सदा बढ़ाते हैं हर्ष को 


वहां मनस्वी किन्नर जोड़े, एक साथ हो टहल रहे हैं 

जिनके खड्ग, व सुंदर वस्त्र, शाखाओं से लटक रहे हैं 


कहीं से  झरने फूट रहे, कहीं भूमि से सोते बहते 

पर्वत शोभित है इनसे, ज्यों मद धार से हाथी होते 

  

नाना प्रकार के फूलों की, सुगन्ध भरी वायु जब आती

नासिक को तृप्त करे वह, किस पुरुष का हर्ष नहीं बढ़ाती


यदि तुम्हारे व लक्ष्मण संग, रहूँ अनेकों वर्षों तक मैं 

नहीं करेगा जरा भी पीड़ित, नगर त्याग का शोक मुझे 


फूलों-फलों से युक्त हुआ यह, है पक्षियों से भी सेवित 

विचित्र शिखर वाले पर्वत पर, लगता बहुत है मेरा चित 


इस वनवास से पाए दो फल, मुझको दुगना लाभ हुआ  

एक पिता की आज्ञा पाली, दूसरा भरत का प्रिय हुआ   


होता है क्या तुम्हें आनंद, हे विदेह कुमारी ! बोलो 

 इन पदार्थों को जब देखती, मन, वाणी, देह को प्रिय जो 


प्रपितामह मनु आदि राजा ने, अमृत कहा उस वनवास को 

नियमपूर्वक जो किया हो, देता है परम कल्याण को वो 


 

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